शूद्र, बहुजन, दलित: OBC की सही पहचान के लिए एक सही शब्द की तलाश पर बहस


फॉरवर्ड प्रेस पत्रिका ने पिछड़े वर्गों के लिए पहचान के एक नये शब्‍द की जरूरत को रेखांकित करते हुए एक विमर्श शुरू किया है जहां दलित, शूद्र और बहुजन के अनुप्रयोग पर विद्वान अपने-अपने मत रख रहे हैं। इस विमर्श की शुरुआत ख्‍यात विचारक कांचा इलैया शेफर्ड के लेख से हुई जिन्‍होंने ओबीसी और गैर-ओबीसी पिछड़ों को खुद को शूद्र मानने की वकालत की। उसके जवाब में चिंतक और साहित्‍यकार कंवल भारती ने शूद्र के बजाय बहुजन शब्‍द की पैरवी की है। इस बहस को आगे बढ़ाते हुए सामाजिक कार्यकर्ता नन्‍हे लाल ने एक टिप्‍पणी जनपथ को भेजी है जिसे नीचे प्रकाशित किया जा रहा है।   

संपादक

यदि हम वर्ण-जाति व्यवस्था को नहीं समझते हैं तो भारतीय समाज की समझ अधूरी है। वर्ण-जाति व्यवस्था ही भारतीय समाज की विशिष्टता है जो दुनिया के अन्य प्राचीन और आधुनिक समाजों से इसे अलग करती है। अपना आज का आधुनिक समाज दुनिया के अन्य समाजों की तुलना में प्राचीनता का अंश कुछ ज़्यादा ही समेटे हुए है। वर्ण व्यवस्था आधुनिक वर्गीय समाज से भी प्राचीन है। वर्ण व्यवस्था के चारों वर्णों- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में से चौथे वर्ण शूद्र का ज़िक्र न किया जाए तो अपने समाज के बनावट और बुनावट को समझना नामुमकिन होगा। इस मामले में शूद्र वर्ण भारतीय समाज का केंद्रीय चरित्र है। शूद्र वर्ण के अस्तित्व में आने की प्रक्रिया ही वर्ण व्यवस्था के आर्थिक-सामाजिक ढाँचे पर रोशनी डालती है।

‘शूद्र’ शब्द जो अपनी प्राचीनता की विशिष्टता को लिए हुए है, प्रोफेसर कांचा इलैया शेफर्ड ने इस शब्द को विमर्श के केंद्र में लाने के लिए फॉरवर्ड प्रेस में खुद को शूद्र मानें ओबीसी और गैर-ओबीसी पिछड़े शीर्षक से एक लेख लिखा है। भारतीय समाज के उत्पादक वर्ग के बहुलांश का प्रतिनिधित्व करने वाले शूद्रों के पौराणिक और ऐतिहासिक महत्ता को देखते हुए उन्होंने “The Shudra: Vision for a New Path” नाम से एक किताब भी लिखी है। उनका कहना है कि शूद्र जो ऐतिहासिक रूप से वर्ण व्यवस्था में मुख्य रूप से उत्पादक वर्ग रहा है, सम्पति संसाधनों पर उसे अपनी दावेदारी दर्ज करानी चाहिए। ऐतिहासिक संदर्भों को देखते हुए यह तर्क ठीक भी है, लेकिन हम वर्ण व्यवस्था के उसी ऐतिहासिक कालखंड में नहीं हैं जब वर्ण व्यवस्था हू-ब-हू वैसे ही अस्तित्व में है जैसा कि पौराणिक ग्रंथों में दर्ज है। अब सारे वर्णों में आर्थिक असमानता बढ़ी है और सभी वर्णों का कुछ हिस्सा गरीब हुआ है तो कुछ अमीरों की जमात में शामिल हो गए हैं। इसके बावजूद सम्पति संसाधनों पर अब भी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण का ही वर्चस्व कायम है।

