तिर्यक आसन: अहम ब्रह्मास्मि उर्फ नित्य दुखवादियों के लिए एक अदद सुख


‘दु:ख में, विपत्ति में भगवान याद आते हैं’, इस मान्यता के अनुसार मैं भी भगवान हूँ। मेरे कई भक्त हैं, जो दुख में, अपनों से धोखा खाने के बाद, सभी जगह से ना सुनने के बाद मेरी शरण में आते हैं। वे स्वार्थवश ही मेरी शरण में आते हैं, ये जानते हुए भी मैं उनकी मनोकामना पूरी करता हूँ। 

मेरी जान-पहचान में मान्यतानुसार कई छोटे-मोटे (कद नहीं, योग्यतानुसार) भगवान हैं। वे चालाक भगवान हैं। चालाकी का तराजू साथ लेकर चलते हैं। वे अपने स्वार्थ के अनुसार अपने भक्तों की मनोकामना पूर्ण करते हैं। एक भगवान नफा-नुकसान तौल अपने भक्तों की मनोकामना पूर्ण करता है- इसके ‘रिकॉर्ड’ के अनुसार इसकी दस ग्राम मनोकामना पूर्ण करनी चाहिए। मेरी मनोकामना की फाइल को पास कराने के दौरान इसने दस ग्राम मदद की थी। दस ग्राम मदद से इसका हिसाब रफा-दफा कर देता हूँ। अगली बार आया तो बहाना बना दूँगा कि तराजू के दोनों पलड़ों का संतुलन बिगड़ गया है। तुम्हारी मनोकामना पूरी करने के दौरान ‘टेनी’ मार सकता हूँ। इस भगवान को भक्तों के चाल-चलन ने सौदागर बना दिया है। बिना लिए कुछ देता ही नहीं। कई भक्तों का तो सब कुछ ले लिया। दिया सिर्फ आश्वासन।

भक्तों के रिकॉर्ड की फाइल काँख में दबाकर रखने वाले मेरी जान-पहचान के भगवान मुझे चेताते हैं- इसका रिकॉर्ड ठीक नहीं है। अपनी स्वार्थ सिद्धि के बाद तुम्हें नहीं पहचानेगा। मैं उनकी चेतावनी का विष पी जाता हूँ। मैं ठगा जा रहा हूँ, ये जानते हुए भी मैं ठगे जाने के लिए तत्पर रहता हूँ – आय हाय, ठगा गया। हाय-हाय नहीं करता हूँ। आय-हाय भी तेरी अदाओं पर प्यार आता है वाले उच्चारण में करता हूँ। हाय-हाय उस दिन करूँगा जब ठगी से परिचित नहीं रहूँगा। वो कोई मौलिक ठग होगा, जो मुझे हाय-हाय करने पर मजबूर करेगा।

मेरी जान-पहचान का एक भगवान, जिसके पलने में ही तराजू रख दी गई थी, उसके पूत का पाँव पत्थर हो गया। उम्र बढ़ने के साथ संक्रमण पूरे शरीर में फैलता गया। नतीजा, पूरा शरीर पत्थर का हो गया। उसे आज तक कोई नहीं ठग पाया। उसने आज तक किसी को कुछ नहीं दिया। सिर्फ लिया। देने के नाम पर- तुम्हारी मनोकामना मेरा पूत पूरी करेगा। उसके आने का इंतजार करो। वो अपने भक्तों को कभी ना खत्म होने वाले इंतजार का भजन देता है। जिसे भक्त खुशी-खुशी गाते हैं। 

कभी ना खत्म होने वाले इंतजार का भजन देने वाले भगवान की तरह पत्थर का भगवान बनना बहुत आसान है। कोई भी बन सकता है। पहले मैं भी था। फिर मुझे अपनी लघुता का एहसास हुआ- संख्या बढ़ाने का क्या फायदा बे नाटे? अपना विराट रूप दिखाओ। तब मुझे सुख-दु:ख का भेद समझ में आया- जिसे तुम सुख मानकर उससे चिपके रहना चाहते हो, वो चेला है। जिसे तुम दु:ख मानकर हमेशा बचना चाहते हो, वो गुरु है। गुरु की शरण में जाओ। गुरु ने मेरे विराट रूप से मेरा साक्षात्कार कराया। तब से मैं ठगे जाने का सुख जिसे दु:ख की श्रेणी में रखा गया है, प्राप्त करने के लिए ठगों की राह देखता रहता हूँ। 

