कुछ समय पूर्व एक फिल्म देखी थी, कंचनजंघा। यूं तो मैं अधिक फिल्में नहीं देखती। जो कुछ मित्रों द्वारा सुझा दी जाती हैं उनमें से भी चुन-चुन कर देख लेती हूँ, लेकिन यह फिल्म मेरे पथ पर स्वयं प्रदर्शित हुई थी। वह भी तब जब मेरे मन में घनघोर बादलों का डेरा था। सत्यजीत रे की बनायी इस फिल्म को देखने का निर्णय मैंने यह पढ़कर लिया था कि इस फिल्म की नायिका के मन में शंका के बादल छाए हुए हैं और वो जो अपने परिवार के संग कंचनजंघा का शिखर देखने निकली है वो तब तक नहीं दिखता जब तक उसके मन के बादल नहीं छँट जाते।
आह! प्रकृति और मानव मन का ये सुंदर ताना-बाना मुझे सदैव ही अपने ओर खींच लेता है, वो कहते हैं ना जो भीतर है वही तो बाहर है। भले ही शहरी वातावरण में यह मानवीकरण अतिशयोक्ति सा प्रतीत हो सकता है। वहां हम स्वयं को बाहर और भीतर में विभाजित पाते हैं, जो कि एक द्वंद्व मात्र है। शहरों में धूल है तो देखो मन में भी तो धूल है, खैर!
फिल्म सूट-बूट पहने एक उम्रदार आदमी से शुरू होती है। वह चिन्तित दिखता है मगर दिखाता है कि मैं बढ़िया कर रहा हूं। उस दृश्य में वो कहीं जाने से पहले व्यवस्था, समय इत्यादि की पकड़ बनाने की हड़बड़ी में था। मुझे लगा- अरे! यह क्या देख रही हो, छोड़ो ना! हमेशा ही होता है ऐसा… जैसे ही शुरू करो तो बेकार ही होगा, समय बर्बाद होगा जैसी बातें मन को उकताने लगती हैं और सच मानिए ऐसा कितना कुछ मैंने छोड़ा है। खैर, भला हो आलस का मैंने यूट्यूब बंद नहीं किया और फिल्म बड़े अजीब ढंग से आगे बढ़ी। ओके, इस तरह तो मैं कहानी बहुत हद तक बता दूंगी क्योंकि ये रिव्यू नहीं है ये उन क्षणों का यात्रावृत्तांत है।
हां, तो फिर एक कमरे का दृश्य आया, उसमें एक आदमी जो सुबह उठते ही सिगरेट पी रहा है और पास रखी पत्रिकाओं को टटोल रहा है। एक औरत है जो श्रृंगार कर रही है। वे मियां-बीवी हैं ऐसा मुझे समझ आ गया। उनके बीच एक वैचारिक टेंशन है जो उदासीनता सी दिखती है मगर है नहीं क्योंकि वे लगातार संवाद में हैं। मुझे इस दृश्य ने और परेशान कर दिया। ये क्या चल रहा है! ये आदमी सिगरेट पी रहा है इसकी बीवी को इसकी उम्र की चिंता नहीं। नहीं तो न सही मगर लगातार के संवाद में कोई नोक-झोंक कोई गरमा-गरमी नहीं! ये तो अतिसाधारण है! ये फिल्म नहीं है, बंद करो। पर भला हो आलस का…
खैर, मुझे बहुत कुछ याद नहीं वो क्या बोल थे, फिर एकाएक कैसे अन्य किरदार सामने आए, फिल्म आगे बढ़ी। एक लड़की जिसकी शादी होने वाली है वो ही नायिका है ऐसा मुझे आभास हुआ क्योंकि हर किसी को उसी की फ़िक्र है। मालूम हुआ जिस लड़के से उसकी शादी की बात चल रही है वो भी सिक्किम आया हुआ है और यह कोलकाता में बसा एक व्यापारी परिवार है जो कंचनजंघा के दर्शन के साथ-साथ होने वाले दामाद को भी मिलवा देना चाहता है लड़की से। कोई बड़ी बात तो नहीं, मुझे लगा था नायिका के मन की दुविधा कुछ महान किस्म की होगी जैसे दुनिया कैसे बचायी जाए टाइप! पर फिल्म आगे बढ़ती है, बहुत ही धीमे! असल में, मेरे जैसे लोगों को बहुत तेज दौड़ती-भागती चीजों से थोड़ी दुविधा होती है क्योंकि हम कदम-कदम पर जीते हैं। यह भी वजह थी कि अब तक एक भी किरदार से न जुड़कर भी मैं फिल्म की गति-ध्वनि से जुड़ गयी थी। खैर…
