हाथरस में पुलिस एक बलात्कार की हुई औरत के घर की क़िलेबंदी कर
मीना कंडास्वामी की कविता रेप नेशन
उसकी लाश का अपहरण कर, उसे जला डालती है एक ख़ूनी रात को
बहरे कान नहीं सुनते उसकी माँ का दर्दनाक विलाप, उस देश में जहाँ
दलित न राज कर सकते हैं, न ही आक्रोश, और न ही रुदन
यह पहले भी हुआ है, यह आगे भी होगा।
सनातन, वो एकमात्र क़ानून जो उस देश में लागू है
सनातन, जहाँ कभी भी, कुछ भी नहीं बदलेगा
हमेशा, पीड़ित को दोषी ठहराता कुलटा-फ़रमा
बलात्कारियों को शह देती पुलिस-सत्ता, जातिवाद को नकारती प्रेस
यह पहले भी हुआ है, यह आगे भी होगा।
मीना कंडास्वामी की कविता रेप नेशन के यह रूह कंपाने वाले शब्द हमें याद दिलाते हैं उस जातिवादी बर्बरता की, जिसके चलते उत्तर प्रदेश के हाथरस ज़िले में ठाकुर समुदाय के चार पुरुषों ने एक उन्नीस बरस की दलित महिला के साथ नृशंस सामूहिक बलात्कार करके उसे मौत के हवाले कर दिया। जातिवादी हिंसा में पला यह जघन्य अपराध सिर्फ़ यहीं नहीं थमा, बल्कि जांच के दौरान पुलिस और उच्च जातियों की पूरी शह पाकर अमानवीयता की सारी हदें लांघता चला गया।
यही नहीं, पिछले एक माह में उत्तर भारत के कई इलाक़ों से बलात्कार और हत्याओं के ऐसे तमाम केस एक के बाद एक सुर्ख़ियों में आते चले गए हैं, एक बार फिर इस निर्मम सत्य के गवाह बनकर कि दलित महिलाओं के ख़िलाफ़ जो अत्याचार एक सदियों पुरानी हिंसक व्यवस्था के अंतर्गत चले आ रहे हैं उन्हें आज के अतिवादी हिंदुत्व का आतंकवाद किस हद तक पाल-पोस कर बढ़ावा देता चला जा रहा है।
पिछले एक महीने के भीतर भारत के तमाम हिस्सों में घटित इन भयावह बलात्कारों और हत्याओं की वारदातों ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को हिला कर रख दिया है। भगवा आतंकवाद के अंतर्गत दलितों, और ख़ासकर दलित महिलाओं, के ख़िलाफ़ हो रहे इन अकल्पनीय अत्याचारों को धिक्कारने के लिए संयुक्त राज्य अमरीका (यू. एस. ए.), कनाडा, यूरोप, यूनाइटेड किंगडम, दक्षिण अमरीका, अफ़्रीका, और एशिया-पैसिफ़िक के तमाम अकादमिकों, व्यावसायिकों, और साधारण नागरिकों ने अपनी आवाज़ भारत के जन आंदोलनों के साथ जोड़ते हुए एक पेटीशन जारी किया है। इस अंतर्राष्ट्रीय याचिका में इन बर्बर अत्याचारों की कड़े शब्दों में निंदा करते हुए मांग की गयी है कि जिन सवर्ण पुरुषों और पुलिस ने हाथरस में, और हाल की सभी वारदातों में, जघन्य अपराध किये हैं उनके ख़िलाफ़ तुरंत क़ानूनी कार्यवाही की जाये और साथ ही सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों पर हो रहे हमले और हर प्रतिवाद को कुचलने वाले राज्य दमन पर तुरंत रोक हो।
इन मांगों को सामने रखते हुए हम यह भी भली-भाँति समझते हैं कि न्याय की खोज केवल उन सत्तावादियों के भरोसे पूरी नहीं हो सकती जो ख़ुद ताक़तवरों के हित के लिए काम कर रहे हैं। यदि हम सही मायनों में दलित, मुस्लिम, आदिवासी, और कश्मीरी समुदायों के लिए ही नहीं बल्कि उन सबके लिए न्याय चाहते हैं जिनको इस वक़्त ज़बरन ख़ामोश किया जा रहा है तो हमें भारत में जाति प्रथा के विध्वंस तथा आक्रामक पूंजीवाद के उन्मूलन के लिए संघर्ष करना ही होगा।