अपने गुरु दु:ख को सबसे छुपाए रखने के लिए मैं भी स्वार्थी बना। अपने गुरु को सब में बाँटने के पाप से बचने के लिए ‘दु:ख बाँटने से कम होता है’ के मंत्र का पालन करना बंद कर दिया। जब पत्थर का भगवान था, तब खूब बाँटता था। जो मेरी लघुता का कारण था। बाँटना बंद किया, तो विराट हुआ। इसीलिए अपनी जान-पहचान के भगवानों को छोटा-मोटा समझता हूँ। अपनी विशिष्टता के कारण अकड़ में रहता हूँ। इसलिए अपनी जान-पहचान के दूसरे भगवानों को नाटे साबित करने के लिए उनकी शिकायत भी करता हूँ। 

मेरे एक भक्त ने बताया- एक राज्य की सरकार ईश निंदा करने वालों को जेल भेजने की तैयारी कर रही है। मैंने भक्त की आशंका का निवारण किया- सरकार का कानून मनुष्यों के ऊपर लागू होता है। भगवान के ऊपर नहीं। मान्यताओं के अनुसार मैं भी भगवान हूँ। भक्त मिठाई का लालच चढ़ाकर मेरे आगे दंडवत हुआ- मेरा वो काम …….। मिठाई को लात मार मैंने तथास्तु कहा। 


दु:ख भले ही गुरु है, पर क्या चौबीसों घंटे गुरु से चिपके रहना उचित है? नहीं ना? मुंडी तो हिलाइए- नहीं। हिला दी? ठीक है। अब गुरु से दूर रहने का उपाय बताता हूँ। ठगे जाने के दु:ख से उबरने के लिए मैं शिकायत की शरण में चला जाता हूँ। 

बड़े बुजुर्ग कह गए हैं- स्वयं से बात करते रहो। सवा अरब मनुष्यों वाले देश में मानव जीवन के इस महाज्ञान को सिर्फ वाया शिकायतकर्ताओं ने आत्मसात किया। वाया प्रजाति के शिकायतकर्ता सभी शिकायतें खुद से ही करते हैं। शिकायत के कारण के पीठ पीछे करते हैं। रोडवेज बस संबंधित इनकी शिकायतें ड्राइवर के पीछे लगी शिकायत पेटी या उस पर लिखे टोल फ्री नंबर पर नहीं दर्ज होतीं। भारतीय रेल से संबंधित इनकी शिकायतें आरक्षण केंद्र, कोच अटेंडेंट या टीटी के पास रखी शिकायत पुस्तिका में भी दर्ज नहीं होती। स्वयं से बात करने की कला में निपुण होने से खुद से ही शिकायत कर वाया शिकायतकर्ता संतुष्ट हो जाता है।  

वाया शिकायतकर्ता ‘कर्म करो, फल की चिंता मत करो’ की जीवनशैली का पालन करता है। कोई सुने या ना सुने, फल मिले ना मिले, शिकायत कर्म पूरी लगन से करता है। उसे सुनकर लगता है कि ये लालच नामक दुर्गुण से मुक्त हो चुका है। उसे खुद से शिकायत करते सुन पारलौकिक सुख की प्राप्ति होती है। 

