दक्षिणावर्त: शायद तुम्हारी उपस्थिति है वाहियात तुम्हारी अनुपस्थिति से…


मित्र चंद्रप्रकाश दवे की स्मृति को समर्पित

वह शराबी था। मुंबई में जिस रोज़ तूफान आकर गुज़र गया, वह शराब की तलाश में निकला। महामारी की वजह से सरकारों ने दुकानों को बंद कर रखा था, लेकिन शराब तो मुहैया हो ही जाती थी। वैसे ही, शराब पर सैकड़ों शेर थोड़े न कहे गये, वैसे ही वाइज़ को चुनौती थोड़े न दी गयी कि वह अपने खुदा को कहे मस्जिद हिलाने को, वरना दो घूंट लगाये और मस्जिद को हिलता देखे।

वह मरीन ड्राइव चला गया जहां गुजरे हुए तूफान के निशां नुमायां थे। वह शराबी कवि भी था, जैसे अमूमन कवि ज़रूरी तौर पर शराबी होते ही हैं। उसने एक पत्थर चुना, अपने बैठने के लिए। उस पत्थर की बगल वाले पत्थर पर एक और आदमी बैठा था। कवि ने मुस्कुरा कर उसकी ओर देखा और हाथ हिलाया। बोला, ‘मैं कवि हूं’।

‘मैं पागल हूं’- दूसरे ने कहा।

‘अहा, तब तो खूब गुज़रेगी मेरी और तुम्हारी। शराब पियोगे तो इधर आ जाओ’- कवि ने लालच दिया।

‘हा हा, मुझे शराब की ज़रूरत नहीं। तुम शराब पी कर जिस अवस्था में आते हो, वह परमानंद तो मेरा स्थायी स्वभाव है’- पागल ने कहा।

अफसोस शराब पी रहा हूं तन्हा, गलतां-ब-सुबू तमाम ख़ून-ए-फन-हा … आ जाओ, यहां। पीना नहीं, तो बातें करना। ये थोड़ा सा चखना भी है। खाना चाहो, तो खा लो।’

‘तुमको पता है, कल यूपी में सीएम का सोशल मीडिया हैंडल करने वाले से उसकी लाइफ हैंडल नहीं हुई। उसने खुदकुशी कर ली। बाकायदा नोट छोड़कर, अपने दो सीनियर्स का नाम लिखकर’- पागल ने पास बैठते हुए कहा।

‘देखो। नेताओं के साथ काम करने के लिए या तो आप गिद्ध बनें या गैंडा। अगर आप में तनिक भी इंसानियत का रेशा बचा हुआ है, तो आप उनके साथ कैसे काम करेंगे। वहां काम का प्रेशर तो होता ही है, हालांकि आत्महत्या कर ली तो शायद हत्या करने से बच गया वरना क्या पता किसी की हत्या ही कर बैठता’- शराबी ने कहा।


थोड़ी देर की चुप्पी के बाद शराबी ने पागल से कहा, ‘मेरे एक बिरादर हुए हैं, पुर्तगाल में। फर्नांडो पेस्सोआ। उन्होंने ज़िंदगी और आत्महत्या पर एक कविता लिखी है। सुनोगे’?

पागल की सहमति का इंतजार किये बिना ही शराबी ने कविता सुनानी शुरू कर दी :

चाहते हो खुदकुशी, तो क्या है गुरेज़ आत्महत्या से?
है तुम्हारा मौका। मैं, जो करता हूं भरसक जीवन-मृत्यु से अथाह प्रेम
मार डालूं शायद खुद को भी, यदि कर सकूं साहस यह…
हो तुम साहसी, तो बनो दुस्साहसी
क्या रखा है तुम्हारे लिए बदलती छवियों में,
जिसे हम कहते हैं दुनिया?
क्या है रखा, उस अंतहीन तमाशे में
तयशुदा भूमिकाओं के साथ जहां मौजूद हैं अभिनेता,
यह रंगबिरंगा सर्कस किस काम का,
जहां बस है अनंत चाह- द शो मस्ट गो ऑन- की।
कहां है तुम्हारी अंतरात्मा, जिसे तुम जानते ही नहीं
मार डालो खुद को, और शायद पा जाओ उसे,
खत्म करो यह फानी दुनिया
और शायद कर सको शुरुआत,
हो अगर थकान अपने अस्तित्व से,
ओढ़ो तो उसे कम से कम भद्रता से,
मत गाओ जीवन के संगीत,
क्योंकि तुम हो एक मयनोश।
मेरी तरह, साहित्य के जरिये न करो मौत को सलाम।

