बात बोलेगी: खुलेगा किस तरह मज़मूं मेरे मक्तूब का या रब…


छवि के बंदीगृह में सुख नहीं है- यह बात किसी बड़े दार्शनिक ने शायद इस तरह एक सूत्र में न भी कही हो लेकिन ऐसा होते हुए दिखलायी पड़ रहा है। किसी की छवि और उसके इर्द-गिर्द रचे गए तिलि‍स्म को हर रोज़ जब हम ताश के पत्तों से बने महल या जलती हुई मोमबत्ती के पिघलते मोम या रेत के घरौंदे या भूकंप से दरकी हवेली की दीवारों की तरह जब टूटते हुए देखते हैं, तो लगता है कि भले ही किसी का कहा इस प्रकार सामने नहीं आया लेकिन ज़रूर किसी ने तो कहा ही होगा और अगर नहीं कहा है अब तक तो किसी को यह कहना चाहिए। खैर…

‘मक्तूब’, यही शब्द है जिसका इस्तेमाल दुनिया के बेस्टसेलर उपन्यास ‘अलकेमिस्ट’ के हिन्दी अनुवाद में हुआ है। मक्तूब का अर्थ है- जो लिखा जा चुका है। इसे पढ़ते हुए लगता है कि यह सब जो पढ़ा जा रहा है वह पहले लिखा जा चुका है। आज, अभी और इसी वक़्त यह उपन्यास पढ़ा जाएगा, यह भी लिखा जा चुका था। एक कोरे पन्ने पर क्या लिखा है, यह पहले से लिखा जा चुका था। इस वर्ड फाइल पर आज की बात क्या बोलेगी यह भी पहले से लिखा जा चुका था।

यह संसार और इसमें घटने वाली हर घटना का ज़िक्र इस तरह करने से नियति के अधीन होने के खतरे तो हैं लेकिन एक अजीब सी तसल्ली भी है कि जो घट रहा है या घटते हुए दिखलायी दे रहा है असल में उसका इसी तरह घटित होना तय था। आँखों के सामने जो मंज़र आ रहे हैं वह सिनेमा की मानिंद पहले से शूट किए जा चुके थे, हम केवल एक प्रेक्षक की भांति उन्हें आज देख रहे हैं। एक कर्ता के रूप में हम पहले से ही निर्मित परिस्थितियों में हस्तक्षेप कर रहे हैं और यह हस्तक्षेप भी पहले से लिखा जा चुका था। इस संसार में सब लोग जो कुछ भी कर रहे हैं वह उन्हें करने के लिए पहले से कहा चुका है। लगता है जैसे हम सब किसी के कहे हुए का पालन कर रहे हैं।

बात बोलेगी: दांडी की हांडी में पक रहा है “नियति से मिलन” का संदेश!

कर्ता के भाव को इस तरह गौण करने का एक लंबा बौद्धिक फलसफाना अभियान पूरी दुनिया में चला होगा जो हमारे हिंदुस्तान में अब भी तमाम धार्मिक और आध्यात्मिक पाखंडों में जीवित है। नियतिवाद का यह मोह ही ऐसा है कि लोगों को राहत देने का जबर स्रोत बनकर बार-बार, हर बार खड़ा हो जाता है। इस मोह में मुक्ति है। यह मुक्ति का आलंबन है और ये ठीक उसी तरह की मुक्ति है जिसका ज़िक्र आज के हिंदुस्तान के सबसे शक्तिशाली बताये जाने वाले व्यक्ति मोहन भागवत ने तब किया जब पूरे देश में निराशा का भाव फैला हुआ था।

अपने मातहत वाली भाजपानीत सरकार और उस सरकार के सबसे कद्दावर नेता की छवि जब तार-तार होने लगी, तब मोहन भागवत नाम की इस अदृश्य सत्ता को सामने आना पड़ा। विग्रह या बिछोह में मुक्ति के अनर्थशास्त्र की सौ वर्षों की परंपरा के वाहक मोहन भागवत ने उनके लिए शुक्र गुज़ार किया जो कोरोना की भेंट चढ़ गये हैं और इस का मूल भाव ये था कि अब उन्हें कोरोनाजनित कष्टों से छुटकारा मिल गया। ‘दर्द का हद से गुजरना और गुजर जाने का ही दवा हो जाना’ इस महान वाक्य से स्थापित किया गया।  इससे छवि टूटने की घटनाओं में जब कोई कमी नहीं आयी, बल्कि जनता के बीच बने रहने भर की काबिलियत बचाये रखने के लिए कुछ एक मीडिया चैनलों को भी दिल पर पत्थर रखकर, सरकारों की नाकाफी कोशिशों की विराट असफलताएं दिखलानी पड़ीं, तब जाकर अन्य माध्यमों से भी यही काम किया गया।

यह समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विराट तौहीन का समय है। मोहन भागवत इससे पहले इतने निरर्थक और बेअसर कब साबित हुए थे? कम से कम सात साल में तो नहीं देखा गया। उनसे बढ़िया काम तो भाजपा की आइटी सेल ने कर दिखाया। आजकल भक्तों में टूलकिट को लेकर एक साजिशाना सम्मोहन है। लीजिए, भाजपा के कुछ लोग उसे लेकर आ गये।