सबसे बड़े त्यौहार का समय है। रोडवेज की नॉन-स्टॉप बनारस-लखनऊ वाया सुल्तानपुर सेवा खचाखच भरी हुई है। खचाखच भरी सेवा में समाज सेवा से जुड़े भाई साहब खिड़की के पास बैठे हुए हैं। उनकी बगल में एक और भाई साहब बैठे हुए हैं। दोनों के बगल में एक तीसरे भाई साहब खड़े हैं। बस चलती है। थोड़ी दूर जाने के बाद सवारी उठाने के लिए रुक जाती है। रोडवेज द्वारा दी गई शुभकामना ‘आपकी यात्रा मंगलमय हो’ के साथ हो रहे खिलवाड़ को देख खिड़की के पास बैठे समाज सेवक भाई साहब आक्रोशित होकर खुद से शिकायत कर बैठते हैं- क्या मजाक लगा रखा है! फिर समर्थन की उम्मीद में लालायित नेत्रों से बगल में बैठे भाई साहब की तरफ देखते हैं। बगल में बैठे भाई साहब संतोषी प्रजाति के जीव हैं। वे समाज सेवक भाई साहब की शिकायत पर ध्यान नहीं देते। समाज सेवक द्वारा खुद से की गई शिकायत को समर्थन मिलता है तीसरे भाई साहब से, जो टिकट लेकर भी खड़े हैं। उनका शिकायतकर्ता होना लाजिम भी है। एक ही प्रजाति के दो जीव मिलते हैं और शिकायतों का पिटारा खुल जाता है।

थोड़ी देर में खड़े वाले भाई साहब खिड़की के पास बैठे समाज सेवक भाई साहब के सहयोग से सीट पर ‘एडजस्ट’ हो जाते हैं। एडजस्ट होने के बाद शिकायत दम तोड़ देती है। नॉन स्टॉप सेवा जहाँ सवारी उठाने के लिए रुकती, वहाँ शिकायत में जान आ जाती- इन लोगों ने सिस्टम का मजाक बना रखा है। दोनों की शिकायतों के बीच फँसा संतोषी प्रजाति का जीव मन ही मन कहता है- आपकी यात्रा मंगलमय हो। 

दूसरे सबसे बड़े त्यौहार का समय है। भारतीय रेल द्वारा त्यौहार पर ‘सबको घर पहुँचाना है’ का वादा किया गया है। सभी यात्री गाड़ियों में अतिरिक्त डिब्बे जोड़े गए हैं। फिर भी वातानुकूलित डिब्बों को छोड़कर सबका हाल साधारण डिब्बों की तरह हो गया है। मल्टीनेशनल कंपनी में टीम लीडर के पद पर कार्यरत भाई साहब नियत समय पर स्लीपर कोच में अपनी सीट पर पहुँचते हैं। टीम लीडर भाई साहब हर बार ए.सी. क्लास में यात्रा करते हैं, लेकिन इस बार मजबूरी में उन्हें स्लीपर क्लास में आर.ए.सी. के सहारे ‘सफर’ करना पड़ रहा है। अपनी सीट के आस-पास की भीड़ देखकर भाई साहब आदतन खुद से शिकायत कर देते हैं- शिट यार! कितना रश है। 

आर.ए.सी. सीट के दूसरे हिस्सेदार के कान में ईयरफोन लगा है। वो भाई साहब की शिकायत पर ध्यान नहीं देता। टीम लीडर भाई साहब द्वारा खुद से की गई शिकायत को तीसरे भाई साहब के कान पकड़ लेते हैं, जो बर्थ के पूरे पैसे देने के बाद भी वेटिंग टिकट के सहारे किसी बर्थ पर एडजस्ट होने का इंतजार कर रहे हैं। यहाँ भी एक ही प्रजाति के दो जीव मिलते हैं और शिकायत एक्सप्रेस चल पड़ती है। थोड़ी देर बाद ट्रेन भी चलती है। ट्रेन की गति बढ़ने के साथ शिकायत एक्सप्रेस भी सरपट दौड़ने लगती है। दो-तीन स्टेशन गुजरने के बाद वेटिंग की पटरी पार करने के लिए इधर-उधर देख रहे भाई साहब, आर. ए. सी. की पटरी पर बैठ शिकायत एक्सप्रेस को सरपट दौड़ा रहे टीम लीडर भाई साहब से थोड़ा खिसकने का आग्रह करते हैं। टीम लीडर भाई साहब काँखते हुए ऐसे खिसकते हैं, जैसे किसी ने पूरी रफ्तार के साथ दौड़ रही शिकायत एक्सप्रेस की जंजीर खींच दी हो। 

