मैं अपना नाम, पता न छापे जाने की शर्त पर अपनी बात साझा कर रहा हूं और अपनी बात को साझा करते हुए मैं बहुत सहमा और डरा हुआ सा महसूस कर रहा हूं कि आखिर क्या हो रहा है इस देश में ‘सिस्टम’ के नाम पर। लोगों की जिन्दगी से खेला जा रहा है। यूपी के पंचायत चुनाव के कारण जिस तरह से कोरोना संक्रमण फ़ैल रहा और चुनाव कर्मचारियों की मौत हो रही है वो किसी भी इन्सान का दिल दहला सकती है।
अभी तक अख़बारों में पढ़कर डर लगता था कि पंचायत चुनाव में ड्यूटी के दौरान कोरोना संक्रमण से शिक्षक की मौत। एक शिक्षक होने के नाते मेरा ये डर दिन प्रतिदिन और गहरा होता जाता था क्योंकि मेरी भी ड्यूटी चुनाव के आखिरी चरण में लगी थी। जैसे-जैसे आखिरी चरण के चुनाव की तारीख नजदीक आती जाती वैसे-वैसे मेरा भय, दुःख और गहरा होता जाता। आखिर होता भी क्यों नहीं, सवाल जो जिन्दगी का था। अंततः वो तारीख आ जाती है जिस दिन मेरी ड्यूटी पंचायत चुनाव के आखिरी चरण में होती है। चुनाव के एक दिन पहले मैंने पूरी सावधानी और लोगों से सलाह सुझाव के आधार पर अपनी तैयारी कर ली थी कि चुनाव में कोरोना से बचने के लिए क्या क्या लेकर जाना है और कैसे सोशल डिस्टेंसिंग बनानी है।
चुनाव के आखिरी चरण की तिथि तक यूपी में सात सौ शिक्षकों की मौत कोरोना से हो चुकी थी। इन शिक्षकों की मौत उसी प्रक्रिया से हुई थी जिस प्रक्रिया से मैं अगले दिन गुजरने जा रहा जा रहा था। अब तक कई शिक्षक संगठन सहित अन्य संगठन, एजेंसियों द्वारा सरकार से पंचायत चुनाव तुरंत निरस्त कराने की मांग की जा चुकी थी, जिसका असर सरकार पर किसी भी तरह से नजर नहीं आ रहा था। सरकार और निर्वाचन आयोग द्वारा सोशल डिस्टेंसिंग, सेनिटाइजर जैसे अन्य गाइडलाइन जारी की जाती रही। सैकड़ों शिक्षकों सहित बहुत सारे लोगों की इन दिनों पूरे यूपी में कोरोना से मौत हो चुकी है लेकिन फिर भी सरकार पंचायत चुनाव निरस्त नहीं कर रही, ये आश्चर्य की बात है, क्या सरकार की नजर में लोगों की जिन्दगी की कोई कीमत नहीं है? देश के नागरिकों के प्रति वेलफेयर स्टेट की अवधारणा की धज्जियां सत्ता द्वारा किस तरह उड़ाई जा रही हैं ये कोरोना समय में चुनाव कराने के राज्य के निर्णय से साफ़ स्पष्ट हो रहा है।