अब वो लोग कंचनजंघा दर्शन पर निकलने को तैयार हैं। जैसे ही वो आदमी जिससे फिल्म शुरू हुई थी अपनी बीवी के साथ- जो आश्चर्यजनक ढंग से बहुत ही सुलझी, शांत और सामान्य रूप से परिपक्व महिला लगती है- बाहर निकलने को ही होते हैं कि एक आदमी (सड़क से जाता हुआ) छींक देता है। और व्यापारी रुक जाता है। बीवी को भी रोक देता है। अपशकुन को टालने के लिए उसका मुआयना करता है! यहीं पर मुझे पहली बार लगता है कि चलो देख लेते हैं, लगता है बढ़िया फिल्म है।
जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है पता चलता है कि कमरे वाले व्यापारी के बहू-बेटे हैं, उनकी एक बच्ची भी है। व्यापारी का एक जिन्दादिल साला है अधेड़ उम्र का। वो विधुर हो चुका है। उसकी बीवी उसका साथ देने वाली मगर एक कुशल महिला है जो बहुत हद तक आध्यात्मिक जगत से ताल्लुक रखती है और उसकी छोटी बेटी की शादी की बात टल रही है। वो अभी बीए कर रही है मतलब बहुत छोटी है। शादी जैसा बड़ा फैसला करना है और फैसला सच में उसे ही करना है। इसमें कोई ढोंग, कोई दिखावे की बात नहीं है। यह बात गौर फरमाने वाली है।
व्यापारी के आस-पास के लोग अपनी निजी उलझनों में उलझे हुए हैं। सभी व्यथित हैं धुंध से। बेटे-बहू के बीच एक रहस्य ने बल दिया हुआ है। महिला (बहू) अपने पूर्व प्रेमी के साथ चल रहे पत्राचार को लेकर परेशान है कि वो उसे छोड़े या अपने परिवार को और आदमी इस बात से कि आखिर बात क्या है, मुख्यतः संवाद की कमी है। बच्ची को देखकर ही दोनों एक-दूसरे को देखते हैं नहीं तो इस घुटन से उकत्ता चुके हैं। फिर वह लड़की जिसको फैसला लेना है वो किसी चीज़ से उत्साहित ही नज़र नहीं आती, बस दिखाए गए रास्ते पर चल रही है। माँ की चिंता है कि वो जानती है उसकी बच्ची ने अभी जीवन का आनंद ही नहीं लिया है, वो अभी उसे पढ़ाना चाहती है, समय देना चाहती है और उसे समझ नहीं आ रहा है कि वो ये कैसे करे। तो वो अपने भीतर उलझती जा रही है। उसके पति को तो सब पता है। यही सही है। यही होता है। वो लड़का जो मिलने आया है वो ही दुनिया का बेहतरीन लड़का है, सब एकदम स्पष्ट है, बस कहीं कुछ गलत न हो जाए इतना ही डर है!
खैर, वो लड़का जो आया है वह जूनियर व्यापारी है। उसे भी अपने आप पर विश्वास है और वो लड़की को खासा पसंद करता है। यहां पर मुझे लगा कि क्या वो लड़की को पहले से जानता था? सच कहूं तो मुझे मालूम है वो उसे जानने का इच्छुक ही नहीं था। वो बस यह जानता था कि वो एकदम खाली-खाली सी लड़की है जिसका व्यक्तित्व अभी विकसित नही हुआ है इसलिए उसके लिए उत्तम है। परन्तु वह गलत है। उस लड़की का मन जो अभी देश-दुनिया से रूबरू हो रहा है किसी भी और से अधिक स्वयं में रुचि रखता है। इसलिए तो वह परेशान है कि आखिर मैं विवाह का सौदा किन मापदंडों पर करूं?