Fernando Pessoa (Álvaro de Campos), Lisbon Revisited

‘रुको, रुको। ये कविता तो मौत को बढ़ावा देती है। पुलिस कहीं तुम्हारे साथ मुझे भी गिरफ्तार न कर ले। तुम्हारा क्या, तुम तो शराबी हो। मैं तो पागल हूं, मेरी कुछ जिम्मेदारियां हैं कि नहीं, इस समाज के प्रति’- पागल ने कहा।

‘कैसी जिम्मेदारी’?

‘अरे भाई। पागलों पर ही तो सबसे बड़ी जिम्मेदारी है कि वो तुम्हारी इस जगर-मगर दुनिया में संतुलन बनाये रखते हैं। पागलों को देखकर ही तो तुम लोग दिलासा देते हो खुद को कि तुम पागल नहीं हो, जबकि असल में तो दुनिया ही पागलों से भरी हुई है। पागल न हों, तो तुम लोगों की जरूरत ही क्या है’- पागल ने पलटवार किया।

शराबी ने कहा कि जरूरत से उसे अपने पुर्तगाली हमजाद की कुछ पंक्तियां और याद आ गयी हैं और वह उन्हें पागल को सुनाकर ही मानेगाः  

तुम्हारी है ज़रूरत?
ओ मर्त्य मानव,
कोई नहीं आवश्यक, तुम नहीं अपरिहार्य किसी के लिए… तुम्हारे बिना चलती रहेंगी सारी चीजें पूर्ववत्…
शायद, यह हो दूसरों के लिए बेतुकी- घटिया बात कि तुम जिंदा हो बनिस्बत तुम्हारी मौत के
शायद तुम्हारी उपस्थिति है वाहियात तुम्हारी अनुपस्थिति से…
दूसरों की वेदना?
तुम चिंतित हो, दूसरों के क्रंदन से… जो वह करेंगे तुम्हारी लाश पर
न करो चिंता। वे देर तक नहीं रोएंगे…
जीने की अदम्य चाह, सुखा देती है आंसुओं को…
जब वह नहीं हो स्वांतः जीवनाय
जब वह दूसरे के साथ कुछ हुआ, माने मौत, उसके लिए हों…
चूंकि यह होता है सबके साथ, कुछ भी और नहीं होगा
पहले होगी बेचैनी, उद्वेग, रहस्य के आने का आश्‍चर्य
और, तुम्हारी बकवादी ज़िंदगी की अचानक खामोशी…
फिर, तुम्हारे दृश्य और ठोस ताबूत का
और, तब आएंगी पेशेवर रुदालियां, जिनका काम ही है वहां होना
उसके बाद सगे-संबंधी, टूटे दिलों और होठों पर चुटकुलों के साथ
शाम की अख़बारों की सुर्खियों पर चर्चा के बीच,
साधेंगे शोक को भी,
करेंगे घालमेल ताजातरीन अपराध और तुम्हारे शोक का..
तुम बस होगे ‘तात्कालिक कारण’ उनकी लफ्फाजी का
तुम होगे सचमुच मृत,
तुम्हारी कल्पनाओं से कहीं अधिक मृत,
भले ही इस जगत के परे हो कहीं तुम और अधिक जीवंत…
इसके बाद होगा जुलूस चिता या कब्र में जाने का
और आखिरकार, तुम्हारी स्मृतियों की भी मृत्यु का।

