स्मृतिशेष: हिंदीपट्टी के युवाओं में वाम-इतिहासबोध रोपने वाले एक अभिभावक का जाना


इतिहास के जनप्रिय वामपंथी शिक्षक लाल बहादुर वर्मा का सोमवार की सुबह देहरादून में निधन हो गया। तीन पीढि़यों को प्रशिक्षित करने वाले लाल बहादुर वर्मा के शिष्‍यों और चाहने वालों की फेहरिस्‍त बहुत लंबी है, लिहाजा उनसे पढ़े और उन्‍हें जानने वालों की श्रद्धांजलियों का तांता फेसबुक पर लगा हुआ है। उनमें से एक संस्‍मरणरूपी श्रद्धांजलि हम यहां प्रकाशित कर रहे हैं। जनपथ की ओर से जनता के शिक्षक को नमन।   

संपादक

मार्क्सवाद मेरे पास दार्शनिक अमूर्त बहसों से नहीं आया बल्कि इतिहास की किताबों के जरिये आया। जब इतिहास पढ़ना शुरू किया, जदुनाथ सरकार से लगाकर पुराने ढंग के बहुत से इतिहासकारों को पढ़ते गए लेकिन जिन किताबों को अपनी स्वतः सोच के करीब पाया उनमें वे इतिहासकार ज्यादा शामिल थे जो खुद को मार्क्सवादी क़हते थे। लाल बहादुर वर्मा जी की ‘यूरोप का इतिहास’ ऐसी ही किताब है जिसने शुरू के दौर में मुझे प्रभावित किया। मेरे बड़े भाई, शिक्षक डॉ. देवेंद्र रहे। तब मिले जब मैं देश-दुनिया को देखने लगा था। उन्होंने लाल बहादुर वर्मा जी के बारे में बहुत सी बातें बतायी थीं.

वर्मा जी फ्रांस से पीएचडी करके 1970 के दशक में भारत आये जबकि वो आराम से वहां भी पढ़ा सकते थे। वो गोरखपुर विश्वविद्यालय में आ गये और उनके आसपास बहुत से युवा साथी आये या वह युवाओं के पास गये- एक नये तरह समाज के निर्माण के लिए, साथ ही प्रखर बौद्धिक गतिविधियों के लिए भी। खास बात यह कि इन सब लोगों ने विचारों के आदान-प्रदान और प्रसार के लिए आम बोलचाल की हिंदी अपनायी। खासकर लाल बहादुर वर्मा जी की जितनी प्रवाहमय अंग्रेजी या फ्रेंच थी, उतनी ही तरलता से बिना क्लिष्ट हुए वे हिंदी भी बोलते थे।

यह कहना गलत न होगा कि उस दौर के हिंदी बेल्ट में जितने भी प्रगतिशील युवा थे, वे कहीं न कहीं वर्मा जी जे जुड़े और उनसे बहुत कुछ सीखा। बाद में उनमे से बहुत से युवा उनसे दूर भी हुए लेकिन इसका कारण उन युवाओं में खुद लाल बहादुर वर्मा बनने की एक अतृप्त महत्वाकांक्षा व भटकाव अधिक रहा, लेकिन वर्मा जी सबको हमेशा स्नेह ही देते रहे। यह वह दौर था जब प्रचलित कम्युनिस्ट पार्टियों से बहुत सारे युवाओं का मोहभंग हुआ था। उन पर 1967 के यूरोप के छात्र आंदोलनों के बड़ा असर पड़ा था। एक रोमांटिसिज्म और आदर्शवाद उस दौर की हवाओं में बह रहा था और जल्दी से कुछ नया सृजित करने की आकांक्षा थी। लाल बहादुर जी में इन सब बातों के अलावा एक और बात थी कि वो हमेशा उत्साह से भरे और सहज रहे।  निश्छल भी।

