तन मन जन: भारत में जनस्वास्थ्य और बच्चों की मौत


आजकल उत्तर प्रदेश और बिहार से वायरल बुखार के कारण बच्चों के मृत्यु की खबर है। दो सौ से ज्यादा बच्चे वायरल बुखार से मर चुके हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार के लगभग 25 जिले इस बुखार से बुरी तरह प्रभावित हैं। सरकारी अस्पतालों की हालत आज भी भरोसेमंद नहीं है। हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं और देश में जिला और प्रखण्ड स्तर में बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था के कारण ग्रामीण इलाकों के बच्चों में वायरल बुखार के कारण समुचित इलाज और उसके सही निदान (डायग्नोसिस) के अभाव में हो रही मौतों के आंकड़ों को गम्भीरता से लेने के बजाय सरकार उसे छुपा रही है। अभी भी इन इलाकों से बच्चों के बीमार होने और उनके सही स्थिति की पक्की खबर न तो प्रिंट मीडिया और न ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में आ पा रही है। अभी तक तो यह भी स्पष्ट नहीं हो सका है कि ये मौतें वायरल संक्रमण से हो रही हैं या बैक्टीरियल संक्रमण से। उत्तर प्रदेश तो जापानी इन्सेफ्लाइटिस बीमारी के जानलेवा संक्रमण के लिए बदनाम रहा है। यहां हर साल हजारों बच्चे इस संक्रमण से मर जाते हैं।

इसमें कोई शक नहीं कि विगत तीन दशकों में शिशु और मातृ मृत्यु दर में अपेक्षाकृत कमी आयी है, लेकिन स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता अब भी उतनी नहीं सुधर पायी है जितना दावा किया गया है। यह बात ध्यान देने की है कि नवजात शिशुओं के जीवन का पहला एक महीना माँ और बच्चे दोनों के लिए महत्वपूर्ण होता है। इसलिए देश की सेहत के लिए यह जरूरी है कि मातृ व शिशु स्वास्थ्य पर ईमानदारी से जिम्मेवारी तय कर ध्यान दिया जाए।

दुनिया भर में हर साल पैदा होने वाले कुल 2.5 करोड़ बच्चों का लगभग पांचवां हिस्सा भारत में जन्म लेता है। इनमें से हर एक मिनट पर एक बच्चे की मौत हो जाती है। आंकड़े बताते हैं कि असमय मरने वाली औरतों में 46 फीसद तथा नवजात शिशुओं की 40 फीसद मृत्यु प्रसव के दौरान या प्रसव के 24 घंटे के अन्दर हो जाती है। नवजात शिशुओं की मृत्यु के प्रमुख कारणों में समय से पहले प्रसव (35 फीसद), नवजात शिशुओं को संक्रमण (33 फीसद), प्रसव के दौरान दम घुटने से मौत (20 फीसद) तथा जन्मजात विकृतियों से 9 फीसद है। महत्वपूर्ण बात तो यह है कि प्रसव के दौरान और प्रसव के बाद होने वाली मृत्यु को बेहतर चिकित्सीय देखभाल और समुचित स्वास्थ्य व्यवस्था से काफी हद तक रोका जा सकता है।

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बच्चों की असमय मौत को लेकर युनिसेफ ने एक रिपोर्ट बनायी थी। मार्च 2019 में जारी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि युद्ध व हिंसाग्रस्त क्षेत्रों में रहने वाले बच्चों की अपेक्षा सामान्य देशों के बच्चे साफ सफाई एवं साफ पानी के अभाव में असमय मर जाते हैं। गन्दे पानी एवं गन्दगी से होने वाली बच्चों की मौतों का आंकड़ा हिंसा ग्रस्त क्षेत्र के बच्चों की तुलना में औसतन तीन गुना ज्यादा है। युनिसेफ ने अपनी रिपोर्ट ‘‘वाटर अन्डर फायर’’ में कहा है कि लम्बे समय से युद्धग्रस्त कोई 16 देशों में बच्चों की असमय मौतों की अपेक्षा स्वच्छता की कमी से जुड़ी बीमारियां जैसे दस्त आदि से बच्चों में होने वाली मौतें 20 गुना अधिक होती हैं।