Fernando Pessoa (Álvaro de Campos), Lisbon Revisited

‘स्मृतियों की मृत्यु। यह कैसी बात है? वह विदेशी है, इसलिए नहीं समझ पाया कि हम भारतीय तो स्मृतियों में ही जीते हैं और जिससे जितना हमें प्रेम होता है, हम स्मृतियों का उसके उतना ही भव्य स्मारक बनाते हैं। देखो, तुम्हारे देश का जो आश्चर्य है, ताजमहल, वह भी तो स्मृतियों का ही भव्य शिलालेख है। गौतम से लेकर गांधी तक, सबको तुम लोगों ने स्मृति मात्र में सुरक्षित रखा है, व्यवहार और आचार में नहीं। हां आंबेडकर हों तो स्मृति में रखो, आडंबर हो तो आचार-व्यवहार में लाओ’- पागल ने उन्मादी अट्टहास लगाते हुए कहा।

‘देखो, हमारे यहां का आडंबर इतना अधिक है कि हम सभी दोहरी ज़िंदगी जी रहे हैं, लेकिन आडंबर या दोहरापन तो किस समाज में नहीं है, पश्चिम में हो या पूरब में, एक समाज के तौर पर व्यक्ति को किन चीजों से फर्क पड़ता है, किन मौतों से अंतर पड़ता है, यह तो पूरी तरह उसके स्वार्थ पर ही निर्भर करता है न। स्वार्थ का मतलब तो समझते ही होगे, तुम’- शराबी ने कहा, और कविता की कुछ और पंक्तियां गुनगुनाने लगा।

सर्वप्रथम, सब महसूस करेंगे निवृत्त,
कि थोड़ी उलझाऊ बात, जो है तुम्हारी मौत, वह बीत गयी…
फिर, हरेक बीते दिन के साथ,
बातचीत हो जाएगी और हल्की,
जीवन आ जाएगा वापस पुरानी पटरी पर
फिर, तुम धीरे-धीरे भुला दिए जाओगे..
याद किए जाओगे, साल में दो बार
अपनी जन्मतिथि और मृत्यु-दिवस पर….
यही है। बस, यही है। बस, केवल इतना ही है।
साल में दो बार, वे सोचते हैं तुम्हारे बारे में
साल में दो बार, तुम्हें प्यार करने वाले लेते हैं एक उच्छ्वास,
और, वे भर सकते हैं आह,
उन विरल मौकों पर,
जब लेता हो कोई तुम्हारा नाम
देखो, तुम अपने चेहरे को, और सच कहूं तो बस चेहरे ही हो तुम, हम सब…
यदि करना चाहते हो खुदकुशी, तो मार डालो खुद को…
भूल जाओ अपने बौद्धिक भय या नैतिक ऊहापोह को,
कौन या भय या ऊहापोह रोजमर्रा के जीवन को करता है प्रभावित?
कौन सी रासायनिक अभिक्रिया करती है, नियंत्रित
जीवन के ताप को, रक्त-प्रवाह को और प्रेम को?
अहा, रक्त-मज्जा-मांस-वसा-अस्थि का यह पिंड मानव,
क्या नहीं दीखता तुम्हें, है बिल्कुल भी गैर-ज़रूरी?
तुम हो खुद के लिए जरूरी, क्योंकि जो तुम हो, वही महसूस करते हो
तुम खुद के लिए हो सब कुछ, क्योंकि तुम्हारे लिए तुम ही हो ब्रह्मांड
सच्चा ब्रह्मांड
और दूसरे लोग, बस हैं उपग्रह,
तुम्हारी वस्तुनिष्ठ विषयनिष्ठता के।
तुम मायने रखते हो खुद के लिए, क्योंकि तुम ही हो जो रखते हो खुद के लिए महत्व,
और, है यदि यह सत्य ओ मेरे मिथक…

Fernando Pessoa (Álvaro de Campos), Lisbon Revisited

‘ये तुम्हारे कवि ने कोई नयी बात तो नहीं कही। स्वार्थ का मतलब ही खुद का कल्याण होता है। हरेक व्यक्ति अपने मूल में स्वार्थी ही तो है, एक मिनट को सोचो, जरा अंग्रेजी में। इनडिविजुअल ही तो परम सत्य है, न। अणु ही तो पदार्थ है, पदार्थ ही तो अणु है, यत्पिंड तत् ब्रह्मांडे की जो बात भारतीय मनीषा कहता है, वही तो तुम लोग वैज्ञानिक तरीके से बिग-बैंग में खोज रहे हो या साबित करना चाह रहे हो। पता है, पागल हो जाना राहत की बात भी है, क्योंकि तुमको यह पता है कि जितनी भी भागदौड़ इस दुनिया में चल रही है, वह अंततः मेरी ही स्थिति को प्राप्त करने के लिए है, जबकि मैं तो पहले ही वहां पहुंच चुका हूं’- पागल ने हंसते हुए कहा।

