बात बोलेगी: पालतू गर्वानुभूतियों के बीच खड़ी हिंदी की गाय


बैठे-बिठाये जब गर्व जैसा कुछ मिलने लगता है तो इंसान कुछ करने-धरने से मुक्त हो जाता है। फिर ऐसे वातावरण में समाज और देश में कुछ अधिकतम निकृष्ट प्रवृत्तियों के मनुष्यों की पैदावार कई-कई गुना बढ़ जाती है। ज़रूरी नहीं है कि सभी को फोकट में मिली गर्वानुभूतियों का अहसास हो ही, लेकिन जिन्हें हो जाता है उन्हें लगता है कि अकेले उन्हें इस खजाने के मिल जाने से कुछ नहीं होगा। तब वे इस सस्ते गर्व को गली-गली, नुक्कड़-नुक्कड़ बांटने का काम शुरू कर देते हैं। इससे होता यह है कि लोग उन्हें स्वत: सस्ते गर्व का नेता मान लेते हैं और सस्ती भाषा में कहें तो फिर इनकी ‘निकल पड़ती है’।

यह निकलना ‘खुल्‍द से आदम’ की तरह नहीं होता, बल्कि जहां से यह ‘निकल’ पड़ती है वहां से सीधे  राजनीति की चौखट पर जा पहुँचती है। यह निकलना खुल्‍द से निकाले गए आदम की तरह नहीं बल्कि सब देख बूझकर निकले नारे या जयघोष की तरह होता है जिसे लंबे मुनाफे के लिए लंबे वक़्त तक भुनाया जाता रहता है। गली और नुक्कड़ों से निकली यह गर्वानुभूति एक नीति के तहत पूरे देश में फैलती है। हमारे देश में भाषा एक ऐसी ही ‘निकल पड़ी’ नीति है जिसका उद्देश्य अधिसंख्यकों को मुफ्त-मुफ्त योजना के तहत गर्व का अभीष्ट पैदा करवाना है।  

यह और इस जैसी कई अन्य अनुभूतियां हैं- मसलन परिवार,खानदान, जाति, क्षेत्र, नस्ल, धर्म और देश आदि। जिसे पाने के लिए आपने कुछ नहीं किया लेकिन उसके होने से अनिवार्य रूप से गर्व आपके साथ रहने लगा। आप अब भी उसके लिए कुछ कर नहीं कर रहे हैं, लेकिन उससे पैदा हुए गर्व को पाल-पोस भर रहे हैं। यानी आपने कुछ अर्जित नहीं किया है और न ही कुछ अर्जित करने की चाहत है लेकिन फिर भी जो आपकी भाषा, जाति, धर्म और क्षेत्र को किसी वजह से कुछ मिल गया है उसी की स्तुति से आप कुछ पा लेने के अहसास में  आकंठ डूबे हैं और उससे बाहर निकालना नहीं चाहते।

हिन्दी दिवस पर सितारा-ए-हिन्द राजा शिवप्रसाद की याद

हिन्दी दिवस, हर बार की तरह इस बार भी आया। और ठीक वैसे ही आया, सप्ताहों में, पखबाड़ों में, मासों में। यह दिन एक दिन का दिन नहीं होता। सप्ताह, पखवाड़े और महीने का दिन होता है। इतना बड़ा दिन देश में कोई और नहीं होता जिसकी अवधि बहुवचन में हो। दिलचस्प यह है कि ये सरकारी दिन होते हैं। सरकारें इन्हें मनाती हैं। इस तरह से देखें तो नौ दुर्गा या रमज़ान, पर्यूषण पर्व या पितृपक्ष जैसी ध्वनियां निकलती हैं। ये सब धार्मिक आयोजन हैं, लेकिन एक सरकारी आयोजन जब धार्मिक आयोजनों की तरह हो जाए तब यह सोचना स्वाभाविक हो जाता है कि क्या हिन्दी एक धार्मिक शै है जिसकी स्तुति के लिए धार्मिक आयोजनों की माफिक कई-कई दिनों की ज़रूरत है?  

आप हिन्दी बरतते हैं क्योंकि आपको आसान लगता है। आप हिन्दी पढ़ते हैं, लिखते हैं, समझते हैं तो इसलिए क्योंकि उस भाषा में आप खुद को सहज पाते हैं और इसलिए भी कि वो आपके काम की ज़रूरत है और इसलिए भी कि क्योंकि उसमें आपको काम करने को कहा गया है। तब दुनिया में ऐसी कौन सी भाषा है जो इन तीनों में परिस्थितियों में ही बरती न जाती हो?

हिन्दी के आयोजन गर्व की वह सस्ती प्रदर्शनी है जो अनिवार्य रूप से किसी के खिलाफ अभिव्यक्त होती है। देश में हिन्दी एक विशाल भूगोल की भाषा है। देश के नक्शे में इस विशाल भूगोल की शक्लो-सूरत ‘गाय’ से मिलती है। गाय एक पालतू बन चुका जानवर है जिसे हिन्दू ‘माता’ मानते हैं और हिंदुत्ववादी राजनैतिक माता। अब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उसे राष्ट्रीय ‘पशु’ मानने के लिए कह दिया है। इस लिहाज से देखें तो हिन्दू अपनी माता को राष्ट्रीय पशु मान लिए जाने के लिए उतावला है। गर्व की यह एक और सस्ती अनुभूति है।

