नग़ीब माहफूज़ की कहानी “आधा दिन”


अनुवाद: राजेंद्र सिंह नेगी

मैं अपने अब्बू के साथ चल रहा था. उनके लंबे क़दमों से क़दम मिलाने के लिए मुझे दौड़ लगानी पड़ रही थी. मैंने नए कपड़े पहने हुए थे: काले जूते, हरे रंग की यूनिफ़ार्म और सर पर लाल ताबूश. हालाँकि, नई पोशाक पहनने का यह एहसास पूरी तरह से बेदाग़ नहीं था. यह किसी दावत में शरीक होने नहीं, बल्कि दाख़िले के बाद स्कूल में मेरा पहला दिन था.

अम्मी खिड़की से हमें जाते हुए निहार रही थीं; और मैं मुड़-मुड़कर मदद की आस में उन्हें देखता हुआ आगे बढ़ रहा था. हम फुलवारियों की कतार की बग़ल वाली सड़क पर चल रहे थे, जिसके दोनों तरफ़ दूर-दूर तक फैले खेतों में फ़सलें लहलहा रहीं थी. नागफनी, हिना और चंद खजूर के पेड़ भी जहाँ-तहाँ बहती हवा में लहरा रहे थे.

“स्कूल क्यों?” मैंने अब्बू से शिकायत भरे लहज़े में कहा, “मैं ऐसा कुछ नहीं करूँगा, जिससे आपको परेशानी हो.”

“मैं तुम्हें सज़ा नहीं दे रहा हूँ,” उन्होंने हँसते हुए कहा. “स्कूल सज़ा नहीं है, बेटे. यह एक कारख़ाना है, जिसमें छोटे बच्चों को लायक़ इंसान बनाया जाता है. क्या तुम अपने अब्बू और अपने भाइयों जैसा नहीं बनना चाहते?

मुझे इत्मिनान नहीं हुआ. विश्वास नहीं हो रहा था कि इसके लिए मुझे घर के अपनापे भरे माहौल से निकालकर, सड़क के छोर पर बने किसी विशालकाय किले की कठोर और मनहूस ऊँची दीवारों के पीछे धकेलने की ज़रूरत थी.

जब हम गेट पर पहुँचे, हमें लड़के-लड़कियों से भरा प्रांगण दिखाई दिया. ‘अब यहाँ से अंदर तुम ख़ुद जाओ,” अब्बू ने कहा, “और बच्चों से घुलो मिलो. अपने चेहरे पर मुस्कान बनाए रखना और दूसरों के लिए मिसाल क़ायम करना.”

मैं झिझका और मैंने उनके हाथ पर अपनी पकड़ और मज़बूत कर ली, लेकिन उन्होंने मुझे लाड़ से आगे धकेल दिया. “आदमी बनना,” उन्होंने कहा. “आज से तुम अपनी ज़िन्दगी की शुरुआत करने जा रहे हो. जब स्कूल की छुट्टी का समय होगा, तुम मुझे यहीं पर अपना इंतेज़ार करते पाओगे.”

मैंने कुछ क़दम आगे बढ़ाए, फिर ठिठका और देखा, लेकिन मुझे कुछ दिखाई नहीं पड़ा. फिर कुछ लड़के-लड़कियों के चेहरे, नज़र के सामने आए. उनमें से मैं किसी को नहीं जानता था; और ना कोई मुझे. मुझे लगा जैसे मैं वहाँ कोई अजनबी हूँ, जो अपना रास्ता भटक गया है. तभी कुछ कौतुहल से भरी निगाहें मुझ पर उठीं. एक लड़का मेरी जानिब बढ़ा और उसने पूछा, “तुम्हें यहाँ कौन लेकर आया?“

“मेरे अब्बू,” मैंने बुदबुदाते हुए कहा.

“मेरे अब्बू नहीं हैं,” उसने अत्यंत सरलता से कहा.