‘ऐसा कैसे मान लूं, तुम जो कह रहे हो, वह तो सरसामी की, बेहोशी की बात है, दिमागी तवाजुन बिगड़ा है तुम्हारा’- शराबी ने कहा।

‘तो, होश क्या होता है, तुम्हीं बताओ। अभी मैं और तुम एक स्केल पर, एक स्थिति पर बात क्यों कर रहे हैं, पता है तुम्हें? इसलिए कि तुम शराब पीकर उतने ही पागल हुए हो, जितना मैं होश में हूं। और, एक बात ये भी तो सोचो। होश का पैमाना किसे बनाओगे, कैसे बनाओगे और इन सबसे बढ़कर क्यों बनाओगे? क्या तुम जॉन नैश के उस होश को पैमाना बनाओगे, जिसने नोबल प्राइज जीत लेने लायक थियरी दी, लेकिन वह तो उस समय पागलपन के दौरे में था? क्या तुम गांधी के उस होश को पैमाना बनाओगे, जब देश जश्न-ए-आजादी मना रहा था और वह बूढ़ा नोआखाली घूम रहा था? तुम्हारा होश, मेरे होश का निकष क्यों हो, या वाइसे-वर्सा ही। मैं एक मनुष्य हूं, तुम एक मनुष्य तो हम-तुम एक-दूसरे को अपने हाल पर क्यों न छोड़ दें?

और होश की बात करते हो? तुम जिस कविता का अनुवाद पढ़ रहे हो, वह जानते हो मैंने ही किया था। ये सुनो उसका अंतिम अनुच्छेद’- और पागल ने कविता की पंक्तियां सुनानी शुरू कर दीं।

तो, क्या यह दूसरों के लिए भी नहीं है सत्य?
क्या तुम भी, डरते हो अनजान से,
हैमलेट की तरह..
पर, क्या ही है जाना हुआ?
जानते ही क्या हो तुम,
जो कहो किसी बात या चीज को ‘अनजान’?
क्या तुम भी शेक्सपीयर के उसी मोटे पात्र फैल्सटाफ की भांति,
करते हो प्रेम जीवन को उसकी चर्बी, मोटाई और चिकनाई से…
यदि, करते हो प्रेम इतनी भौतिकता से,
तो डूबो और करो और अधिक भौतिकता से इसे प्यार,
बन जाओ, पृथ्वी और बाकी चीजों का एक हिस्सा…
ओ मेरे भौतिक-रासायनिक, रात्रिचर चेतन कोशिकाओं के समूह,
बिखेर दो खुद को,
शरीरों की अचेतनता बनाम रात्रिचर चेतनता पर,
दृश्यमान व्यक्तित्वों के ऊपर उस कंबल से जो कुछ भी नहीं ढंकता,
लगातार वर्द्धमान घास-फूस के ऊपर,
चीजों की परमाणविक धुंध के ऊपर,
घूमती हुई दीवारों पर,
उस गतिशील शून्य पर,
जिसका नाम है दुनिया…..

Fernando Pessoa (Álvaro de Campos), Lisbon Revisited

‘अरे गुरु। आप तो गुरु आदमी हैं। ये आपने ही अनुवादित की थी?’- शराबी ने पूछा।

“हां, मैंने ही अपने पागलपन के दिनों में कभी की थी। जब मैं नौकर था, पैसे कमाता था और आगे की योजना बनाता था।”

‘और अब?’, शराबी ने पूछा।

‘…अब… अब मैं पागल हूं।’- कहते हुए पागल ने सागर की उद्दाम लहरों में छलांग लगा दी।

शराबी ने कुछ देर पागल के कूदने से बने विवर्त को देखा। सोचा और फिर वह भी उसके पीछे कूद गया।


Cover: Vincent van Gogh Installation Shot, via BBC News


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