युद्ध और आतंकवाद : हथियारों के कारोबार के दो पहलू


युद्ध आम तौर पर दो या दो  से अधिक देशों के मध्य लड़ा जाता है। युद्ध के भी कुछ नियम और कानून होते हैं, यद्यपि इसे पसंद ना किया जाए परंतु यह वैध माना जाता है। आतंकवाद बुनियाद में अपनी ताकत द्वारा किसी दूसरे के मानव अधिकार को कुचलना को कहते हैं; आतंक का दायरा आतंकवादी की ताकत पर निर्भर करता है; आतंक के कोई नियम और कानून नहीं होते; यह पूर्णत: अवैध होता है। यानी आतंक और युद्ध दोनों एक दूसरे से बिल्कुल मुख्तलिफ हैं, परंतु इस आधुनिक परिवेश मे दोनों एक दूसरे से मुख्तलिफ होते हुए भी एक दूसरे के बहुत पास हैं और वह वजह है हथियार!

आज हम देखते हैं कि दोनों ही अपने-अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए हथियारों का प्रयोग करते हैं। हथियारों का व्यवसाय ही वह वजह है जो दोनों को एक दूसरे के पास ले आता है। इस दुनिया में ऐसा नहीं है कि आतंकवादियों के लिए हथियार कोई और बनाता है और युद्ध के हथियार कोई और बनाता है। हथियार का कारोबार चलता रहे इसके लिए जरूरी है कि युद्ध होते रहें और युद्ध होने के लिए जरूरी है एक वजह का होना जिसकी बिना के ऊपर युद्ध हों, और युद्ध के लिए आतंकवाद से बड़ी वजह और क्या हो सकती है?

आतंकवाद पर बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं, आतंकवाद को किसी एक धर्म से भी जोड़ दिया जाता है और इस बिना पर दिल खोल के लोग एक दूसरे से नफरत करते हैं, सच्ची झूठी अफवाहें फैलाते हैं और अपने-अपने राजनीतिक लक्ष्य साधने  की कोशिश करते हैं, परंतु किसी ने भी आतंकवाद क्या है; यह कैसे फैलता है ; इसको जानने और समझने, पढ़ने और मालूम करने की कोशिश नहीं की। यह कोशिश इसलिए नहीं की गई क्योंकि जो सामने आया और अपने मतलब का लगा  तो फिर उसी को सच मान लेना ही जरूरी समझा गया। 

ऐसा नहीं है कि आतंकवाद पर कोई लिटरेचर मौजूद नहीं है। इस्लामिक स्टेट नाम की टेरेरिस्ट ऑर्गेनाइजेशन वजूद में आयी, फिर इसके बाद और मुसलमान के साथ टेररिज्म को जोड़ा गया इसके बारे में कई लोगों ने कई किताबें लिखी हैं। आतंकवाद पर बात करने वालों और इस पर अपनी प्रतिक्रिया देने वालों के लिए जरूरी है कि वह इन किताबों का अध्ययन भी करें ताकि आज विश्व स्तर पर जो आतंकवाद है इसको पहचानने में  मदद हासिल हो। अफगान युद्ध से पहले न किसी ने इस्लामोफोबिया का नाम सुना था और न ही आतंकवाद को धर्म से जोड़ा जाता था। कभी लोगों का दिमाग यह बात नहीं सोचता कि इस्लामिक स्टेट की बात आखिर कहां से आई जब के इस दुनिया में बहुत सारे देश ऐसे हैं जो खुद को मुस्लिम या इस्लामिक देश कहते हैं? और इस्लामोफोबिया नाम का  शब्द कैसे और कहां से प्रकट हुआ? 