इन्हीं सब मानसिक झंझावात के साथ मैं चुनाव के एक दिन पहले चुनावी सामग्री लेने के लिए निकल पड़ा। मुझे एक ब्लाक के किसी इन्टर कॉलेज में जाना था जहां उस ब्लाक के लिए चुनावी सामग्री जारी की जाने वाली थी। जब मैं वहां पहुंचा तो वहां की स्थिति देख के मैं हैरान हो गया (जो कि तस्वीरों से स्पष्ट हो रहा है, ये सभी तस्वीरें मैंने अपनी चुनावी ड्यूटी के दौरान ली हैं)। चुनाव कर्मचारियों की भीड़ और सरकारी व्यवस्था देख कर लग ही नहीं रहा था कि देश में कोरोना जैसी कोई महामारी है जिससे लोग संक्रमित होकर मर रहे हैं। वहां किसी तरह की कोई सोशल डीस्टेंसिंग नहीं थी, बहुत सारे लोग वहां बिना मास्क के घूम रहे थे, सामग्री वितरण, हस्ताक्षर करते समय लोग एक दूसरे के ऊपर चढ़ जा रहे थे। मैं क्या कोई भी चाह कर भी किसी तरह की सोशल डिस्टेंसिंग नहीं रख सकता था। यहीं से मुझे कोरोना से मरने वाले शिक्षकों के कारण नजर आने लगे।
कोरोना से मौत की दहशत शिक्षक समाज पर इस कदर हावी रही कि लोग ड्यूटी तक छोड़ दिए। आये दिन किसी न किसी शिक्षक की कोरोना से मरने की खबर सुनाई देती रही। जितना शिक्षक कोरोना के डर से चुनावी ड्यूटी से भाग रहे थे उतना सरकार भी उनके पीछे पड़ी रही। स्थिति यहां तक आ गयी कि सरकार से फ़रमान जारी हुआ कि जो शिक्षक चुनावी ड्यूटी में अनुपस्थित रहेगा उसके खिलाफ़ एफआइआर होगी।
जहां मैं चुनावी सामग्री ले रहा था वहीं पर लाउडस्पीकर से घोषणा की जा रही थी कि जो शिक्षक या कर्मचारी नहीं आये हैं उनके खिलाफ़ एफआइआर दायर की जाएगी। मुझे इस घोषणा को सुनकर हैरानी और घबराहट सी होने लगी। कुछ समय के लिए मैं अपना संतुलन खो बैठा क्योंकि डर मुझे भी उतना ही था। एक बार कोरोना मुझे हो चुका है इसलिए मेरा डर और भी ज्यादा था। व्यवस्था के नाम पर कुछ नहीं था इन्टर कॉलेज के पूरे कैंपस में- कहीं पर कोई सार्वजनिक सैनिटाइजर नहीं लगा था जहां लोग अपना हाथ सैनिटाइज़ करते रहें। मेरे दिमाग में हमेशा यही चलता था कि कैसी सरकारें हो गयी हैं, कैसा लोकतंत्र हो गया है हमारे देश का, जहां लोगों की लाशों के ढेर पर चुनाव कराये जा रहे हैं। इतनी असंवेदनशील सत्ता शायद देश में कभी नहीं रही होगी जहां एक तरफ लोग कोरोना से मर रहे हों वहीं दूसरी तरफ सरकार चुनाव करा रही हो। मैंने आसपास के शिक्षकों को ड्यूटी कटवाने के लिए गिड़गिड़ाते हुए देखा जिनका स्वास्थ्य सही नहीं था। किसी को कोरोना के लक्षण थे, उनके पास एंटीजन की रिपोर्ट थी लेकिन प्रशासन का रवैया इतना अमानवीय रहा कि सबको ड्यूटी पर जाना पड़ा।
आखिरकार हमने धक्कामुक्की करते हुए अपनी चुनाव सामग्री प्राप्त कर ली और स्कूल के कैंपस में बैठकर अपनी टीम के साथ चुनाव संबंधी काम को सम्पन्न करने में जुट गये, जिसे मतदान शुरू करने से पहले करना होता है। स्थिति ऐसी कि लोग एक दूसरे के इतने करीब बैठते हैं कि उनमें दूरी जैसी कोई चीज ही नहीं रहती है। लोग खांस रहे हैं, छींक रहे हैं लेकिन लोगों में किसी भी तरह की सावधानी बरतने की स्थिति नहीं दिख रही थी।