मुझसे कुछ कहते ना बन पड़ा. गेट कर्कश आवाज़ करता हुआ बंद हो चुका था. कुछ बच्चे रुआंसे हो गए थे. तभी घंटी बजी. एक खातून नमूँदार हुई और उसके पीछे-पीछे कुछ मर्द. मर्दों ने हमें चुन-चुन के एक क़तार में खड़ा करना शुरू कर दिया. कई मंज़िला ऊँची इमारतों से तीन तरफ़ा घिरे विशाल प्रांगण में हमें एक पेचीदा से पैटर्न में खड़ा कर दिया गया. इमारत के हर माले पर बनी काठ की छत से ढकी बालकनियाँ हमारे ऊपर थीं.

“यह आपका का नया घर है,” खातून ने कहा. “यहाँ भी अम्मी और अब्बू हैं. यहाँ इल्मो-मज़हब में इज़ाफ़ा करने और मौज-मस्ती की हर चीज़ मौजूद है. इसलिए अपने आँसुओं को पोंछ डालो और ज़िंदगी का बा-ख़ुशी इस्तकबाल करो.”

हमने सच्चाई के आगे सर झुका लिया और इस आत्मसमर्पण ने हमारे अंदर संतुष्टि जैसा भाव पैदा कर दिया. जीते-जागते इंसान, दूसरे इंसानो की तरफ़ आकर्षित होते ही हैं; और पहले ही पल से, मेरे दिल ने ऐसे लड़कों को अपना दोस्त मान लिया, जो मेरे मन माफ़िक़ थे; और ऐसी लड़कियों को दिल दे बैठा, जो मन-लुभावन थीं. उन पलों में मुझे लगा मेरे शक-शुबाह कत्तई बेवजह थे. इसका मुझे तसव्वुर में भी पास नहीं था कि स्कूल में इतनी विविधता मिलेगी. हम अलग-अलग क़िस्म के खेल खेलते: झूले, छलाँगे लगाने वाले घोड़े, बॉल गेम. संगीत की कक्षा में हमने अपने पहले तराने गए. भाषा से भी हमारी वाबस्तगी हुई. हमने पृथ्वी का ग्लोब भी देखा. घूमते हुए इस ग्लोब में महाद्वीप और देश सामने आते रहते. संख्याओं का इल्म भी हुआ. हमें इस कायनात के रचियेता की कहानी सुनाई गई; उसकी ‘इस’ कायनात और ‘उस’ कायनात के बारे में बताया गया; और दुनिया बनाने वाले उस परवरदिगार के पैग़ाम की मिसालें दी गईं. हमने लज़ीज़ खाना खाया. थोड़ी देर के लिए सुस्ताने के बाद उठने पर, हम फिर अपने दोस्तों, प्यार, खेलों और सीखने-सिखाने के काम में जुट गये.

हालाँकि, जैसे-जैसे जीवन की राह खुलती गई, हमें पता चला कि रास्ते में फूलों की सेज ही नहीं, बल्कि काँटे भी बिछे हैं. धूल भरे अंधड़ और हादसे भी अचानक से सामने आते रहे. इसलिए, हमें चौकस बने रहने और धैर्य बनाए रखने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया गया. यह कोई खेल-तमाशा नहीं था. प्रतिद्वंद्विताएँ, दर्द और नफ़रत पैदा कर सकती थीं, या, लड़ाई का सबब बन सकती थीं. और जबकि, वैसे तो खातून कभी-कभी मुस्कुरा भी देती थी, लेकिन आमूमन अपनी त्यौरियाँ चढ़ाए रहती और डाँटने-डपटने के उपक्रम में व्यस्त रहती और अक्सर मार-पिटाई करने पर उतारू हो जाती.

इसके अलावा, वैसे भी अब मन बदलने का वक़्त गुज़र चुका था और घर की जन्नत में वापिस लौटने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था. हमारे सामने परिश्रम, संघर्ष और धीरज रखने के सिवाय कुछ और बचा भी नहीं था. हममें से जो क़ाबिल थे उन्होंने दुशवारियों के बीच मिलने वाले कामयाबी और ख़ुशियों के मौक़ों को लपक लिया.