भारत में सरकारी दावों के अनुसार पेयजल सेवाओं के क्षेत्र में लगभग सार्वभौमिक कवरेज के बावजूद अब भी ग्रामीण क्षेत्रों में कोई 51 फीसद आबादी साफ पेयजल से वंचित है। भारत में बढ़ी पर्यावरणीय चुनौतियां भी सभी को साफ पेयजल उपलब्ध कराने में असक्षम हैं। भारत में लगभग 302 जिलों में 33 करोड़ लोग सूखे से प्रभावित होते हैं और लगभग आधा देश बाढ़ की चपेट में होता है। ऐसे में जलजनित रोगों और गन्दगी से होने वाली मौतों में बच्चे सबसे ज्यादा खतरा उठाते हैं। युनीसेफ का आकलन है कि भारत में जलजनित रोगों का वार्षिक आर्थिक बोझ लगभग 42 अरब रुपये है।

भारत में बच्चों की आबादी कुल जनसंख्या का लगभग 40 फीसद है। यहां जन्म लेते ही 5 फीसद बच्चों की मौत हो जाती है। बच्चों की यह मृत्यु दर विकसित देशों की तुलना में बहुत ज्यादा है। स्वास्थ्य के पैमाने पर भारतीय बच्चों के सेहत की स्थिति बहुत खराब है। करीब 40 फीसद भारतीय बच्चे या तो ठीक से विकसित नहीं हुए या कुपोषित हैं। यहां बच्चों के असमय मृत्यु का कारण खराब रहन-सहन, आर्थिक विपन्नता, कुपोषण तथा जातीय व धार्मिक हिंसा है। भारत में बच्चों को प्रभावित करने वाले रोगों में दस्त, पीलिया, पेट में कीड़े, खांसी, निमोनिया, टी.बी., कान व गले के संक्रमण, मस्तिष्क बुखार, मिर्गी, खून की कमी, मलेरिया, कैंसर, वायरल बुखार, गुर्दे के रोग, कुपोषण आदि प्रमुख हैं। ये सभी रोग समुचित इलाज से ठीक किये जा सकते हैं लेकिन यहां के सरकारों की असंवेदनशीलता एवं अज्ञानता की वजह से बच्चों की सेहत दांव पर लगी है। निजीकरण के बाद तो यह और भयावह हुआ है। बच्चों की सेहत का हाल जानना हो तो कभी बच्चों के अस्पताल का रुख कीजिए, स्थिति समझने में देर नहीं लगेगी।

विकास के नाम पर भारत में विभिन्न राजनीतिक दलों की प्राथमिकता में वास्तविक व टिकाऊ विकास कभी रहा ही नहीं। लगभग सभी दलों ने बड़ी पूंजी के लालच में लुटेरी कारपोरेटी व्यवस्था को ही स्वीकार किया। जनता को बहला फुसला कर वोट लेने के अलावा यहां जनता की और कोई हैसियत नहीं है। चुनी हुई हर सरकार सत्ता में आते ही विकास के नाम पर कारपोरेट की तरफदारी करती है और आम लोगों पर डंडे बरसाती है। लोकतंत्र का इससे भद्दा मजाक और क्या हो सकता है। आजादी के 75 वर्ष बीत गए मगर आजाद भारत में आम जनता कभी गर्व महसूस नहीं कर पायी। जाति, धर्म व संकीर्ण जुमलों में फंसा कर यहां के राजनीतिक दलों ने आम लोगों को बहुत गुमराह किया है जिसकी कीमत यहां के नवजात व बच्चे-बच्चियां चुका रहे हैं। उत्तर प्रदेश में बच्चों की खराब सेहत और उनकी सरकारी उपेक्षा बीते दो तीन दशकों में ज्यादा ही बढ़ी है मगर उस पर कोई चिन्तित नहीं है।