एक पीठासीन अधिकारी के रूप में मैं जिस टीम का नेतृत्त्व कर रहा था उसमें मुझे लेकर कुल चार कर्मचारी थे जिसमें मुझे छोड़कर बाकि तीन में से किसी के पास भी सैनिटाइजर नहीं था। मास्क के नाम पर बहुत हल्का सा कामचलाऊ मास्क था, वो भी वो लगाए नहीं थे, अपने बैग में रखे थे। मेरे बहुत कहने पर वो मास्क लगाते हैं। ये एक बड़ी समस्या मैंने देखी ग्रामीण क्षेत्र में, जहां लोग अभी भी कोरोना को लेकर जागरूक या संवेदनशील नहीं हैं जबकि लोग संक्रमित भी हो रहे हैं और मर भी रहे हैं। जैसे-तैसे करके हमने इन्टर कॉलेज में शाम चार बजे के आसपास तक काम किया, उसके बाद बस से बूथ के लिए रवाना हुए जहां हमें वोट डलवाने थे। जिस बस से हमें जाना था उस बस में कुल पांच पोलिंग पार्टी थी, साथ में पुलिस के भी कुछ जवान थे। सही सलामत हम पोलिंग बूथ पर पहुंचते हैं। स्थानीय लोगों की मदद से जरूरतमंद चीजों को उपलब्ध कराया जाता है और किसी तरह से हमारी रात बीतती है।
सबसे भयावह स्थिति का सामना हमें सुबह वोटिंग करने के दौरान करना पड़ता है। लोगों की भीड़ इस कदर उमड़ी जिसे देखकर मुझे डर लगाने लगा। कोरोनाकाल में लोगों द्वारा किसी तरह की सावधानी नहीं बरती जा रही थी, न ही सरकार/प्रशासन द्वारा कोरोना के मद्देनजर पोलिंग बूथ पर किसी तरह की कोई व्यवस्था की गयी थी। लोग लाइनों में इस कदर लगे थे कि लगता ही नहीं था देश में कोरोना जैसी कोई महामारी भी है, सोशल डिस्टेंसिंग का लोगों द्वारा किसी तरह से पालन होता नजर नहीं आ रहा था। लोग एक-दूसरे के ऊपर चढ़ जा रहे थे, हम चाहकर भी किसी तरह की दूरी नहीं बना पा रहे थे, जैसा कि तस्वीरों से स्पष्ट हो रहा है।
चुनाव में कई तरह की समस्याएं होती हैं जो कोरोना जैसी स्थिति में और भी चुनौतीपूर्ण हो जाती हैं। मेरी चार लोगों की टीम में एक महिला कर्मचारी भी थी जिनके पास चार महीने का एक बच्चा था और वह पी-2 पद पर थीं जिसका काम विभिन्न पदों पर लड़ने वाले प्रतिनिधियों के बैलट पेपर को क्रमशः फाड़कर देना होता है। इस काम को वह अपने बच्चें के कारण नहीं कर पा रही थीं, जिसे अंततः मुझे करना पड़ा। एक पीठासीन अधिकारी के साथ मैंने पी-2 के काम को भी किया। इन दोनों पदों के रूप में काम करना जितना चुनौतीपूर्ण है उतना ही सावधानी की भी मांग करता है। कोरोनाकाल में जहां लोग संक्रमित होकर मर रहे हों उस हालात में एक महिला को अपने चार महीने के बच्चे के साथ चुनाव में ड्यूटी कराना कहां तक उचित है?