गाय हमारी माता है- यह कहना भी उस सस्ते गर्व का विचार है जिसके लिए आपको कुछ भी करने-धरने की ज़रूरत नहीं है। एक गाय अपने जैविक माता-पिता यानी गाय और बैल के मेल से पैदा होने वाली जानवरों की एक प्रजाति है। यह प्रजाति मानव सभ्यता के विकास क्रम में बनते हुए आज के मनुष्य की नियंत्रण में सबसे पहले आ गयी। यह सीधा-सादा जानवर मनुष्य के लिए बहुपयोगी साबित हुआ। उसने दूध दिया, खेती के लिए खाद दिया, अपने बच्चे दिये जिन्होंने खेती के काम में मनुष्य का हाथ बंटाया, बोझा उठाया और बिना किसी अतिरिक्त लागत के मनुष्य के साथ रहना सीख गया।

जब मुद्रा मनुष्य जीवन के मूल में आ गयी तो यह एक चलती-फिरती मुद्रा बन गयी। मौके और वक़्त पर इसका क्रय-विक्रय किया जाने लगा। यह मनुष्य की समृद्धि का कारण भी है और उसका द्योतक भी। यानी किसी घर-बाड़े में गायों की संख्या से उस घर में रहने वालों की समृद्धि का आकलन होने लगा। गाय खुद में भी समृद्धि है। इतने सारे गुणों से भरपूर गाय कुछ न कुछ देगी ही। बहरहाल, इस गाय की शक्ल के भूगोल में जो भाषा निर्मित हुई वह भी गायों के गुणों से सम्पन्न सी दिखलायी देती है। इसे भी इस भूगोल के वासी साल भर दुहते रहते हैं। सरकार भी इसके दुहने के लिए धन का निवेश करती रहती है।

इसे दुह-दुह कर आज कितने ही लोगों के जीवन में गर्व के साथ संपन्नता भी आ गयी है। संपन्नता आने के बाद उनका जिनका अनिवार्य मकसद संपन्नता बनाए रखना ही हो जाता है वे उस स्रोत को बचाये जाने की मुहिम चलाने लगते हैं जिसके बूते उन्हें यह संपन्नता नसीब हुई। कई लोग उसी संपन्नता के कारण को बेचकर भी उसे बचाने की मुहिम चलाते रहते हैं। इससे होता ये है कि मार्केट में एक तरह की असुरक्षा का वातावरण बन जाता है कि इतनी महत्वपूर्ण चीज़ और गर्व की अनुभूति खतरे में है। फिर आप तो जानते ही हैं कि जिस चीज की कमी मार्केट में होने लगती है उसके दाम बढ्ने लगते हैं। गाय और हिन्दी को इसी रणनीति से असुरक्षित बतलाया जाता है ताकि मार्केट में उनकी निकल पड़े जिन्हें इनका जन्मजात अभिभावक माना जाता है। देश में गाय-पट्टी में गाय और हिन्दी को इसी तरह बाज़ार में खपाया जाता है। सरकार इसे कितने ही साल से संरक्षण दिये जा रही है लेकिन दोनों हैं कि खतरे में उतरने और उसमें रमे रहने की ज़िद पकड़े हुए हैं।

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बहरहाल, सरकार द्वारा धार्मिक आयोजनों की तरह दीर्घावधिक कार्यक्रमों के बाद और उसके पहले गाय और हिन्दी इस देश के अधिसंख्यक लोगों की ज़िंदगी में रचे-बसे हैं। उन्हें इन दोनों के साथ अपनी ज़िंदगी में कुछ रंग दिखलायी देते हैं। जैसे देश के दूसरे लोगों को किसी और भाषा में और दूसरे देशों में बसे लोगों को उनकी अपनी भाषा में। उन्हें भी गर्व होगा ही, लेकिन जब किसी एक बड़े भूगोल की भाषा को या बड़े भूगोल के लोगों द्वारा किसी एक जानवर के प्रति प्रकट आदर भावना को सरकार और उसके तमाम यंत्र बाजाफ़्ते उकसाने या भड़काने लगते हैं तब उसका पहला अभिप्राय तो यही होता है कि वह उस बड़े भूगोल के लोगों की भावनाओं का तुष्टीकरण कर रही है। तुष्टीकरण का प्रयोग हिंदुस्तान की राजनीति में बहुत ही सीमित अर्थों में किया जाता रहा है लेकिन यह भाषा और भाषा-भाषी भूगोल को अपने पक्ष में लेने की कोशिश के तौर भी देखा जाना चाहिए। गाय और हिन्दी इस तुष्टीकरण के सबसे बड़े और सदाबहार उदाहरण हैं।

प्राय: हिन्दी दिवस आते-आते कुछ कुंजियाँ निकल आती हैं। जैसे हिन्दी ने कई भाषाओं को खा लिया है। कई भाषाओं को पनपने नहीं दिया है। इसने रघुवीर सहाय (आज के जमाने की लगभग महिला विरोधी) की भाषा में ‘दोहाजू की बीबी बनकर बहुत खाया और बहुत सोया है’ वगैरह वगैरह, लेकिन असल मुद्दा है कि उसे बहुत खिलाया गया है ताकि उसे लंबी बेहोशी में सुलाये रखा जा सके। हिन्दी एक भाषा है तो वह उन सभी गुणों से सम्पन्न है जिनसे देश दुनिया की सारी भाषाएं हैं लेकिन उसे बरतने वाले उसके खानपान से मुग्धाए हुए हैं। कुछ नहीं तो राजभाषा अधिकारी बनकर ही- दुनिया की एकमात्र नौकरी जिसे महज एक आयोजन के लिए साल भर तनख्वाह मिलती है। अब ऐसे में बताइए वह अधिकारी सोएगा कि खाएगा कि कुछ अर्जित करेगा!

इस मामले को हिन्दी में सोचिए। हिन्दी में सोचना भी एक जटिल काम है। जटिल काम करने से भाषा हो चाहे बुद्धि हो सबका स्वाभाविक विकास होता है।



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