एक लड़का और है, इतिहास पढ़ा हुआ। वो व्यापारी के किसी जानकार का भतीजा है जो इत्तेफाकन व्यापारी से जा मिले हैं। चचा ने व्यापारी से भतीजे की नौकरी की सिफारिश लगा दी है। यह लड़का एकदम साधारण सी वेशभूषा वाला नौजवान है, सिफारिश की बात उसे पसंद नहीं आयी, कई दृश्यों में सड़क किनारे डूबा हुआ वह घाटी को देखता दिख रहा है। सोचती हूं इसे भी भीतर गोते खाने की आदत है। लड़की से मिलने पर क्या पढ़ती हो जैसी बातें होने लगती हैं और वह लड़की बड़ी सहजता से उससे बात करती है। इसके मुझे दो कारण दिखते हैं- एक तो वह लड़का कोई भारी-भरकम निवेश नहीं है भविष्य हेतु, उसमें मित्रता जैसे सहज संबंध की गुंजाइश है और वह पढ़ने-लिखने का शौकीन है जो शौक उस लड़की में नया-नया जागा है जबकि जूनियर व्यापारी जब भी मुँह खोलता है अपनी सफलताओं के पुल बाँधता है। लड़की की पसंद-नापसंद उससे कोसो दूर है वो तो प्रेम में पड़ना चाहती है जिसके लिए उसे गहराई चाहिए। ये मेरा पूर्वाभास भी हो सकता है।
जब व्यापारी अपनी बेटी और इतिहास पढ़ने वाले इस लड़के की घनिष्ठता को लड़की और जूनियर व्यापारी के बीच आते देखता है तो उस लड़के को अपने पास बुला लेता है। वह लड़का कुछ देर उनके साथ रहता है। अनुभव और ओहदे की कद्र उसके व्यक्तित्व में दिखती है परन्तु कुछ बातें करते-करते व्यापारी स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों से लोहा लेने वालों पर अत्यंत सतही टिप्पणी करते हुए बोलता है- वो लोग क्या काम आए? देखो, मैंने व्यापार किया, अर्थव्यवस्था सम्भाली, आज भी रोजगार बना रहा हूं… और इतना कहते ही उस लड़के को नौकरी का ऑफर दे देता है जिसे वह लड़का क्षण भर में ठुकरा देता है! आह! मैंने ऐसा नहीं सोचा था।
भले ही व्यापारी के अहंकार भरे बोल मेरे सीने में खंजर से उतरे थे पर 50 रूपये का ट्यूशन पढ़ाने वाला वह लड़का जिसके स्वाभिमान पर समस्त अर्थव्यवस्था कलंक लगा रही है वो नौकरी ठुकरा देगा ये मुझे बहुत साहसिक लगा और शायद व्यापारी को भी जो भौंचक रहकर वहां से चला गया। वह लड़का फिर अपने आप में डूबा बैठ गया- पहाड़ों में जो पगडंडियाँ सड़कों पर खुलती हैं उनमें से एक पर जाकर। वहां अचानक वह लड़की पहुँच पड़ी। उसने लड़के से मायूसी का कारण पूछा, तो वो बोला- ”पता नहीं क्यों मैंने नौकरी का ऑफर ठुकरा दिया; मैं शहर में होता तो इसे कभी नहीं ठुकराता लेकिन यहां कुछ अलग वातावरण ने मुझे मेरे करीब कर दिया है।”
तभी जूनियर व्यापारी वहां पहुँचता है और उसे अब दिखने लगा है कि लड़की उससे अधिक उस लड़के में रुचि रखती है इसलिए अब वह सीधे प्रश्न कर देता है लड़की से जिसमें उसे हताशा हाथ लगती है और वह कहता है- ”तुम अभी अंतिम उत्तर मत दो, कलकत्ता पहुँच कर देना। शायद, वहां तुम्हें महसूस हो कि जीवन जीने के लिए जरूरी क्या सब है।” इसका उस लड़की पर कुछ ऐसा प्रभाव पड़ता है मानो कोई बोझ उठ गया हो सिर से।
वो कबीर का भजन है न, ”…भला हुआ मेरी गगरी फूटी…!”
उसकी बच्चों सी चहक लौट आती है। वो लड़के से कहती है- तुम मुझसे मिलने घर आना जब कलकत्ता में होंगे। उसके पिता को नौकरी के लिए मना कर चुका वह लड़का बोलता है- अरे, मुझे कोई रोकेगा तो? वो तपाक से बोलती है- नहीं नहीं, मेरे घर में मेरे मित्रों के आने पर कोई पाबंदी नहीं।
मानव मन और आधुनिक उहापोह के बीच बह रही दलदली धारा को साफ करती यह फिल्म मेरी दृष्टि में बेहद खास है। अपने व्यक्तित्व के ऊपर तथाकथित व्यवहारिकता को चुनना हमारे शहरी जीवन में आम बात है। किरदारों का प्रकृति की खामोश विशेषता से मंत्रमुग्ध हो जाना और अपने हृदय के तट को छू लेना मुझे बेहद खूबसूरत लगा।
लड़की की माँ एक दृश्य में जब अतिव्याकुल हो उठती है तो एक गीत गाती है। इस गीत से हम सभी को सीख लेनी चाहिए।