इस याचिका को 1800 से अधिक हस्ताक्षरकर्ताओं का समर्थन मिला है, जिनमें विश्व के जाने-माने सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता, प्रख्यात दलित और ब्लैक बुद्धिजीवियों के साथ-साथ दक्षिण एशियाई अध्ययन तथा क्रिटिकल रेस स्टडीज़, महिला अध्ययन, और फेमिनिस्ट स्टडीज़ के विख्यात विद्वान शामिल हैं। प्रमुख हस्ताक्षरकर्ताओं में एंजेला डेविस, ग्लोरिया स्टाइनेम, मॉड बारलो, बारबरा हैरिस-व्हाइट, चंद्रा तलपदे मोहंती, अर्जुन अप्पादुरई, शैलजा पाइक, सूरज येंगड़े, रॉड फ़र्गुसन, कैथरिन मैककिट्रिक, मार्गो ओकाज़ावा-रे, लाउरा पुलीदो, हुमा दार, निदा किरमानी, और मीना ढांडा जैसे नाम मौजूद हैं। इनके साथ ही हैं कई अंतर्राष्ट्रीय संगठन, मसलन, दलित सॉलिडेरिटी फ़ोरम इन द यू. एस. ए., नेशनल विमेंस स्टडीज़ एसोसिएशन (NWSA), SEWA-AIFW (एशियन इंडियन फ़ैमिली वैलनेस), कोड पिंक, विमेंस लीगल एंड ह्यूमन राइट्स ब्यूरो-क्यूज़ोन सिटी, और कई नामी पत्रिकायें और अकादमिक जरनल, जैसे — ‘एंटीपोड’ (Antipode: A Radical Journal of Geography), ‘फ़ेमिनिस्ट स्टडीज़’ (Feminist Studies), और ‘एजिटेट’ (AGITATE: Unsettling Knowledges)। यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिनेसोटा-मिनियापोलिस के जेंडर, वीमेन, एन्ड सेक्सुअलिटी स्टडीज़ सहित कई प्रख्यात अकादमिक संस्थानों के विभागों और कार्यक्रमों ने भी याचिका पर हस्ताक्षर किए हैं, जिनमें ओहायो स्टेट यूनिवर्सिटी का विमेंस, जेंडर, एंड सेक्सुअलिटी स्टडीज़ विभाग और यूनिवर्सिटी ऑफ़ मैसाचुसेट्स-बोस्टन का विमेंस, जेंडर, एंड सेक्सुअलिटी स्टडीज़ विभाग और ह्यूमन राइट्स प्रोग्राम शामिल हैं।
आज के ऐसे ऐतिहासिक क्षण में जब मिनियापोलिस में एक श्वेत पुलिस अधिकारी द्वारा जॉर्ज फ्लॉयड की नृशंस हत्या ने यू.एस.ए में ब्लैक लाइव्स मैटर आन्दोलन को एक नई आग से भर दिया है, भारत में हुए दलित महिलाओं के बलात्कार और हत्याओं को लेकर विश्व भर में लाखों प्रदर्शनकारी उठ खड़े हुए हैं। भारत में हिंसक हिंदुत्व द्वारा रचे पुलिस राज के ख़िलाफ़ और उसकी अमानवीय हिंसा के पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए दुनिया भर से माँग आ रही है। याचिका ने इस चर्चा को भी आगे बढ़ाया है कि इस समय और काल में वैश्विक एकजुटता का क्या महत्व है और उसका क्या स्वरूप हो। इस याचिका में अकादमिक संस्थानों से आयी एकजुटता की ज़ोरदार अभिव्यक्तियाँ बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इन संस्थानों में लगातार सिलसिलेवार ढंग से उत्पीड़ित समुदायों को बहिष्कृत करने वाली उन प्रथाओं का निर्माण होता आया है जिनके माध्यम से योग्यता उच्च-जाति की संपत्ति या अधिकार बन जाती है।
प्रख्यात ब्लैक दार्शनिक और राजनीतिक कार्यकर्ता एंजेला वाई. डेविस ने इस याचिका का समर्थन करते हुए एक प्रभावशाली वीडियो बयान दिया है, जिसमें उन्होंने श्वेत वर्चस्व और जातिवादी-ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के ख़िलाफ़ वैश्विक आक्रोश के इस समय में सार्थक अंतरराष्ट्रीय एकजुटता को बनाने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया है। साथ ही, ‘ब्लैक लाइव्स मैटर,’ ‘दलित लाइव्स मैटर,’ और ‘मुस्लिम लाइव्स मैटर’ नारों को दोहराते हुए उन्होंने उन कड़ियों पर हमारा ध्यान केंद्रित किया है जो हमें न्याय और मानव गरिमा के लिए किये गए लम्बे संघर्षों की याद दिलाती हैं। एंजेला डेविस ने इन समुदायों के बीच बने उन ऐतिहासिक संबंधों की ओर इशारा किया है जिनकी नींव उस समय पड़ी थी जब अमरीका में दास-प्रथा प्रचलित थी। साथ ही, उन्होंने ब्लैक अमरीकियों से दलित महिलाओं पर हो रही नस्लवादी, यौनिक, और जातिवादी हिंसा के ख़िलाफ़ रोष व्यक्त करने का आग्रह किया है।