आर.ए.सी. का दूसरा हिस्सेदार संतोषी प्रजाती का जीव है। वो अपने पैर मोड़ लेता है और वेटिंग वाले भाई साहब का टिकट आर.ए.सी. हो जाता है। संतोषी प्रजाति का जीव कानों में ईयरफोन लगाए अपनी प्रेमिका को यात्रा के संस्मरण सुनाता रहता है। बीच-बीच में अपने-अपने घर जा रहे दोस्तों को हैप्पी जर्नी भी कहता रहता है। 

शिकायत का सुख बस की सीट से लेकर संसद की सीट का भी सुख प्रदान करता है। ट्रेन में भीड़ की शिकायत करने वाले को सीट मिल जाती है। नहीं भी मिलती तो कहीं न कहीं एडजस्ट हो ही जाता है। विपक्ष में शिकायतों का पिटारा लेकर बैठने वालों को सत्ता की सीट मिल जाती है। विपक्ष में रहकर एक पार्टी बहुत शिकायत करती थी। पार्टी के नेता प्रेस कांफ्रेंस में सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ शिकायतों का पुलिंदा दिखाते थे। लिखित शिकायत की तरह। लिखित शिकायत पर विश्वास जम गया। पार्टी की शिकायत में बहुमत भी शामिल हो गया। बहुमत में संतोषी प्रजाति वाले जीव भी शामिल हुए। शामिल होने के बाद बहुमत को समझ आया- वो सत्ता सुख दिलाने वाली शिकायतों का पुलिंदा था। ये समझ बहुमत दुखी होता है। फिर भी शिकायत नहीं करता। दु:ख से निजात पाने के लिए उसे भी शिकायत का सुख लेना चाहिए।

सत्ता की शिकायत का सबूत किसी पेटी विशेष में डालने की अनिवार्यता भी नहीं है। किसी भी ‘पब्लिक प्लेटफॉर्म’ पर डाल सकता है। कई पब्लिक प्लेटफॉर्म भी उपलब्ध हैं। उसे ये सोचकर सत्ता की शिकायत करने से पीछे नहीं हटना चाहिए कि वो भी बहुमत का हिस्सा है। या अपनी पसंद की शिकायत कैसे करूं? या सत्ता की शिकायत करने वाले जो बहुमत में शामिल नहीं हैं, वे मुझे चिढ़ाने लगेंगे। या उसकी शिकायत से सत्ता परेशानी में पड़ सकती है। ये सब सोचकर उसे शिकायत का सुख लेने से पीछे नहीं हटना चाहिए। मानस ग्रेवाल के अनुसार- दुनिया में कोई भी सरकार हो, वह सबसे ज्यादा इसी बात से डरती है कि कहीं लोग उस पर आरोप लगाना न छोड़ दें क्योंकि इसका एक ही अर्थ होगा- समुदाय का स्वावलम्बन और कोई भी सरकार इसके मायने बखूबी समझती है। 

सत्ता शिकायत का ही सुख ‘भोगती’ है। सत्ता चाहे तो एक दिन में ही सभी शिकायतों का अंत कर दे, पर ऐसा कर देने से उस पर नागरिकों की निर्भरता नाममात्र की हो जाएगी। या सत्ता की आवश्यकता ही खत्म हो जाए। सत्ता के लिए शिकायत का सुख छोड़ना उसके अंत की घोषणा है। दोबारा मनुष्य की स्वतंत्रता की शुरूआत है। अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए सत्ता शिकायत के अवसर उपलब्ध कराती है। शिकायतों को पाल-पोस कर बड़ा बनाती है। आदमखोर भी बना देती है। फिर उन्हीं आदमखोर शिकायतों को मिटाने के लिए अमुक सरकार की माँग भी करवाती है। 

अमेरिका शिकायत का सुख भोगने के मामले में भी नम्बर वन है। शिकायत का सुख भोगने के लिए वो आतंकवाद मिटाने के नाम पर दूसरे देशों पर बमबारी करता है। बमबारी के दौरान बेगुनाह भी मारे जाते हैं। पूरी दुनिया अमेरिका की शिकायत करती है। अमेरिकन भी करते हैं। बमबारी की शिकायत का सुख भोगते-भोगते अचानक सत्ता को याद आया- अमेरिकन दूसरे देशों की शिकायत में भी अड़ंगा लगा रहे हैं। इनके लिए घरेलू शिकायत उपलब्ध करानी पड़ेगी। तब ये मानेंगे। तो सत्ता ने अमेरिकन को डोनाल्ड ट्रम्प उपलब्ध करा दिया।