खबर तो गर्भवती महिला की भी किसी जिले में चुनाव ड्यूटी की आती है जिसकी बाद में मृत्यु हो जाती है जबकि इस महिला ने अपनी समस्या बताते हुए चुनावी ड्यूटी को कटवाने की कोशिश की, लेकिन शासन की चुनाव कराने की हठधर्मिता के चलते इनकी ड्यूटी नहीं कटी। इस तरह के बहुत सारे मामले सामने आए जहां बीमार लोगों, गर्भवती महिलाओं तक की चुनाव में ड्यूटी लगा दी गयी जिनकी बाद में मौत हो गयी। ये मामले बताते हैं किस तरह सरकार/निर्वाचन आयोग द्वारा चुनाव कितने निष्ठुर भाव और संवेदनहीनता के साथ सम्पन्न कराए गये।
जैसे तैसे करके बिना किसी सोशल डिस्टेंसिंग और कोरोना सम्बन्धी समस्त असावधानियों के रहते हुए हमने पंचायत चुनाव को सम्पन्न कराया। चुनाव के पश्चात् हम मतपेटी को सील करके वहां पहुंचे जहां जमा करना था। यहां पर पूरे ब्लाक के चुनाव कर्मचारी मतपेटी जमा करने आये थे, निश्चित रूप से इस बात की पूरी सम्भावना थी कि अलग-अलग जगहों से चुनाव कराकर आये लोगों में कुछ लोग कोरोना संक्रमित हुए होंगे जिनसे यहां पर अन्य लोगों के संक्रमित होने के पुरे अवसर थे। मतपेटी जमा करने के स्थल पर एकत्रित लोगों की भीड़ से कोरोना के प्रति उनकी सतर्कता साफ झलक रही थी। किसी तरह से हमने मतों का लेखाजोखा करके मतपेटी को जमा किया।
जिस समय तक मैं अपनी बात साझा करने के लिए लिख रहूं इस समय तक यूपी में पंचायत चुनाव से दो हजार कर्मचारी कोरोना संक्रमित होकर मर चुके हैं, जिसमें केवल सात सौ से अधिक शिक्षकों की मौत हो चुकी है।
जिस समय कोरोना का संक्रमण जोरों पर था उस समय क्या चुनाव कराना उचित था? क्या सरकार/ निर्वाचन आयोग को कोरोना संक्रमण की खबर नहीं थी? ऐसी कौन सी मजबूरी रही होगी जिससे चुनाव लोगों की लाशों के ढेर पर सम्पन्न कराया गया? क्या अब देश का नागरिक सिर्फ वोटर तक सीमित हो गया है जिसकी कीमत सरकार की नजर में सिर्फ वोट देने तक रह गयी है ताकि राजनीतिक पार्टी को सत्ता मिल सके? जिस देश का संविधान भारत के आखिरी नागरिक तक के जीवन की सुरक्षा की गारंटी की बात करता है उस देश में कोरोना संक्रमण के समय चुनाव कराकर लोगों को मौत के मुंह में धकेलना कहां तक उचित था? क्या सरकार अब राज्य के ‘लोक कल्याणकारी’ अवधारणा को बदल देना चाहती है जिसमें सरकारें अपनी मनमानी कर सकें?
क्या इसे ‘सिस्टम’ द्वारा चलाया जाने वाला मौत का सुनियोजित मौत का प्रोजेक्ट नहीं कहा जा सकता? अगर नहीं कहा जा सकता तो क्यों नहीं कहा जा सकता? प्रत्येक चुनाव चरण के पश्चात् कोरोना संक्रमण और मरने की दर में वृद्धि की खबरें आती रहीं लेकिन फिर भी तथाकथित ‘सिस्टम’ इतना असंवेदनशील क्यों बना रहा? सात सौ से ज्यादा शिक्षकों की मौत की जिम्मेदारी कौन लेगा? जब देश अस्पतालों में ऑक्सीजन, बेड, दवाएं इत्यादि बुनियादी चीजों के अभाव से जूझ रहा हो वैसी स्थिति में चुनाव कराना किसी दिमागी दिवालियेपन से कम नहीं है। ‘सिस्टम’ इतना असहाय साबित हुआ कि चुनाव में कोरोना से सम्बन्धित किसी भी तरह सावधानी का क्रियान्वयन नहीं करा पाया और चुनाव होता गया, लोग कोरोना से संक्रमित होते गये और मरते गये। क्या ये सच ये मौत का प्रोजेक्ट तो नहीं था?
यह टिप्पणी उत्तर प्रदेश के एक अध्यापक ने जनपथ को भेजी है और अपना नाम न छापने का अनुरोध किया है।