दिल्ली के बौद्धिक सर्किल ने लाल बहादुर जी को उस तरह से सपोर्ट नहीं किया जैसा उन्हें करना चाहिए था। शायद दिल्ली की अंग्रेजी दुनिया में ऐसे लोगों को ज्यादा सर नहीं चढ़ाया जाता जो गैर-अंग्रेजी फलक से क्रांतिकारी चेतना का विश्वविद्यालयी दुनिया से बाहर विस्तार चाहते हैं। चूंकि लाल बहादुर जी का व्यक्तित्व चुम्बकीय था और उसमें पारदर्शिता और ईमानदारी भी थी, इसलिए भी शायद ऐसा हुआ हो। फिर भी उन्हें प्यार करने वालों की दिल्ली में भी कमी नहीं रही। मेरे गुरु बिपन चन्द्र उन्हें व्यक्तिगत रूप से बहुत पसंद करते थे। उन्होंने एक बार जिक्र चलने पर कहा था कि उसमें सच्चाई है।

मेरा उनसे निजी परिचय 1999 में भारतीय इतिहास कांग्रेस, कालीकट में हुआ। हम एक ही ट्रेन से जा रहे थे। तब मैं अंग्रेजी में लिखता तो था, लेकिन प्लेटफॉर्म से अंग्रेजी में बोलने में हिचक सी होती थी, हालांकि काम तो चला ही लेता था। ट्रेन में कुछ घण्टे मैं उनके साथ था। उनकी पत्नी भी थीं। मेरे लिए वो मुलाकात एक सुखद अहसास थी क्योंकि उस शख्स से साक्षात मिल रहा था जिनके तमाम ऊंचे किस्से सुने भर थे। उन्होंने तुरंत ही मुझे अपने प्रभाव में ले लिया, मुझे उत्साह दिया और खास होने का अहसास भी दिलाया जो किसी भी युवा के लिए टॉनिक का काम करता है।

मैंने उनसे अपनी अंग्रेजी की दुविधा बतायी। उन्होंने मुझसे कहा कि आप अपनी इसी दुविधा को वहां अपना पर्चा पढ़ते हुए बोल दीजिएगा, अपने मन के डर को बोल देने से डर गायब हो जाता है। उन्होंने कहा कि ये कहिएगा कि I am not a Hindi chauvinist but do not get enough opportunities to speak in english because of my town livelihood. So please bear with my english and also tolerate my hindi if I switch over to my mother tongue for expressing myself.

बाद में मैंने उन्हें अपना रिसर्च पेपर Mahatma Gandhi’s Non Violence: Some Reflections दिखाया। वो बहुत खुश हुए और बोले:

आलोक, People talk about Gandhi but in my knowledge there is no one who has gone through CWMG in full. Scholars use Gandhi on preference basis only. You are doing a remarkable job. Keep it up.

एक नए लड़के के लिए उनका यह कहना, जो कि बढ़ा-चढ़ा कर ही था, एक बड़ी बात थी जो मुझ पर सटीक कमेंट नहीं बल्कि उनकी सह्रदयता और विशालता का द्योतक थी। बाद में कुछ बार उनसे पुस्तक मेलों में मिलना हुआ और वो हमेशा उसी स्नेह से मिले।

अभी कुछ महीने पहले उनसे फोन पर लंबी बात हुई थी। मैंने उन्हें बताया कि बिपन की जीवनी लिख रहा हूं। वो बहुत खुश हुए और बोले कि हर गुरु की इच्छा होती है कि उनका शिष्य उन्हें कम से कम याद तो रखे। बिपन जी एक महान इंसान भी थे तभी इतने बड़े स्कॉलर भी बन सके। बहुत सी बातें हुईं थीं जिन्हें यहां लिखना सम्भव नहीं। उनसे मैंने रिक्वेस्ट की कि आप मुझे बिपन से जुड़े अपने संस्मरण और अनुभव बताइएगा। वो राजी हो गए और कहा कि अगली बार यही बात होगी। वो अगली बार नहीं हुआ। बहुत बार मन हुआ तो लगा क्या उन्हें तकलीफ दूं, बाद में कर लेंगे।

कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके बारे में किसी को पूरा नहीं बताया जा सकता जब तक कि कोई खुद उनसे मिला न हो। लाल बहादुर वर्मा जी ऐसी ही शख्सियत थे। हमने इतिहास का एक अपना अभिभावक खो दिया जिसकी क्षतिपूर्ति नहीं हो सकती। उन्हें नमन और लाल सलाम।


(आलोक बाजपेयी इतिहास के शिक्षक हैं, यह टिप्पणी उनके फ़ेसबुक से साभार प्रकाशित है)


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