इतिहास के सिलेबस में UGC का किया ताज़ा बदलाव उर्फ RSS का ‘आइडिया ऑफ भारत’


हमने इतिहास से यही सीखा है कि हमने इतिहास से कुछ नहीं सीखा!

हीगल

हीगल के उपर्युक्त कथन को मोदी-शाह की सरपरस्ती वाली भारतीय जनता पार्टी ने इस हद तक संजीदगी से ले लिया है कि वह अपनी सारी परियोजनाओं- जो पिछले ज़माने में नहीं पूरी हो सकी थीं- को अभी ही पूरा कर लेना चाहती है, ताकि भविष्य में उसे अफसोस न रहे कि हमने इतिहास से कुछ नहीं सीखा! इस क्रम में  परियोजनाओं में अव्‍वल और प्राथमिक है

ताजा उदाहरण विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) द्वारा 15 फरवरी को जारी एक अधिसूचना है जिसमें यह बताया गया है कि आयोग द्वारा स्नातक स्तर के इतिहास विषय के पाठ्यक्रम में कुछ बदलाव करके एक नए पाठ्यक्रम का प्रारूप लाया जाना है। इस प्रारूप पर राय देने का समय 28 फरवरी तक था। इस पाठ्यक्रम के प्रारूप में तमाम पूर्वाग्रह-प्रेरित धारणाएं देखने को मिल जाएंगी। यहां तक कि इस प्रारूप की भाषा भी एक खास तरीके की है। शब्दों का चयन भी बहुत सोच-समझकर, एक एजेंडे को आगे बढाने के उद्देश्य से किया गया है। आइए, कुछ नुक़्ते देखे जाएं जो इस प्रारूप के पीछे की मंशा को उजागर कर देंगे।

अव्वल तो यह पहली बार हुआ है कि यूजीसी ने पूरे का पूरा पाठ्यक्रम ही नए सिरे से गढ़ने की कोशिश की है, जिसमें से विश्वविद्यालय मात्र 20-30 प्रतिशत की ही काट-छांट कर पाएंगे। इससे पहले यूजीसी सिर्फ कुछ सामान्य निर्देश देता था। यह कदम वर्तमान सरकार द्वारा सभी चैनल्स को बायपास करके कानून बनाने की ही नीति का विस्तार है। हर चीज़ को केंद्रीकृत कर देने की जल्दबाज़ी यहां भी दिखाई देती है।

दूसरी बात, जो कि भाजपाई राजनीति-संस्कृति के लिए बेहद महत्वपूर्ण है, वह है धार्मिक एवं मिथकीय चरित्रों को दिया जाने वाला महत्व। प्रारूप में एक प्रश्नपत्र का नाम ही ‘आइडिया ऑफ भारत’ रखा गया है। इस प्रश्नपत्र में विशुद्ध रूप से धार्मिक साहित्य जैसे वेद, वेदांग, उपनिषद, स्मृतियां एवं पुराण आदि को शामिल किया गया है। इसके उलट जो भी अ-धार्मिक या कुछ अर्थों में ‘सेकुलर’ साहित्य था जैसे कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’, कालिदास की कविताएं तथा महर्षि चरक रचित चरक संहिता, इन सब को हटा दिया गया है। इसके पहले भी पाठ्यक्रम में रामायण, महाभारत आदि के कुछ हिस्से इतिहास के स्रोतों के रूप में पढ़ाए जाते रहे हैं लेकिन जिस तरह इस प्रारूप में बिना आलोचनात्मक नज़रिया अपनाए इन पाठों को गौरवान्वित किया जाना प्रस्तावित है यह अभूतपूर्व है। यह पाठ्यक्रम कमोबेश भाजपा-आरएसएस की राजनीति को ही उर्वर ज़मीन मुहैया कराने में मदद करेगा।

आरएसएस-भाजपा गठजोड़ हमेशा से ही शिक्षा व्यवस्था तथा शिक्षण संस्थानों पर अपना कब्ज़ा जमाने को लालायित रहा है। आरएसएस की शैक्षिक विंग ‘विद्या भारती’ द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में अपनी वैचारिक बढ़त बनाने की कवायद तो 1977 से चल ही रही है। विद्या भारती के पूर्व महासचिव दीनानाथ बत्रा ने अपने एक बयान में साफ कहा है कि, ‘हमारी लड़ाई मैकाले, मार्क्स और मदरसों की शिक्षा व्यवस्था के खिलाफ वैचारिक लड़ाई है।’ इन्हीं दीनानाथ बत्रा महोदय ने एक ज़माने में एनसीईआरटी की पाठ्यचर्या में से कई विषयों, जोकि इनके अनुसार ‘भारतीयता के दुश्मन’ हैं, को हटाने की याचिका डाली थी। बत्रा महोदय पर अपनी पाठ्यपुस्तकों में नस्लभेद, अंधविश्वास आदि फैलाने का आरोप भी लग चुका है। यही बत्रा महोदय 2015 में दिल्ली में कहते हैं कि, ‘शिक्षा को चुनाव आयोग एवं सुप्रीम कोर्ट की ही तरह स्वायत्त होना चाहिए। शिक्षा में राजनीति नहीं होनी चाहिए बल्कि राजनीति में शिक्षा होनी चाहिए।’ क्या आइरनी है!