स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण का जलवा देखना हो तो चतुर्थ राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वे की यह रिपोर्ट देखें। इस सर्वेक्षण के अनुसार 56 फीसद शहरी और 49 फीसद ग्रामीण लोगों ने निजी स्वास्थ्य सेवा का विकल्प चुना। देश में बुनियादी सुविधाओं के तीव्र निजीकरण के बीच यह स्थिति चिंताजनक है। अपने सामान्य विवेक का उपयोग करें फिर सोचें कि भारत में लगभग 70 फीसद अभावग्रस्त लोगों में महंगे इलाज के प्रति यह आकर्षण कितना वास्तविक है? हाँ, जान बचाने की मजबूरी उन्हें निजी अस्पतालों की तरफ जरूर आकर्षित करती होगी मगर सच्चाई तो यह है कि यदि सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था सुलभ और समुचित हो तो व्यक्ति सरकारी अस्पताल को ही प्राथमिकता देता है।

दिल्ली का उदाहरण सामने है। यहां सरकारी स्तर पर स्वास्थ्य सेवाओं को प्रभावी एवं सुलभ बनाकर आम आदमी पार्टी की सरकार ने एक मिसाल कायम किया है। प्राथमिक स्तर के मुहल्ला क्लिनिक से लेकर राज्यस्तरीय बड़े अस्पतालों एवं मेडिकल कालेजों में सामान्य उपचार से लेकर विशिष्ट आपरेशन व उपचार बिल्कुल मुफ्त हैं और इसका असर दिल्ली व इसके आसपास के नागरिकों पर देखा जा सकता है।

निजीकरण के दौर में महंगे कारपोरेट के अस्पतालों का खुलना जारी है। पहले से सक्रिय अपोलो, मैक्स, मेदान्ता जैसे हजारों बड़े अस्पताल लूट और बेईमानी के लिए मशहूर हो गए हैं। गुणवत्ता एवं विशेषज्ञ उपचार के नाम पर खड़े ये अस्पताल अब लूट और अन्याय के केन्द्र सिद्ध हो रहे हैं। दिल्ली के फोर्टिस एवं मैक्स अस्पतालों द्वारा सामान्य बीमारी के उपचार के नाम पर लाखों रुपये के मनमाने बिल की खबरें आम हैं। इन बड़े पांचसितारा अस्पतालों पर दिल्ली सरकार ने कई बार मजबूर होकर कड़ी कार्रवाई भी की है।

दिल्ली को छोड़कर अन्य राज्यों की बात करें तो वहां सरकारी स्वास्थ्य सेवा लगभग ध्वस्त है। मेरा अध्ययन बताता है कि कई राज्यों में खासकर बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तराखण्ड, हरियाणा आदि में सरकारी स्वास्थ्य केन्द्रों/अस्पतालों की हालत ज्यादा ही खराब है। पीने के पानी, शौचालय, अस्पताल में बिस्तरे और जरूरी साधनों का अभाव तथा कर्मचारियों की गुस्ताखी आम लोगों को अस्पताल आने से रोकती है, फिर भी मजबूर लोग यहीं अपने उपचार के लिए आते हैं।

भारत सरकार के ‘‘चौथे राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वे’’ के अनुसार भारत की 48 फीसद आबादी देश के जिन नौ सबसे गरीब राज्यों में रहती हैं वहां नवजात बच्चों की मौत के 70 फीसद मामले हैं और 62 फीसद मातृ मृत्यु दर है। बच्चे कुपोषित हैं और बीमार हैं। इन नौ राज्यों में से यदि उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों को ही देखें तो पूरे देश में बच्चों की कुल मौतों में से 58 फीसद तो केवल इन्हीं राज्यों में होती है।

भारतीय रिजर्व बैंक के एक आंकड़े के अनुसार इन राज्यों में सार्वजनिक स्वास्थ्य और परिवार कल्याण के लिए कुल निर्धारित राशि का बहुत कम खर्च किया जाता है और इन राज्यों में सामुदायिक और प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की संख्या भी कम है तथा डाक्टर, नर्स व अन्य पैरामेडिकल स्टाफ भी पर्याप्त नहीं है। अब सवाल है कि स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के बिना बच्चों के सेहत की रक्षा कैसे की जा सकती है? सरकारें केवल जुमला फेंककर जनता को बेवकूफ बना रही हैं और देश के नौनिहाल असमय दम तोड़ रहे हैं। चिंता की बात तो यह है कि अपर्याप्त स्वास्थ्य व्यवस्था में सबसे बुरा असर बच्चों पर पड़ रहा है।

