सुकमा-2011 हमले में सीबीआइ की चार्जशीट दायर, शांतिवार्ता के लिए कोर्ट ने दिया कोलंबिया का उदाहरण



प्रेस विज्ञप्ति, 21अक्टूबर 2016




11 मार्च और 16 मार्च 2011 के बीच सुकमा के अतिरिक्त एसपी डीएस मरावी के नेतृत्व में एक पुलिस दल ने मोरपल्ली, टाडमेटला और तिमापुरम गांवों में ‘‘एसएसपी दांतेवाड़ा के आदेश के अनुसार’’ (डीएस मरावी द्वारा दर्ज प्राथमिकी 4/2011) छापेमारी अभियान (काम्बिंग आपरेशन) चलाया। इस पुलिस दल में पुलिस, एसपीओ और सीआरपीएफ के जवाल शामिल थे। गौरतलब है कि उस समय दांतेवाडा़ के एसएसपी एस.आर.पी. कल्लूरी थे।

इस पूरे अभियान में तीन आदमी मारे गए- भांडा मोरापाली के माडवी सुला, पुलनपाड के बडसे भीमा और पुलनपाड के ही मनु यादव। तीन महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया  इनमें से दो मोरपल्ली की थीं और एक टाडमेटला की। मोरपल्ली में 33 घर, तिमापुरम में 59 और टाडमेटला में 160घरों को जला दिया गया। जब स्वामी अग्निवेश ने 26 मार्च को इन गांवों में राहत सामग्री पहुंचाने का प्रयास किया, तो दोरनापाल में उन पर तथा उनके सहयोगियों पर सलवा जुडूम द्वारा क्रूर हमला किया गया।
5 जुलाई 2011 को सर्वोच्च न्यायालय ने इन घटनाओं की जांच सीबीआइ से कराने का आदेश दिया। 17 अक्टूबर 2016 को सीबीआइ ने रायपुर की विशेष सीबीआइ अदालत में उन 7 एसपीओ के खिलाफ आरोप-पत्र दायर किया, जो गैंग के नेता थे। इसके अलावा, 26 अन्य लोगों पर भी आरोप तय किए गए जिसमें स्वामी अग्निवेश पर हमला करने वाले पी. विजय, दुलार शाह, सोयम मूका जैसे सलवा जुडूम के प्रमुख सदस्य शामिल हैं। बलात्कार और हत्या के आरोपों की अभी भी जांच हो रही है।
सीबीआइ की जांच ने पुलिस के इस झूठ का पूरी तरह से पर्दाफाश कर दिया है कि घर नक्सलियों द्वारा जलाए गए थे, बल्कि इससे यह पता चलता है कि एसपीओ/पुलिस/सीआरपीएफ द्वारा ये गैर-कानूनी गतिविधियां की गई थीं। सीबीआइ की रिपोर्ट में यह दर्ज किया गया है कि इस अभियान में 323 एसपीओ/पुलिसकर्मियों के साथ-साथ कोबरा के 114 और सीआरपीएफ के 30जवान भी शामिल हुए थे।
इससे यह भी पता चलता है कि छत्तीसगढ़ पुलिस ने हत्या और बलात्कार के मामलों को दबाया। मीडिया द्वारा इस हमले का पर्दाफाश करने के बाद डीएस मरावी द्वारा दायर प्राथमिकी में बलात्कारों और हत्याओं का कोई जिक्र नहीं था। एसआरपी कल्लूरी और छत्तीसगढ़ सरकार ने इस संबंध में मीडिया की खबरों को प्रोपेगेंडा करार देते हुए खारिज कर दिया।
यह भी गौरतलब है कि जांच के दौरान सीबीआइ पर लगातार हमले हुए और अधिकारियों को धमकाया गया। छत्तीसगढ़ पुलिस के निम्नलिखित कांस्‍टेबल (पूर्व एसपीओ) पर, जिनकी पहचान गांव वालों द्वारा की गई, आईपीसी की धारा 34, 326 और 436 के तहत आरोप तय किया गया है:
1. सुरपागुडा के वनजाम देवा
2. लकापाल के तेलम कोसा
3. जोनागुडा के मडकाम भीमा
4. लकापाल के तेलम नंदा
5. कोरापाड के किचे  नंदा  (अब हेड  कांस्टेबल)
6. पेडाबोडकेल के बरसे रामलाल (आक्जिलरी कांस्टेबल)
7. मिलेमपल्ली के सोडी दशरू (गोपनीय सैनिक)
इन प्रमुख एसपीओ को हिंसा के लिए जिम्मेदार मानने का तथ्य यह दिखाता है कि छत्तीसगढ़ राज्य सरकार द्वारा एसपीओ पर प्रतिबंध लगाने की तारीख (5 जुलाई 2011) से ही सभी एसपीओ को सशस्त्र सहायक बल (आर्म्‍ड आक्सिलरी फोर्स) में बदलने का फैसला पूरी तरह ये गलत था। न्यायालय द्वारा राज्य को यह निर्देश दिया गया था कि मानव अधिकारों के उल्लंघन के दोषी हर व्यक्ति को हटाया जाए और उस पर मुकदमा चलाया जाए। राज्य ने न्यायालय के प्रति अपने दायित्वों का पूरी तरह से उल्लंघन किया।
निम्नलिखित व्यक्तियों को, जिनमें से कई सलवा जुडूम के प्रमुख नेता रहे हैं (ये अब सामाजिक एकता मंच और अग्नि जैसे नए निगरानी संगठनों के सदस्य हैं), आईपीसी की धारा 34, 147, 149, 323, 341, 427 और 440 के तहत आरोपित किया गया है:
1. दुलाल शाह
2. विजय सिंह चौहान
3. बलवंत सिंह चौहान
4. पी. विजय नायडू
5. सोडी जोगा
6. कवासी कोसा
7. मुकेश कुमार पोडीयामी
8. रिंकू प्रसाद गुप्ता
9. करतम मोया
10. वी. लक्ष्मी नारायण
11. संजय शुक्ला
12. वली मोहम्मद
13. मिडियाम गंगा
14. मुचाकी लिंगा
15. राजेन्द्र वर्मा
16. शेख नइमुल्लाह
17. छन्नू कोरसा
18. बोडू राजा
19. सोयम भीमा
20. बलिराम नायक
21. पुनेम हुर्रा
22. मोहम्मद रफीउल्लाह खान
23. सोयम मुका
24. मोहम्मद शामी
25. सुनाम पेंटा
26. सेलवम राजाराव
21 अक्टूबर 2016 को यह मामला न्यायमूर्ति मदन लोकुर और न्यायमूर्ति एके गोयल की खण्डपीठ में सूचीबद्ध था। न्यायाधीशों ने सीबीआइ को यह निर्देश दिया कि वह कागजात की प्रति याचिकाकर्ताओं को भी उपलब्ध कराए, जिनका प्रतिनिधित्‍व वरिष्ठ अधिवक्‍ता अशोक देसाई कर रहे थे। उन्होंने याचिकाकर्ताओं को आरसी 8 और आरसी 9 में एक विरोध याचिका दायर करने की भी अनुमति दी, जिन्हें बंद कर दिया गया है (मोरपल्ली से संबंधित)। न्यायाधीशों ने यह भी कहा कि बलात्कार और हत्या के मामलों में, जहां पीड़ित दोषियों की पहचान नहीं कर पाएं, वहां उन्हें 357ए के तहत मुआवजा दिया जाना चाहिए, जिसके लिए एक कोष उपलब्ध है।
सम्मानित न्यायाधीशों ने शांति वार्ता का प्रश्न भी उठाया और इस संदर्भ में उन्होंने कोलाम्बियाई सरकार द्वारा एफएआरसी (फार्क) से युद्ध खत्म करने के संदर्भ में इस साल दिए गए नोबेल शांति पुरस्कार के साथ ही साथ नगालैंड व मिजोरम के मामलों में हुई प्रगति का भी उल्लेख किया। याचिकाकर्ताओं की ओर से श्री अशोक देसाई तथा सॉलिसिटर जनरल श्री रंजीत कुमार और एएसजी श्री तुषार मेहता ने इस बात पर सहमति जताई कि इस तरह की शांति वार्ता से मामले का हल होना चाहिए। एएसजी ने न्यायालय को यह आश्वासन दिया कि सरकार इस मसले पर गंभीरता से विचार कर रही है और उन्होंने यह भी वादा किया कि वे सर्वोच्च स्तर तक इस मसले को उठाएंगे। सरकारी वकील ने इस बात से सहमति जताई कि पुलिस कार्रवाई सिर्फ तात्कालिक कदम है तथा दीर्घकालिक हल खोजे जाने की आवश्यकता है।
स्वामी अग्निवेश 
नंदिनी सुंदर

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