काम ख़त्म होने और स्कूल की छुट्टी के समय की घोषणा के रूप में घंटी बजी. बच्चों का हुजूम गेट के तरफ़ दौड़ा, जो एक बार फिर से खुल चुका था. मैंने दोस्तों और प्रेमिकाओं को अलविदा कहा और गेट से बाहर निकल आया. मैंने इधर-उधर झाँका, लेकिन अब्बू का कहीं कोई नामो-निशान नहीं था, जबकि उन्होंने मुझसे वहाँ इंतज़ार करने का वादा किया था. मैं रास्ते से अलग हटकर उनकी राह देखने लगा. जब मुझे बाट जोहते जोहते काफ़ी वक़्फ़ा गुज़र गया तो मैंने ख़ुद ही घर लौटने का फ़ैसला किया. अभी मैंने कुछ ही क़दम लिए होंगे कि एक अधेड़ उम्र का आदमी मेरी बग़ल से गुज़रा और उस पर नज़र पड़ते ही मुझे लगा मैं उसे जानता हूँ. वो मेरी तरफ़ मुस्कुराते हुए आगे बढ़ा और अपने हाथों से मुझे झकझोरते हुए कहने लगा, “कितने अरसे बाद मिल रहे हो — ख़ैरियत से तो हो?”

मैंने उससे इत्तेफ़ाक जताते हुए सर हिलाया और उसका सवाल उसी पर दाग़ दिया, “और आप, आप ख़ैरियत से हैं?”

‘जैसा कि देख ही रहे हो…हालात उतने भी अच्छे नहीं…अल्लाह रहम करे!”

उसने मुझे एक बार फिर झकझोरा और चलता बना. मैं कुछ और आगे बढ़ा और एक जगह पर आकर भौंचक्का रह गया. खुदाया! वो फुलवारियों वाली सड़क कहाँ थी? कहाँ ग़ायब हो गई? इतनी सारी मोटर गाड़ियाँ कहाँ से आई? और इतने लोगों का हुजूम किधर से उमड़ पड़ा? सड़क के किनारे, कूड़े के पहाड़ कैसे बन गए? और वे खेत कहाँ गए, जो इसके किनारों पर हुआ करते थे? गगनचुंबी इमारतों ने सारी जगह घेर ली थी, बच्चों से गलियारे पटे पड़े थे, पूरी फ़िज़ा में चिल्लमपों मची थी. नुक्कड़ों पर ऐय्यार अपने हाथ की सफ़ाई का मुज़ाहिरा कर रहे थे और टोकरियों से साँप निकालकर दिखा रहे थे. कोई बैंड अपने आगे-आगे मसखरों और वेट लिफ़्टरों की टोली लेकर, शहर में सर्कस के आने का एलान कर रहा था. सैन्यबलों से लदे ट्रकों का एक क़ाफ़िला सड़क पर शान से रेंगता हुआ चल रहा था. फ़ायर ब्रिगेड का सायरन बजने लगा और यह समझ नहीं आ रहा था कि इतनी भीड़ को चीरता हुआ वो कैसे आग वाले हादसे की जगह तक पहुँच पाएगा. एक टैक्सी ड्राइवर और सवारी के बीच झगड़ा शुरू हो गया. सवारी की बीवी ने मदद की गुहार लगाई, जिसे भीड़ ने अनसुना कर दिया. मैं सदमे में था. मेरा सर चकराने लगा. मैं पागल होने के कगार पर आ गया था. आधे दिन में इतना सब कुछ भला कैसे घट गया— सूरज उगने से लेकर सूरज ढलने के बीच?