तन मन जन: कोरोना काल की अभागी संतानें

हम अभी कोरोना काल में जी रहे हैं। कोरोना वायरस संक्रमण की भयावह त्रासदी को अब डेढ़ वर्ष से ज्यादा हो चुके हैं। इस दौरान देश में कोई 1.2 लाख से ज्यादा बच्चों ने अपने माता-पिता को खोया है। यह आंकड़ा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित चिकित्सा पत्रिका लैसेंट का है। ऐसे में सरकार चिकित्सा सेवाओं के निजीकरण की नीति को जारी रखे हुए है। विडम्बना तो यह कि न तो विपक्ष और न ही नागरिक संगठन महंगी निजी चिकित्सा व्यवस्था के खिलाफ खुलकर बोल पा रहे हैं। कोरोना काल में ही अनाथ हुए लाखों बच्चों को लेकर विभिन्न राज्य सरकारों ने न तो कोई स्पष्ट नीति की घोषणा की है न ही केन्द्र सरकार ने इसको लेकर कोई पहल की है। महंगी निजी स्वास्थ्य व्यवस्था के दुष्चक्र में फंस कर लोग और गरीब होते जा रहे हैं। इस वैश्विक महामारी के आतंक के बावजूद अभी तक न तो केन्द्र सरकार और न ही किसी राज्य सरकार ने जन स्वास्थ्य की मजबूती के लिए कोई ठोस कदम उठाया है। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े राज्यों में जहां हर साल हजारों बच्चे समुचित इलाज और दवा के अभाव में दम तोड़ रहे हैं वहां भी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा अब एक मजाक से ज्यादा कुछ भी नहीं है।

उदारीकरण के दौर में आर्थिक सुधार के नाम पर सबसे ज्यादा सरकारी स्वास्थ्य सेवा का निजीकरण किया गया जिसके विस्फोटक परिणाम सामने हैं। लाखों बच्चे अनाथ हो गए लेकिन महंगे इलाज की वजह से करोड़ों बच्चों के माता-पिता अपनी नियमित आमदनी के स्रोतों से दूर हो गए और अब वे न तो ठीक से अपना जीवन बसर कर सकते हैं और न ही बच्चों के सेहत की रक्षा। गांवों में तो स्थिति भयावह है।

कोरोना वायरस संक्रमण की विभीषिका ने यह स्पष्ट कर दिया कि अब जानलेवा वायरस बीमारियों का दौर शुरू हो चुका है। ये रहस्यमयी वायरस और बैक्टीरिया तो चिकित्सकों और वैज्ञानिकों के लिए भी चुनौती और सवाल हैं तो आम आदमी क्या करे? यदि सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत नहीं किया जाता, बच्चों को समुचित पोषण और रोग से बचाव तथा इलाज के लिए पर्याप्त इन्तजाम नहीं किये जाते तब देश में आम लोगों और बच्चों तथा स्त्रियों को असमय मौतों से बचाना सम्भव नहीं है। दुनिया में जनस्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत कर विकास के अद्वितीय माडल उपलब्ध हैं मगर सरकारें इस पर ध्यान दें तब न। एक छोटे से देश क्यूबा ने जन स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत करने के लिए सहकारिता स्वास्थ्य माडल के सहारे दुनिया में एक मिसाल कायम की और हम एक विशाल देश में इतने बड़़े मानव संसाधन के बावजूद अपने नागरिकों को बुनियादी स्वास्थ्य की सुविधा नहीं दे पा रहे यह विडम्बना ही है।

सरकार हर साल स्वास्थ्य बजट में वृद्धि करती है लेकिन गलत नीतियों के कारण इस बजट का अधिकांश हिस्सा निजी इन्श्योरेंस कम्पनियां तथा निजी अस्पताल चट कर जाते हैं और आम आदमी मजबूर होकर जीवन जीने को विवश है। चाहे बच्चों की सेहत हो या बड़ों की यदि वास्तव में लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा करनी है तो स्वास्थ्य को निजीकरण के दायरे से बाहर कर लोगों के लिए मुफ्त स्वास्थ्य सेवा को अनिवार्य करना होगा वरना ‘सबको स्वास्थ्य’ का नारा केवल जुमला ही साबित होगा, हकीकत नहीं।


लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं।


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