शिकायत का सुख लेने वालों से मैं भी प्रेरित हुआ। रोडवेज और ट्रेन में शिकायत का सुख लूटने वालों से मैंने कहा- भाई साहब! आप तो पढ़े-लिखे हैं। आपको कायदा-कानूनों के साथ हो रहे खिलवाड़ को रोकने के लिए लिखित शिकायत के सबूत देने चाहिए। आप तो जानते ही हैं- कानून सबूतों से चलता है। मेरी शिकायत से वे भड़क गए- तुम ही कर दो! मेरे शिकायत के सुख को उन्होंने जंगली घोषित कर दिया। मैं और खुश हुआ- जो सत्ता द्वारा घोषित अधिकारों को लेने से भी डरते हैं, वे अपनी स्वतंत्रता से कितना डरते होंगे? उनके लिए स्वतंत्रता के मायने वही हैं, जो सत्ता द्वारा तय किये गए हैं। जंगली घोषित किए जाने की खुशी गुरु दु:ख से साझा की। गुरु ने ज्ञान दिया- शिकायत की शिकायत मत करो। 

फिर भी मैंने सोचा- खुद से शिकायत या आपस में शिकायत करने की जगह अगर वे खचाखच भरी नॉन स्टॉप वाया सेवा के ड्राइवर से विरोध जता देते तो वो यहाँ-वहाँ रोक कर सवारी नहीं उठाता। उन्हें वाया शिकायत का सहारा लेने की भी जरूरत नहीं पड़ती। फिर वाया के बारे में सोचने लगा- उनकी कितनी शिकायत सोचूँ? बिना वाया के कोई काम ही नहीं होता। अपना व्यक्तिगत काम वाया जुगाड़ निकलवा लेने वाले सार्वजनिक या समूह का कार्य भी वाया जुगाड़ ही करवाना चाहते हैं। इसके लिए वे वाया शिकायत का सहारा लेते हैं। खुद को सामने नहीं लाना चाहते। पहचाने जाने से बचना चाहते हैं। तो वाया शिकायत की तलाश में सबसे शिकायत करते हैं- कोई तो सामने आकर दखल देने की हिम्मत करेगा।

सलीम जफर ठीक कहता है- पीठ पीछे कहने वाले सभ्य समझे जाते हैं। मुँह पर कह देने वाले असभ्य। उसको ये अनुभव दूसरों को इस्लाम के अनुसार चलने का रास्ता बताने और खुद किसी और रास्ते पर चलने वाले मौलानाओं से तकरीर कर मिला। तकरीर से नाराज मौलानाओं ने फतवा जारी कर दिया- जो इसके साथ हुक्का-पानी करेगा, वो काफिर होगा। 

सामाजिक बहिष्कार से बचने के लिए मैं भी पीठ पीछे कहने वाला सभ्य बन गया। मुँह पर कहने से बचने लगा। लिखना बचने की ढाल बन गया। लिखित शिकायत करने लगा (लिखित शिकायत से जो भी हासिल होगा, उससे भी लिखित रूप में अवगत कराऊँगा)। शिकायत के सुख का ही कमाल है कि मेरी लिखित शिकायतों के जो पात्र होते हैं, वे अपनी भी शिकायत पढ़कर कहते हैं- मजा आ गया।  

बाजारवाद के मालिकाने के दौर में जहाँ सुख भी खरीदना पड़ता है, वहाँ हमेशा दुखी रहने वाले को मुफ्त में कोई सुख मिले तो वो लेने से क्यों चूकेगा? मैं भी शिकायत का सुख लेने का कोई मौका नहीं छोड़ता। भले ही गुरु दु:ख ने ज्ञान दिया था- ‘शिकायत की शिकायत मत करो।’ मेरे लिखे को कोई और मारे, उससे पहले खुद ही मार देता हूँ।



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