पौराणिक और ऐतिहासिक संदर्भों पर नजर डालें तो भारतीय इतिहास का एक कालखंड ऐसा भी था जब द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) बनाम शूद्र का संघर्ष बनता था, जब तक जाति व्यवस्था अस्तित्व में नहीं आई थीl हम सभी जानते हैं कि वर्ण व्यवस्था में शूद्र वर्ण सामाजिक अधिकारों के साथ सम्पति रखने के अधिकार से भी वंचित था, लेकिन समाज का बहुलांश उत्पादक वर्ग इस दयनीय हालत में कैसे पहुंचा? वे कौन सी भौतिक परिस्थितियां (सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक) थीं जिन्‍होंने शूद्र वर्ण को दयनीय स्थिति में पहुँचाया? मात्र डंडे और ईश्वर का भय दिखाकर बड़ी आबादी को सामाजिक और सम्पति रखने के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है जबकि उस समय राज्य मशीनरी का अस्तित्व भी नहीं था।

जातियों के अस्तित्व में आने के स्रोत वर्ण व्यवस्था में मौजूद थे क्योंकि वर्ण व्यवस्था आर्य और शूद्र दो जनजातियों के बीच ही पहले-पहल अस्तित्व में आयी। शूद्र एक जनजाति भी हो सकती है इसकी सम्भावना इतिहासकार रामशरण शर्मा अपनी किताब ‘शूद्रों का प्राचीन इतिहास’ में व्यक्त करते हैं। वर्ण व्यवस्था में जनजातीय मूल्य-मान्यताओं के बने रहने का पर्याप्त स्पेस था। जनजातीय मूल्य-मान्यताओं ने ही आगे चलकर जातियों के पनपने की जमीन तैयार की। इस सन्दर्भ में देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय की किताब ‘लोकायत’ मददगार हो सकती है।

दरअसल, दक्षिण एशिया में वर्ण व्यवस्था और यूरोप में दास प्रथा जनजातीय समाज से वर्ग समाज में संक्रमण की परिघटना है। दक्षिण एशिया में जब आर्य और शूद्र आपस में टकराते हैं तो दोनों जनजाति से वर्ग समाज में संक्रमण के दौर में होते हैं। इसमें तो कोई विवाद नहीं है कि आर्य जनजाति में पुरोहित(ब्राह्मण), सैनिक(क्षत्रिय) और विस्(वैश्य) के रूप में श्रम विभाजन मौजूद था। ऐसा ही श्रम विभाजन शूद्र जनजाति में भी मौजूद था। इस तथ्य का जिक्र इरावती कर्वे अपनी किताब Hindu Society: An Interpretation में करती हैं। डी. डी. कोसंबी भी शूद्र जनजाति में उपरोक्त श्रम विभाजन की बात करते हैं। जनजाति से वर्ग समाज में संक्रमण से गुजरती दो जनजाति से मिलकर यदि कोई भी नया समाज बनेगा तो समानार्थी वर्गों में विलय ही होगा। आपसी भिड़ंत में चाहे दोनों में से कोई भी जीते।

वैदिक ग्रंथों में दर्ज गौतम, कश्यप और वशिष्ठ ऋषि का नाम जैन ग्रंथों में भी पाया जाता है जबकि जैन और बौद्ध परम्परा की धारा वर्ण व्यवस्था से बिल्कुल अलग है। जाहिर है वर्ण व्यवस्था के अस्तित्व में आने से पहले महावीर जैन और गौतम बुद्ध के आदि पूर्वजों का रिश्ता शूद्र जनजाति से रहा होगा। दो जनजातियों के बीच वर्गों के आपसी विलय से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण में आर्य और शूद्र दोनों शामिल हैं लेकिन शूद्र वर्ण व्यवस्था के शासक वर्गों में शूरू से ही अल्पमत में हैं। शासक वर्गों में प्रतिनिधित्व का सवाल उसी दौर से बना हुआ है। जाहिर है शूद्र शब्द मेहनतकश वर्गों या मेहनतकश जातियों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है।

प्रोफेसर कांचा इलैया शूद्र वर्ण की आज के हकीकत को देखते हुए यह भी सुझाव देते हैं कि शूद्र वर्ण के ऐतिहासिक संदर्भों को देखते हुए उत्पादक वर्गों की एकजुटता के लिए कोई नया शब्द भी हो सकता है जो श्रम में लगी हुई बड़ी आबादी को समेट सके, जैसे ‘दलित’ शब्द, जो वर्ण-जाति व्यवस्था से दमित-उत्पीड़ित सभी जातियों को एक बड़ी छतरी मुहैया कराता है।

मेहनतकश जातियों के प्रतिनिधित्व के लिए दूसरा शब्द बहुजन है जिसका जिक्र कँवल भारती जी करते हैं। कँवल भारती सर कहते हैं कि बहुजन शब्द शूद्र के तुलना में ज्यादा व्यापक है और सभी उत्पीड़ित जातियों का प्रतिनिधित्व करता है। यह सच भी है। बहुजन शब्द उतना ही प्राचीनता को समेटे हुए है जितना गौतम बुद्ध, लेकिन यह शब्द भी केवल जातिगत उत्पीड़न को ही समेटता है जबकि भारत में उत्पीड़न आर्थिक और जातिगत दोनों स्तरों पर है। जातिगत उत्पीड़न के साथ आर्थिक उत्पीड़न कई गुना बढ़ जाता है जिसकी जमीन वर्ण व्यवस्था स्थापित होने के साथ बन गई थी। ऐतिहासिक तथ्य तो यह है कि प्राचीन काल में वैश्य वर्ण की भी कुछ आबादी शूद्रों की स्थिति पहुँच तक गई थी। ऐसे में क्या एक नया शब्द नहीं तलाशा जाना चाहिए जो पूरे भारतीय समाज को विपरीत हितों वाले दो खेमों में खड़ा करे जो जाति के साथ वर्गीय उत्पीड़न का भी प्रतिनिधित्व करे?

भारतीय समाज में बड़ी आबादी का उत्पीड़न और उसके प्रतिरोध की वाजिब चिंता के दरम्यान प्रोफेसर कांचा इलैया शेफर्ड मार्क्सवादी चिंतकों और पार्टियों की ‘चिंतन की दरिद्रता’ पर भी क्षोभ जाहिर करते हैं। वाकई यह कैसे संभव है कि जो भारतीय समाज की बनावट-बुनावट की विशिष्टता है उसे दरकिनार कर हम अपने समाज को समझ लेंगे। मार्क्सवादी विज्ञान कतई ऐसा शिक्षा नहीं देता है- “ठोस परिस्थितियों का ठोस मूल्यांकन” अपने इतिहास और समाज से किनाराकशी करने की शिक्षा नहीं देता है बल्कि समाज की गतिकी के नियमों के सहारे इतिहास और वर्तमान को समझना और भी आसान बना देता है। हमारे भारतीय समाज में केवल आर्थिक उत्पीड़न ही नहीं होता बल्कि जातिगत उत्पीड़न के साथ शोषण कई गुना बढ़ जाता है। यही सवाल बाबा साहेब अम्बेडकर को भी जीवनपर्यंत परेशान करते रहे। उन्होंने अपने समय के सवालों से जूझते हुए भविष्य के संघर्षों के लिए जो बात कही है वह आज भी उतनी ही प्रासंगिक है।

अपनी किताब ‘जाति का विनाश’ में वे कहते हैं कि उत्पादक वर्गों को भविष्य में दोहरी लड़ाई लड़नी होगी- ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद के खिलाफ और दोनों एक ही साथ। यह सच है कि प्राचीन काल के जिस कालखंड में वर्ण व्यवस्था स्थापित हुई उसी दौर से भारतीय समाज ब्राह्मणवादी वर्ग समाज है, जिसे नेस्‍तनाबूत किए बिना उत्पादक वर्गों की गरिमा और बेहतर जीवन संभव नहीं है।


लेखक दिल्ली स्थित सामाजिक कार्यकर्ता हैं


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