ख़ैर, आज की तारीख में विद्या भारती 12 हज़ार स्कूल संचालित कर रहा है जिनमें लगभग 32 लाख विद्यार्थी पढ़ते हैं। इन स्कूलों में क्या पढ़ाया जाता है, कैसे पढ़ाया जाता है, यह कई बार खुलकर सामने आ चुका है। कई आरएसएस कार्यकर्ता भी, जोकि अब संगठन से दूर हो चुके हैं, वहां की स्कूली शिक्षा में व्याप्त पूर्वाग्रहों और अतार्किक बातों का खुलासा कर चुके हैं। मुरली मनोहर जोशी सरीखे भाजपा के नेताओं ने तो कई बार यहां तक कह डाला है कि शिक्षा का भगवाकरण करना गर्व की बात है। जोशी जी ने अपने शिक्षा मंत्री रहते हुए पाठ्यक्रम में कई बदलाव भी किये थे जोकि बाद की कांग्रेस सरकार ने निरस्त कर दिए थे। इतिहास देखा जाय तो पूर्ववर्ती भाजपा सरकारों द्वारा इस तरह की कई पहलकदमियां ली गयी हैं जोकि शिक्षा के क्षेत्र में इनकी वैचारिकी को मजबूत आधार प्रदान करें। इन सभी कोशिशों के पीछे का एक ठोस कारण यह भी है कि विभिन्न स्तरों पर शिक्षा के क्षेत्र में लंबे समय से वाम-उदार बुद्धिजीवियों का ही दबदबा रहा है।

मज़े की बात हालांकि यह है कि पाठ्यक्रम सम्बन्धी सभी बदलाव एक ही विषय के इर्द-गिर्द घूमते रहे हैं और वह विषय है इतिहास! इतिहास के प्रति इतना मोह आखिर क्यों? इसका कारण पूरी तरह से राजनीतिक एवं वैचारिक है। इतिहास के महत्व के बारे में कई विद्वानों ने बहुत कुछ कहा है। उनमें से मुझे सबसे पसन्द एरिक हॉब्सबॉम का यह कथन है कि, “इतिहास कई बार एटम बम से भी अधिक खतरनाक साबित हो सकता है।” हॉब्सबॉम के इस कथन का आशय यह है कि अगर इतिहास का दुरुपयोग किया जाय तो वह परमाणु बम से भी ज्यादा खतरनाक हो सकता है।

नए प्रस्‍तावित पाठ्यक्रम प्रारूप में एक हिस्सा ‘सरस्वती सभ्यता’ का भी है, जोकि हड़प्पा सभ्यता के वर्तमान हिस्से को रिप्लेस कर रहा है। इसके पहले इस तरह का कोई पद इस्तेमाल नहीं हुआ है। एक तरह तो हिन्दू धार्मिक-मिथकीय चरित्रों और साहित्य को एकतरफा तरीके से गौरवान्वित करने की योजना है, तो दूसरी ओर मुस्लिम शासकों से सम्बंधित मुग़ल इतिहास को लगभग दरकिनार किया गया है। इसके पहले के पाठ्यक्रम में तीन प्रश्नपत्र 13वीं से 18वीं शताब्दी को कवर करते थे लेकिन नए पाठ्यक्रम में इसकी जगह सिर्फ एक ही प्रश्नपत्र प्रस्तावित है। उससे भी महत्वपूर्ण यह देखना है कि नए पाठ्यक्रम में हिन्दू एवं मुस्लिम ‘समाजों’ के अलग-अलग डिस्क्रिप्शन पर आधारित प्रश्नपत्र शामिल किए गए हैं, जैसे कि मुस्लिम एवं हिन्दू एक ही समाज में न रहकर किसी आइसोलेटेड समाज में रह रहे हों! यहां सरकार की नीयत पूरी तरह बेनकाब हो गयी है।

रीडिंग लिस्ट में से आर. एस. शर्मा, इरफान हबीब सरीखे मंझे हुए इतिहासकारों को हटाकर कुछ अन्य नामों को शामिल किया गया है जिनपर संघ के प्रति पक्षपाती होने का भी आरोप है। आधुनिक इतिहास वाले हिस्से को देखें तो नेहरू, गांधी, अम्बेडकर सरीखे नायकों को पुराने पाठ्यक्रम की अपेक्षा कम अहमियत दी गयी है। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि 20वीं शताब्दी के आरंभ में विकसित हुई साम्प्रदायिकता पर कोई डिटेल नहीं रखी गयी है। ज़ाहिर है कि अगर उस पर ज़ोर दिया जाता तो भाजपा-आरएसएस के इतिहास की पोल-पट्टी खुल जाती! इसके अलावा और भी तमाम चालाकियां इस नए पाठ्यक्रम में की गई हैं। मसलन, मुग़ल शासकों को तो ‘आक्रांता’ कहा गया है लेकिन अंग्रेजों को नहीं। इसके पीछे कौन सी वैचारिकी है इसका अंदाज़ा बड़ी आसानी से लगाया जा सकता है।

दुनिया भर में दक्षिणपंथी निज़ामों द्वारा इतिहास के दुरुपयोग और उसकी बिनाह पर झूठ फैलाने की रवायत बहुत पुरानी रही है। इसके कई नए संस्करण हमें आज भी देखने को मिल जाते हैं। भाजपा-आरएसएस की भी इतिहास को ‘नए सिरे से लिखने’ की बहुत पुरानी हसरत है, जिसे पूरा करने का मौका इन्हें अब जाकर मिल पाया है। मोटे तौर पर अगर यह कहा जाय कि ‘पाठ्यक्रमों में किया गया यह बदलाव भाजपा-आरएसएस के शिक्षा पर एकछत्र कब्ज़े की उनकी बहुप्रतीक्षित परियोजना का सिर्फ एक पड़ाव है’, तो ग़लत नहीं होगा।


लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय में एमए (राजनीति विज्ञान) के छात्र हैं


About अतुल उपाध्याय

View all posts by अतुल उपाध्याय →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *