भारत में लगभग 12 करोड़ लोग विभिन्न आदिवासी समूहों से हैं। इनमें से अधिकांश को कोई न कोई स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां हैं। भारत में मलेरिया के कुल प्रकरणों में लगभग एक-तिहाई आदिवासी बहुल इलाकों में से आते हैं। वर्ष 2018 में स्वास्थ्य एवं आदिवासी मामलों के मंत्रालयों द्वारा गठित एक विशेषज्ञ समिति ने आदिवासी स्वास्थ्य को लेकर सौंपी गई रिपोर्ट में कहा था कि बड़ी संख्या में आदिवासी कुपोषण से पीड़ित हैं। रिपोर्ट में कहा गया था कि शहरीकरण, पर्यावरणीय असंतुलन और चुनौतीपूर्ण जीवनशैली के चलते आदिवासी समुदायों में कैंसर, उच्च रक्तचाप और डायबिटीज जैसी बीमारियों में भी वृद्धि हो रही है। रिपोर्ट के अनुसार आदिवासियों को मानसिक स्वास्थ्य से भी जूझना पड़ रहा है। साथ ही इस रिपोर्ट को बनाने वाले विशेषज्ञों ने इस समुदाय में तेजी से बढ़ते तपेदिक (टीबी) को लेकर भी चिंता जाहिर की थी। इस रिपोर्ट के अनुसार प्रति 1000 आदिवासियों में 7.03 को तपेदिक है।
लगभग तीन साल बाद चेन्नई स्थित राष्ट्रीय क्षय रोग अनुसंधान संस्थान द्वारा किए गए अध्ययन ने भी इस बात की पुष्टि की है कि आदिवासी समुदायों में पल्मोनरी टीबी के प्रसार में वृद्धि हुई है। अप्रैल 2015 से मार्च 2020 के मध्य हुए इस अध्ययन की रिपोर्ट इसी माह आई है। देश के 17 विभिन्न राज्यों के 88 गांवों में यह अध्ययन किया गया था। इसके लिए जिलों का चयन किए जाते समय इस बात का ध्यान रखा गया था कि वहां आदिवासियों की आबादी 70 प्रतिशत से अधिक हो। रिपोर्ट बतलाती है कि कुपोषण, धूम्रपान और शराब का बड़े पैमाने पर चलन इस समाज में पल्मोनरी टीबी का प्रमुख कारक है। राष्ट्रीय स्तर पर प्रति 1000 व्यक्तियों में 3.5 ही इस बीमारी से पीड़ित होते हैं। वहीं आदिवासियों में यह आंकड़ा प्रति 1000 व्यक्तियों में 4.32 का है।
विभिन्न राज्यों में यह आंकड़ा अलग-अलग है। जम्मू कश्मीर में प्रति 1000 आदिवासियों में 1.27 ही इस बीमारी की चपेट में आते हैं, वहीं ओडिशा में यह संख्या 8.03 है। इस अध्ययन के आंकड़े वर्ष 2018 में सौंपी गई रिपोर्ट से मेल नहीं खाते, मगर हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि जहां रिपार्ट को तैयार करने में व्यापक जानकारी एकत्र की गई थी वहीं अध्ययन का स्वरूप बेहद छोटा है। कुल 92,038 चयनितों में से 74,532 को ही इस अध्ययन में शामिल किया गया था।
Executive_Summaryमध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में फैले बुंदेलखंड में कार्यरत डॉ. जीडी वर्मा का कहना है कि टीबी से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले तबके में एक बड़ी संख्या आदिवासियों की है। जन स्वास्थ्य अभियान और बुंदेलखंड जीविका मंच से जुड़े डॉ. वर्मा टीबी मरीजों का राष्ट्रीय रजिस्टर बनाने की वकालत भी करते हैं। वे बताते हैं कि इसके अभाव में टीबी के मरीजों- जो अधिकांशतः प्रवासी मजदूर होते हैं- की उचित निगरानी और इलाज नहीं हो पाता। खनन श्रमिकों के मध्य कार्यरत एक संगठन- जो अपनी पहचान जाहिर नहीं करना चाहता- के मुताबिक सरकार को चाहिए कि वह ऐसे उद्योगों, जहां प्रचुर मात्रा में धूल और बारीक खनिज कण उड़ते रहते हैं, में काम करने वाले सभी व्यक्तियों की पहचान सुनिश्चित करते हुए उनका नियमित तौर पर स्वास्थ्य परीक्षण करवाए। ऐसे उद्योगों में काम करने वाले अधिकांश को सिलिकोसिस और न्यूर्माकोनियोसिस सरीखी बीमारी होती ही हैं।
डॉ. वर्मा के अनुसार यह भी टीबी के ही समान खतरनाक बीमारियां हैं मगर सरकार इस तरफ ध्यान नहीं दे रही। आदिवासी क्षेत्रों में कार्यरत व्यक्तियों और संगठनों का कहना है कि जैसा वर्ष 2018 में सौंपी गई रिपार्ट में कहा गया था कि नीतिगत कदम और सरकारी कार्यक्रम अक्सर तदर्थ होते हैं, वही अब भी जारी है। न आदिवासी क्षेत्रों में स्वास्थ सुविधाएं बेहतर बनाने के लिए कोई ठोस कदम उठाए गए हैं और न ही कोरोना की दूसरी लहर में इन क्षेत्रों में टीबी की रोकथाम को लेकर कुछ किया गया। भोपाल के एक चिकित्सा विषेशज्ञ नाम जाहिर न करने की शर्त पर कहते हैं कि कोरोना और टीबी के लक्षण समान होने से भी गलफत हो जाती है। वे बतलाते हैं कि भारत में दुनिया के 26 फीसदी टीबी मरीज हैं जिनमें से अधिकांश आदिवासी अथवा खनन क्षेत्रों में पाए जाते हैं। कोरोना की दोनों लहरों ने इन मरीजों के इलाज और संदिग्ध मरीजों की पहचान को बुरी तरह प्रभावित किया है। वे बतलाते हैं कि सरकारी आंकड़ों के अनुसार ही वर्ष 2019 में टीबी से 79,144 लोगों की मौत हुई थी अर्थात देश में हर घंटे 9 लोगों की मौत टीबी से हो रही थी।
वर्ष 2018 में सौंपी गई रिपोर्ट में कहा गया था कि अलग-अलग आदिवासी समुदायों की स्वास्थ्य स्थिति के बारे में आंकड़ों की लगभग पूरी तरह से कमी है। देश के आदिवासी स्वास्थ्य स्थिति की व्यापक जानकारी के अभाव में नीतिगत कदम और सरकारी कार्यक्रम अक्सर तदर्थ होते हैं। वर्ष 2011 की जनगणना, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे, नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन, कुछ नागरिक संगठनों के अध्ययन और राष्ट्रीय जनजाति स्वास्थ्य अनुसंधान संस्थान के एक अध्ययन से मिले आंकड़ों द्वारा तैयार इस रिपोर्ट में आदिवासी समुदायों में स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं पर व्यापक चर्चा की गई थी, मगर राष्ट्रीय क्षय रोग अनुसंधान संस्थान द्वारा किया गया अध्ययन बतलाता है कि सरकार द्वारा जमीनी स्तर पर कोई प्रभावी कदम नहीं उठाए गए। पल्मोनरी टीबी तपेदिक का आम स्वरूप है जो फेफड़ों को बेहद प्रभवित करता है। ऐसे में कई स्वास्थ्य विशेषज्ञ यह आशंका जाहिर कर रहे हैं कि पहले से ही कुपोषण और पल्मोनरी टीबी की चपेट में आया आदिवासी समुदाय कोविड-19 का आसान शिकार बन सकता है। अपने पक्ष में वे दूसरी लहर के आदिवासी क्षेत्रों में तेजी से फैलने और औसतन होने वाली मौतों में अप्रत्याशित वृद्धि का जिक्र करते हैं।
इसी साल मार्च में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने ट्रायबल टीबी इनीशिएटिव की शुरुआत की थी। उस दौरान तपेदिक उन्मूलन के लिए बनाई गई संयुक्त कार्य योजना को लेकर प्रस्तुत दस्तावेजों में यह कहा गया था कि कुपोषण और स्वच्छता की कमी से आदिवासी आबादी टीबी की चपेट में आ गई है। कार्ययोजना में 177 आदिवासी जिलों को तपेदिक उन्मूलन के लिए उच्च प्राथमिकता वाले जिलों में रखा गया था। यह योजना प्रारंभ में 18 राज्यों के 161 जिलों पर ध्यान केंद्रित करने वाली थी, मगर आज तक जमीनी स्तर पर इस योजना को कोई अता-पता नहीं हैं जबकि अत्यधिक घातक साबित हुई कोरोना महामारी की दूसरी लहर में तपेदिक से प्रभावित आदिवासियों की पहचान कर उनका उपचार सुनिश्चित करना बेहद जरूरी था। उस समय बड़े जोर से यह घोषणा भी की गई थी कि केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय का निक्षय और जनजातीय मामलों के मंत्रालय का स्वास्थ पोर्टल तपेदिक पर डेटा संकलन को बढ़ावा देगा। यह भी सिर्फ घोषणा ही बन कर रह गई।
गत वर्ष अगस्त में ही केंद्रीय स्वास्थ मंत्रालय द्वारा टीबी पर दिशानिर्देश जारी किए गए थे। इसमें सभी टीबी मरीजों के लिए कोरोनावायरस की जांच को महत्वपूर्ण बताया गया था। साथ ही यह भी स्वीकार किया गया था कि टीबी के मरीज के कोरोना वायरस की चपेट में आने की ज्यादा सम्भावना है। इस दिशानिर्देश मेंबताया गया था कि टीबी के मरीजों में कोविड होने का खतरा अन्य लोगों से दोगुना होता है। साथ ही कोविड की जकड़ में आ चुके मरीज में टीबी होने की सम्भावना भी अधिक होती है। मंत्रालय ने कहा था कि विभिन्न शोधों से पता चला है कि कोरोना वायरस से ग्रस्त 0.37 से 4.47 फीसदी मरीजों में टीबी के लक्षण पाए गए हैं। दिशानिर्देशों में कोविड-19 मरीजों की टीबी जांच की सिफारिश भी की गई थी। साथ ही जिन लोगों में कोविड-19 नेगेटिव आया है उनकी भी टीबी जांच के लिए कहा गया था।
9789240013131-engदिशानिर्देश में इन्फ्लुएंजा (आइएलआइ) और सांस सम्बन्धी गंभीर बीमारियों (एसएआरआइ) के लक्षणों वालों व्यक्तियों के लिए भी कोविड 19 की बात कही गई है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस दिशानिर्देश के अनुसार टीबी रोगियों में कोविड 19 के लक्षण पाए जाने पर दोनों बीमारियों का उपचार किया जाना है। इसी तरह कोविड 19 के मरीजों में टीबी के लक्षण मिले तो उनमें भी टीबी और कोरोना दोनों का इलाज किया जाना होगा। मंत्रालय ने साथ ही टीबी और कोविड 19 दोनों की चिकित्सा सुविधाओं को जोड़ने के लिए भी कहा था ताकि मरीजों का बेहतर इलाज हो सके।
आदिवासी क्षेत्रों में कार्यरत व्यक्ति और संगठन बतलाते हैं कि सरकार को यह समझना होगा कि इन इलाकों में सरकारी ढर्रे पर चलकर किसी भी महामारी पर नियंत्रण नहीं पाया जा सकेगा। वातानुकूलित दफ्तरों में बैठ कर आदिवासी इलाकों – जो अक्सर ही सुदूर जंगलों और पहाड़ों पर अव्यस्थित होते हैं – के लिए योजनाएं बनाने वाले अक्सर ही इस समुदाय की रुढ़ियों और जमीनी हकीकतों से अंजान होते हैं। ऐसे में किसी भी सरकारी योजना का प्रभावी तौर पर लागू हो पाना मुश्किल हो जाता है। जैसा जोरशोर से शुरू ट्रायबल टीबी इनीशिएटिव के साथ हुआ। ऐसे में यह बेहद संभव है कि आदिवासी इलाकों में कोविड-19 के खतरे आने वाले दिनों में और बढ़ जाएं।
(लेखक भोपाल में निवासरत अधिवक्ता हैं। लंबे अरसे तक सामाजिक सरोकारों से जुड़े विषयों पर लिखते रहे है। वर्तमान में आदिवासी समाज, सभ्यता और संस्कृति के संदर्भ में कार्य कर रहे हैं)