1979 से 1989 के बीच सोवियत अफगान युद्ध हुआ जिसमें अफ़ग़ानियों की मदद अमेरिका ने की। सरकार को अपनी फौजें वापस बुलानी पड़ी। इस युद्ध की जीत का सेहरा अमेरिका ने जिस व्यक्ति के सर बांधा उसका नाम था ओसामा बिन लादेन, जो कि एक अरबी नेशनलिस्ट था, लेकिन ओसामा बिन लादेन भी कम सरफिरा न था। उसे इनाम के बदले अमेरिका की कठपुतली बनना गवारा करना तो दूर, उसने उलटा अमेरिका को कह दिया कि वह अरब से दूर हो जाये। ओसामा का यह तरीका सऊदी बादशाहों को भी नागवार गुज़रा क्योंकि वह अमरीका के विरुद्ध नहीं जा सकते थे। नतीजा ये हुआ के ओसामा बिन लादेन जिसको अभी तक न सिर्फ युद्ध जीतने का श्रेय और ईनाम दिया जा रहा था अब उसे अरब से निकाल बाहर किया गया।

ओसामा कई वर्षों से युद्ध लड़ रहा था। वह बहुत चालाक और युद्ध नीति में निपुण हो चुका  था। उसने  अल कायदा नाम से एक संगठन बनाया। वह अमरीका को अपना दुश्मन मानता था और उसका संगठन अमरीकी सैनिकों व दस्तों को अपना निशाना बनाने लगा। वह अपने लोगों से कहता कि चूंकि सऊदी अरब इस्लामिक सटेट है इसलिए अमरीका के किसी सैनिक को यहाँ के कामों से कोई मतलब नहीं होना चाहिए। उसके लोग उसकी बात से सहमत थे क्योंकि इसी विचार के तहत ही इन लोगों ने सोवियत संघ से युद्ध लड़ा था और अमरीका ने ख़ुद इसमें इनका साथ दिया था। 

तस्वीर का दूसरा रुख़ भी कम हैरान करने वाला  नहीं है। शायद अफगान युद्ध के समय से ही अमरीकी कूटनीतिज्ञों ने ओसामा के इरादे भांप लिए और एक प्लान बी की तैयारी कर ली। या अगर, ऐसा भी हुआ हो कि उस वक्त यह प्लान ना भी रहा हो तो आगे  चलकर यह प्लान बी ही साबित हुआ और इस बात का जानना इसलिए भी जरूरी है कि हमको यह जानने में भी मदद मिले कि आतंकी किस तरह तैयार किए जाते हैं।

जिस समय अफगान युद्ध चल रहा था उस समय एक व्यक्ति जॉर्डन की एक जेल में सजा काट रहा था। सजा काट रहा था का मतलब साफ है कि वह व्यक्ति एक मुजरिम था। उसका पिता एक सीधा सादा आदमी था, वह एक मौलवी था, परंतु इस व्यक्ति का धर्म से कोई नाता न था । इस व्यक्ति के शरीर  भर पर बहुत सारे टैटू थे जिसकी वजह से लोग इसे ग्रीनमैन भी कहते थे। वह कोई धार्मिक व्यक्ति नहीं था। जॉर्डन में सत्ता बदलती है और वहां के 300 कैदियों की सजा माफ कर दी जाती है ।  इस मुजरिम की सजा भी माफ कर दी जाती है। इससे भी ज्यादा हैरान कर देने वाली बात यह है कि वह व्यक्ति जो एक मुजरिम था, धार्मिक भी नहीं था (वह ऐसे कार्य में संलग्न था जो इस्लामी शिक्षा के विरुद्ध थे परन्तु धार्मिक कट्टरपंथी बन के दुनिया के सामने आया), जिसके पास पैसे नहीं थे, जिसे अफग़ान युद्ध से कोई नाता भी नहीं था वह जेल से छूटकर सीधा अफगा़न और सोवियत युद्ध जहां हो रहा है वहां जाता है। परंतु जब वह वहां आता है या लाया जाता है तो उसे समय युद्ध खत्म हो चुका था। इस व्यक्ति की कोई भूमिका सोवियत और अफगान युद्ध में तो नहीं थी परंतु यही वह व्यक्ति था  जिसने संगठन अलकायदा को हाईजैक किया  और आगे चलकर एक खूंखार आतंकवादी बना।  

