मैं एक अध्यापक हूँ प्राइमरी स्कूल का। उत्तर प्रदेश में। मैं अपना नाम जान-बूझ कर नहीं लिख रहा हूँ। कारण आप जानते ही हैं। जिले का नाम कुछ भी हो सकता है- बलरामपुर, कानपुर या रामपुर। मेरी और मेरे जैसे हज़ारों लोगों की जान सस्ती है। सस्ती जान की कुछ कीमत होती होगी, हमारी वह भी नहीं है। इस समय मैं और मेरे जैसे हजारों अध्यापक और सरकारी कर्मचारी चुनाव ड्यूटी कर रहे हैं। चुनाव ड्यूटी इस देश में सबसे पवित्र और महत्त्वपूर्ण ड्यूटी मानी जाती है और हम सब उसे ऐसे ही मानकर पूरे मनोयोग से करते आ रहे हैं, लेकिन इस बार की स्थितियाँ भिन्न हैं।
देश महामारी जैसी स्थितियों से गुजर रहा है ऐसी स्थिति में संवैधानिक संस्थानों का दायित्वबोध कहां चला गया है। जो तंत्र जनता पर मास्क न लगाने और कोविड प्रोटोकाल का पालन न करने के कारण 1000 से लेकर 10000 रुपये तक का जुर्माना लगाने की व्यवस्थाएं बना रहा है उस पर क्या अपने कर्मचारियों के जीवनरक्षा का दायित्व नहीं बनता है? चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था आखिर अपने दायित्वों का निर्वहन करने में अक्षम क्यों साबित हो रही है।
तस्वीरें बयां कर रही हैं कि चुनाव कोई भी जीते, इस महामारी को हराना किसी के बस में नहीं रह जाएगा। आखिर व्यवस्था के नाम पर इतनी लापरवाही क्यों? इन कर्मचारियों के जीवनरक्षा न कर पाने अथवा उनका जीवन संकट में डालने का उत्तरदायित्व किसका है? मुआवजा कौन देगा? क्या इसकी भरपाई मुआवजे से संभव हो पाएगी? जब हमारे देश में ऑक्सीजन की कमी से रोज हजारों मौत हो रही हो तो ऐसी स्थिति में क्या चुनाव कराए जाने इतनी जरूरी थे; अगर जरूरी भी थे तो उसके लिए उचित बंदोबस्त क्यों नहीं किए गए। जिम्मेदार लोगों पर कार्यवाही क्यों नहीं की जानी चाहिए?
उत्तर प्रदेश में पंचायती राज के चुनाव हो रहे हैं और पिछले चरण में जो चुनाव हुए हैं, उसमें जगह-जगह से पीठासीन अधिकारियों के कोविड पॉजिटिव होने के समाचार आ रहे हैं। एक छोटे से प्राइमरी स्कूल में पूरे ग्रामसभा की जनता चुनाव के दिन आ जाती है और शाम के बाद फिर कोविड प्रोटोकाल का दिखावा शुरू हो जाता है। पश्चिम बंगाल में जो चुनाव हुए हैं उसके दुष्परिणाम आने शुरू हो गए हैं। उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में कोरोना का विस्फोट जब होगा तो क्या होगा, इसकी केवल कल्पना की जा सकती है। अभी केवल गोरखपुर, आजमगढ़, बनारस, लखनऊ, कानपुर, इलाहाबाद में लोग ऑक्सीजन और हॉस्पिटल बेड के लिए दौड़ रहे हैं और जब यह दृश्य उत्तर प्रदेश की ग्रामीण जनता के साथ घटेगा तब क्या होगा?
पिछले साल उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के पिताजी का देहांत हुआ तो उन्होंने कोविड प्रोटोकाल का पालन किया और अपने घर नहीं गए और आज वे पूरे प्रदेश में इस कोविड आपदा के समय चुनाव करवा रहे हैं। यह कौन सी बुद्धिमत्ता है? जो लोग पॉजिटिव होकर अपने घर जाएंगे वे और कितने लोगों को पॉजिटिव करेंगे, इस पर सोचने की जरूरत है। शहरों में जिनके पास चार पैसा है, उनके भी जान पर बन आयी है। उत्तर प्रदेश में ग्रामीण क्षेत्रों में अगर कोरोना का प्रकोप फैल गया तो उसमें प्रदेश सरकार का अनाज या कुछ हजार रुपये कुछ नहीं कर पाएंगे। सबसे पहले तो वे लोग प्रभावित होंगे जो इन चुनावों से वायरस का वाहक बनेंगे फिर सबसे गरीब लोग सबसे पहले संकट में घिर जाएंगे।
यह टिप्पणी उत्तर प्रदेश के एक सरकारी अध्यापक ने जनपथ को लिख कर भेजी है।