इसी समन्वय के मनोभाव की गूँज नेशनल फ़ेडेरेशन ऑफ़ दलित वीमेन (NFDW) की अध्यक्ष, रूथ मनोरमा के वीडियो बयान में भी सुनाई देती है। इस बयान में रूथ मनोरमा ने भारत में दलित महिलाओं द्वारा अनुभव किए गए शोषण और उत्पीड़न को ऐतिहासिक और संरचनात्मक जातिवाद के संदर्भ में समझाया है और ब्लैक अमरीकियों और दलितों से नस्लीय और जातीय भेदभाव के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए एकजुट होने का आह्वान किया है।
अन्य हस्ताक्षरकर्ता एक गहरी चिंता साझा करते हैं कि दलित महिलाओं को निशाना बनाकर किये गए बलात्कार और हत्या के मामले एक ऐसे सत्तावादी शासन के लक्षण हैं जो बुद्धिजीवियों, छात्रों, लेखकों, कलाकारों, तथा नागरिक स्वतंत्रता के लिए सक्रिय वकीलों और कार्यकर्ताओं को तेज़ी से गिरफ़्तार कर रहा है; जो भारत के मुस्लिम नागरिकों पर लक्षित एक प्रमुख संवैधानिक संशोधन के ख़िलाफ़ असंतोष व्यक्त करने वालों का व्यवस्थित ढंग से पीछा कर रहा है; और जो भारत द्वारा कश्मीर के क़ब्ज़े का विरोध करने वालों पर मुक़द्दमे चला रहा है। यह कट्टर सत्तावाद और दमन इस भयानक सच्चाई की पुष्टि करते हैं कि भारतीय राज्य अब खुले तौर पर एक हिंसक हिंदुत्व और जातिवादी व्यवस्था को बढ़ावा दे रहा है – यह व्यवस्था उन्हीं समुदायों को अपनी लूट, बलात्कार, और अपमान का केंद्र-बिंदु बना रही है जो पहले से ही उत्पीड़ित हैं, जिनकी भूमि छीनी जा रही है, और जिनकी सामुदायिक पहचान तथा मानवाधिकारों का बराबर हनन हो रहा है।
हस्ताक्षरकर्ताओं द्वारा रेखांकित वैश्विक एकजुटता की ज़रुरत से यह साफ़ है कि हाथरस की घटना को दलितों के ख़िलाफ़ राज्य-संघटित हिंसा का एक और मामला बनाकर क़तई ख़ारिज नहीं किया जा सकता। धार्मिक अध्ययन के विद्वान, क्रिस्टोफ़र क्वीन, ने याचिका पर दी अपनी टिप्पणी में नस्ल और जाति पर आधारित हिंसा के बीच की समानता की ओर ध्यान आकर्षित किया है:
जिस तरह संयुक्त राज्य अमेरिका में हिंसक नस्लवाद को भ्रष्ट अधिकारियों और क्रूर नागरिकों द्वारा शह दी जाती है, ठीक उसी तरह लोकतांत्रिक संस्थाओं और मानवीय मूल्यों को बनाए रखने का दावा करने वाला भारत दलित नागरिकों, विशेषकर महिलाओं और लड़कियों, के साथ क्रूरतापूर्ण बर्ताव के कारण आज अपनी ही दुर्दशा करने में जुटा है।
अमेरिका में जॉर्ज फ़्लॉयड की हत्या और भारत में दलित महिलाओं के हाल के बलात्कारों और हत्याओं से आज अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भीषण आक्रोश फैला हुआ है। वक़्त की मांग है कि दुनिया-भर के लोग आज नस्लवादी और जातिवादी पितृसत्तात्मक पूंजीवाद की संरचनाओं को खत्म करने के लिए एक साथ अपनी आवाज़ बुलंद करें।
अंत में, हम दलित और मूलवासी अध्ययन की विदुषी रोजा सिंह की बात को अंगीकार करते हैं:
जातिवाद और जातिवादी यौन हिंसा की इस बढ़ती महामारी के दौर में हम सब एक मानव समुदाय के रूप में एकजुटता खोजने में सक्षम हैं। हम अपनी सामूहिक आवाज को बुलंद करते हुए पुकारते हैं- दलित लाइव्स मैटर! हमें दलित महिलाओं के साथ हो रहे अत्यंत दर्दनाक उत्पीड़न के सच को स्वीकार करना होगा, हमें उस अमानवीयता को महसूस करना होगा जिसके तहत दलित महिलाओं के साथ बलात्कार हुए हैं और उनका अंग भंग करके उन्हें जलाया गया है। आज, एक वैश्विक आंदोलन के रूप में, हम इन्हीं दलित महिलाओं की राख से उठकर सभी इंसानों के लिए दृढ़ न्याय और उनकी मानव गरिमा के लिए अपनी आवाज़ मज़बूत करते हैं! ब्लैक अमेरिकी कवियित्री जून जॉर्डन के शब्दों में कहें तो, ‘वी आर द वन्स वी हॅव बीन वेटिंग फ़ॉर’ (हम ही वो हैं जिनका हम इंतज़ार करते आये हैं)।
ICWI की प्रेस विज्ञप्ति