इस व्यक्ति का नाम था ज़रख़ावी। ज़रख़ावी के प्रभाव में आने से पहले अलकायदा सदैव अमेरिकी सैनिक दोस्तों को ही अपना निशाना बनाती थी परंतु ज़रख़ावी के आदेश पर शिया धार्मिक स्थलों पर हमले होने लगे (जिससे मुसलमानों में आपसी तनाव बढ़ा) और मासूम लोगों को निशाना बनाया जाने लगा, सड़कों बाजारों और लोगों के घरों पर बम फटने लगे। इराक में जब सद्दाम हुसैन (यहाँ यह बात याद रहे कि सद्दाम हुसैन को सत्ता दिलाने और सत्ता छीनने में यूनाइटेड स्टेट्स की मुख्य भूमिका रही है, यही नहीं बल्कि ईरान ईराक़ युद्ध में भी युनाइटेड स्टेट्स की तरफ से इराक की मदद की गयी) का तख्ता पलटा और अमेरिकी फौजी दस्तों ने इराक में कब्जा किया तो इस समय ज़रख़ावी की ताकत में सबसे ज्यादा बढ़ोतरी हुई। और इस ताकत से सबसे ज्यादा नुकसान मुसलमानों का किया गया।

ओसामा बिन लादेन के इस्लामिक स्टेट के कांसेप्ट को भी हाईजैक कर इसने अपने संगठन को नाम दिया आईएसआईएस, इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक एंड सीरिया ( जबकि दुनिया जानती थी कि यह दोनों ही देश पहले से ही इस्लामिक थे)। और यह वह इस्लामिक स्टेट संगठन था जिसने इस्लामिक स्टेट के नाम पर सबसे ज्यादा नुकसान इस्लाम को पहुंचाया और सबसे ज्यादा दरिंदगी मुसलमानों के साथ की। अमेरिका ने जब आईएसआईएस से जंग शुरू की तो यह बात वह लोग अच्छी तरह जानते थे कि बगैर स्थानीय लोगों की मदद के वह यह जंग नहीं जीत पाएंगे। इसका नतीजा यह हुआ कि फिर बहुत से मिलिटेंट ग्रुप वजूद में आए, यद्यपि उनका मकसद आतंकवाद से ही लड़ना था। और आखिरकार एक दिन जरखावी को मार गिराया गया। 

और फिर जो हुआ वह और भी ज्यादा हैरान करने वाला था, क्योंकि अब तक जो दो नाम आतंक से जुड़े हुए हमारे सामने थे जिनके बारे में जानकारी थी। एक अरब का अमीर बिजनेसमैन था तो दूसरा जॉर्डन का एक अपराधी। सवाल यही है कि इन दोनों के हाथों में हथियार किसने दिए? 

इन दोनों के बाद से आज तक जितने भी लोग सामने आए और उन्होंने दावा किया खलीफा होने का, किसी ने अपना नाम आबूबाकर अलबकदादी बताया तो किसी ने उमर अलबाबादी बताया, यह सब कौन थे? कहां से आए? किस देश के थे? किसी धर्म के थे या किसी धर्म के नहीं थे? उनके असली नाम क्या थे? अब हम आज तक नहीं जानते! हम सिर्फ इतना जानते हैं कि दावा इन आतंकियों ने किया था इस्लामिक स्टेट का लेकिन सबसे ज्यादा नुकसान इन्होंने मुसलमान और इस्लाम का ही किया।  इन तक आधुनिक हथियार और पैसे किस तरह पहुंचाते रहे, सवाल है। कई पत्रकार जो इन सवालों के जवाब के नजदीक पहुँच गए थे या शायद जवाब ढूँढने मे कामयाब हो गये थे, उनहे बेरहमी से क़त्ल कर दिया गया। 

इस पूरे प्रकरण  में युद्ध और आतंकवाद की समानता पर अगर गौर किया जाए और इस ख़ूनी  खेल में अगर किस का  फायदा हुआ इस बात को सोचा जाए तो एक ही चीज समझ में आती है, “हथियारों का कारोबार”।


संदर्भ स्रोत:

“Empire of fear- Inside the islamic state”, Andrew Hosken 


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