चमोली हादसे पर अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक समूह के कुछ शुरुआती निष्कर्ष

एक उल्लेखनीय साझे प्रयास में पर्वतों पर ग्लेशियर और पेराफ्रॉस्ट से जुड़े खतरों को समझने वाले एक अंतर्राष्ट्रीय और भारतीय वैज्ञानिकों के समूह ने उत्तराखंड में बीती 7 फरवरी को आयी आपदा के कारणों का आकलन किया है। उनके इस आकलन में तमाम महत्वपूर्ण बातें सामने आयीं हैं जो कि हमारी पर्वतीय आपदाओं के बारे में समझ को बढ़ाती हैं।

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पंचतत्व: विकास को संतुलन चाहिए और चैनलों को विज्ञान रिपोर्टर वरना ग्लेशियर ‘टूटते’ रहेंगे!

ग्लेशियर, मोरेन और ग्लेशियर लेक आउटबर्स्ट फ्लड (जीएलओएफ) के बीच के अंतर को बताते हुए अगर रिपोर्टिंग होती तो लगता कि पर्यावरण को लेकर हमारा मीडिया साक्षर है. ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे टीवी चैनलों को विज्ञान रिपोर्टरों की सख्त जरूरत है.

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योजनाकारों, ठेकेदारों, नेताओं, सरकारों द्वारा आमंत्रित आपदा में शहीद हुए लोगों के लिए एक शोक वक्तव्य

ग्लेशियर टूटने की बात जमकर के प्रचारित हो रही है, किंतु हिमालय की नाजुक पारिस्थितिकी में इतनी बड़ी परियोजनाओं को बनाने की, अनियंत्रित विस्फोटकों के इस्तेमाल की, जंगलों को काटने की, पर्यावरणीय कानूनों व नियमों की पूरी उपेक्षा पर न सरकारों का कोई बयान है न कहीं और ही चर्चा हुई।

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क्या टल सकती थी चमोली में ग्लेशियर फटने से हुई तबाही?

साल 2019 के इस अध्ययन में साफ़ कहा गया है कि भारत, चीन, नेपाल और भूटान में 40 वर्षों के उपग्रह अवलोकन से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन हिमालय के ग्लेशियरों को खा रहा है।

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