अब अगर ये टूलकिट का मामला किसी तरह दो-चार दिन टिक गया और जनता का ध्यान थोड़ा भी भटका सका तो यह तय मानिए कि मोदी का अगला निशाना भागवत होंगे जिन्हें वानप्रस्थ दिया जाएगा। अपनी अक्षौहिणी सेना के दम पर जो काम भागवत भी न कर सके वो दो चार पात्रों ने कर दिया। अटकलें ही तो हैं, लगायी जाएं कि तौकते तूफान के बाद अब अगला तूफान साज़िशों के इसी गर्भगृह से आएगा। सि‍र फुटौव्‍वल की नौबत आयी हुई है और ऊपर जिस नियतिवाद का ज़िक्र हुआ है, वो यहां आकर सौ प्रतिशत गलत साबित हो जाता है। यह मक्तूब नहीं था, लिखा नहीं गया था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कभी भी इतनी असहाय और बेबस स्क्रिप्ट नहीं लिखता।

जिसके कहे पर देश चलने लगा था या उतना तो चलने ही लगा था जितनों की उँगलियों में देश की बागडोर सौंपने का माद्दा था, आज वे उँगलियां उस नीली स्याही को कोसती नज़र आ रही हैं जिसे वोट करते वक्‍त उन्‍होंने लगवाया था। ऐसी हर कम होती उंगली का एहसास इस विराट सत्ता को हो चुका है। असल में अब उस काबिलियत का इम्तिहान हो रहा है जिसके दावे किये गये थे। अब जनता को कौन समझाये कि वो दावे थे। वादे और दावे में कोई ज़्यादा फर्क थोड़ी न है। उतने ही स्वर और व्यंजन हैं। ऐसे में जब वादे तोड़ने के लिए होते हैं तो दावे क्या निभाने के लिए बने हैं? कमाल है कि वही स्वर-व्यंजन अदल-बदल कर कुछ नया रचने की फिजूल कोशिश हो रही है।

छवियों के राजमहल को बंदीगृह में तब्दील होते देखने का तजुरबा वही ले पा रहे हैं जो इतिहास में अमूमन हर सौ साल पर लौटने वाली महामारी को भी देख पा रहे हैं। यह महामारी जीवित इंसानों के साथ-साथ एक असंवेदनशील राजसत्ता के लिए बहुत घातक होते हुए दिखलायी देने लगी है। यह भी पहले से लिखा नहीं गया था। अगर वाकई कुछ किया होता तो स्क्रिप्ट कुछ सुखांत की तरफ जाते दिखलायी देती।

अभी तो दुक्‍ख है। सर्वम दुक्‍खम है। बुद्ध को कुछ लिखा हुआ नहीं मिला था। उन्होंने दुख के बारे में जाना था। बोला था। बाद में यह सब लिखा गया। जो जानते हैं, सोचते हैं, फिर बोलते हैं वो लिखा जाता है। जो जानते नहीं हैं, सोचते नहीं हैं, फिर भी बोलते हैं वह भी लिखा जाता है। यह जो लिखा जा रहा है वह दोनों के बारे में लिखा जा रहा है। बुद्ध को दुख को जानने के लिए लिखा जाएगा और इस निज़ाम को दुख को बढ़ाने के लिए लिखा जाएगा। एक कर्ता के किये काम को दूसरे कर्ता के द्वारा लिखे जाने का काम नियति का नहीं है। नियति ऐसे बोझ बर्दाश्त नहीं करती। वह बीत जाने से पहले का एक आश्‍वासन दे सकती है लेकिन बीत जाने का बाद वह नियति इतिहास में बदल जाने को अभिशप्त है। नियति वहीं तक साथ चल सकती है जहां तक चेतना नींद में सोयी हुई हो। चेतना के जागने के बाद नियति छू-मंतर हो जाती है जैसे सब कुछ बिगड़ने के बाद यह निज़ाम, यह नेता और उसकी मातृ-शक्ति यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ निस्तेज हुए जा रहे हैं।

दांव पलट सकता है। सारी कायनात को लगा दिया गया है। मरने वालों से लेकर बीमार होने वालों तक के आंकड़े कम होते दिखलायी देने लगे हैं। सर्वोच्च न्यायालय से मिली सांत्वना स्वरूप सीख कि अब अगली लहर की तैयारी कर लो, उसकी भी खबरें आने लगी हैं। फोकस अब अगली लहर पर होने लगा है, जैसे अगली और पिछली लहर के बीच एक अंतराल होगा ही। लहरों को जिन्होंने भी करीब से देखा है वे जानते हैं कि लहरें कभी थमती नहीं। उनमें एक आंतरिक बल होता है जो सतत प्रवहमान होता है। एक लहर दूसरी लहर के लिए पार्श्व बल का काम करती है। उसे धकेलती है। एक लहर को किनारे लगाती है, तब दूसरी को लेकर आ जाती है। इन लहरों को जनता भी देख रही है। पता नहीं बाकी सब देख रहे हैं या नहीं?


शीर्षक मिर्ज़ा गालिब के एक शेर का टुकड़ा और कवर तस्वीर विक्टोरिया इवानोवा की तस्वीर The Megalomania


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