इसका जवाब अब मुझे घर पहुँचने पर अब्बू से ही मिल सकता था. लेकिन मेरा घर था कहाँ? मुझे सिर्फ़ ऊँची-ऊँची इमारतें और लोगों के झुंड ही दिखाई पड़ रहे थे. मैं जल्दी-जल्दी बगीचों और अबू खोडा के बीच के चौराहे पर आ गया. मुझे अपने घर पहुँचने के लिए अबू खोडा को पार करना था, लेकिन कारों का ताँता मुसलसल लगा हुआ था. घोंघे की चाल से चलती फ़ायर ब्रिगेड की गाड़ी का सायरन ज़ोर-ज़ोर से बज रहा था और ऐसे में मैंने ख़ुद से कहा, “आग ने जो निगलना है, उसे वो निगल लेने दो.” बेतरह चिढ़ा हुआ मैं ताज्जुब कर रहा था कि कब पार लगूँगा. मैं वहाँ देर तक खड़ा रहा. तभी नुक्कड़ वाली इस्त्री की दुकान पर काम करने वाला एक नौजवान मेरे क़रीब आया. उसने अपनी बाँह मेरी तरफ़ बढ़ाते हुए कहा, “दद्दू, आइए मैं आपको उस पार ले चलता हूँ.”


लेखक परिचय

कायरो, मिस्र में 1911 में जन्मे नग़ीब माहफूज़ ने 17 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था. उनका पहला नाविल 1939 में शाया हुआ और 1952 में मिस्र की क्रांति से पहले उनकी लिखी दस और किताबें शाया हो चुकी थीं. 1957 में कायरो ट्रीलोजी — बेन-अल-कसरीन, क़स्र-अल-शौक़ और सुक्कारिया — ने उन्हें पूरे अरब संसार में पारंपरिक शहरी जीवन के अफ़सानागार के रूप में मशहूर कर दिया. अपने लंबे लेखकीय जीवन में उन्होंने 34 नाविल, 350 से अधिक कहानियाँ, दर्जनों पटकथाएँ, लगभग पाँच नाटक और देश-विदेश से निकलने वाले रिसालों में सैकड़ों लेख लिखे. 1988 में उन्हें साहित्य में अपने योगदान के लिए नोबेल प्राइज़ से नवाज़ा गया. वर्ष 2006 में 94 वर्ष की उम्र में उनका इंतक़ाल हो गया.


About जनपथ

जनपथ हिंदी जगत के शुरुआती ब्लॉगों में है जिसे 2006 में शुरू किया गया था। शुरुआत में निजी ब्लॉग के रूप में इसकी शक्ल थी, जिसे बाद में चुनिंदा लेखों, ख़बरों, संस्मरणों और साक्षात्कारों तक विस्तृत किया गया। अपने दस साल इस ब्लॉग ने 2016 में पूरे किए, लेकिन संयोग से कुछ तकनीकी दिक्कत के चलते इसके डोमेन का नवीनीकरण नहीं हो सका। जनपथ को मौजूदा पता दोबारा 2019 में मिला, जिसके बाद कुछ समानधर्मा लेखकों और पत्रकारों के सुझाव से इसे एक वेबसाइट में तब्दील करने की दिशा में प्रयास किया गया। इसके पीछे सोच वही रही जो बरसों पहले ब्लॉग शुरू करते वक्त थी, कि स्वतंत्र रूप से लिखने वालों के लिए अखबारों में स्पेस कम हो रही है। ऐसी सूरत में जनपथ की कोशिश है कि वैचारिक टिप्पणियों, संस्मरणों, विश्लेषणों, अनूदित लेखों और साक्षात्कारों के माध्यम से एक दबावमुक्त सामुदायिक मंच का निर्माण किया जाए जहां किसी के छपने पर, कुछ भी छपने पर, पाबंदी न हो। शर्त बस एक हैः जो भी छपे, वह जन-हित में हो। व्यापक जन-सरोकारों से प्रेरित हो। व्यावसायिक लालसा से मुक्त हो क्योंकि जनपथ विशुद्ध अव्यावसायिक मंच है और कहीं किसी भी रूप में किसी संस्थान के तौर पर पंजीकृत नहीं है।

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5 Comments on “नग़ीब माहफूज़ की कहानी “आधा दिन””

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