आज महात्मा बुद्ध की 2589वीं जयंती मनायी जा रही है। भारतीय समाज में प्रचलित परम्परा के अनुसार देश-समाज के हित की बात करने वालों तथा लड़ाई लड़ने वालों को भगवान के रूप स्थापित कर दिया जाता है और इस तरह उसके विचार को अप्रत्यक्ष तौर पर मार दिया जाता है। समाज को इससे कोई मतलब नहीं रह जाता कि असल में उनका विचार था क्या, वे किस रूप में हमारे समाज को देखना चाहते थे! भला बुद्ध भी इससे कैसे बच सकते थे! आखिर उनका जन्म भी भारत में हुआ था। बुद्ध जब तक जीवित रहे विभिन्न तरह की यातनाओं को झेलते रहे, जो स्वाभाविक था क्योकि वे तत्कालीन सामाजिक सत्ता को चुनौती दे रहे थे।
बौद्ध धर्म का उद्भव ही समाज की तत्कालीन कुरीतियों को दूर करने से हुआ था। उस समय का समाज जिस पीड़ा से गुजर रहा था, उसे सोच पाना ही हमारे लिए असहज है। समाज में मनुष्य की चार अलग स्थितियों को देख कर बुद्ध ने जो किया, वह किसी भी सोचने वाले व्यक्ति, समाज सुधारक व प्रगतिशील मनुष्य के लिए स्वाभाविक था। मेरा मानना है बुद्ध कोई महान अवतरण नहीं, बल्कि हमारे बीच से एक सामान्य व्यक्ति रहे होंगे जिन्होंने समाज में फैली अव्यवस्था को देख विचलित होकर एक नयी राह तलाशने के उद्देश्य से घर का परित्याग किया। विभिन्न स्थानों पर भटकने के बाद उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ जिसे ‘निर्वाण’ कहा जाता है।
यह ज्ञान सार्वभौमिक दुःख अर्थात चार आर्यसत्यों तथा कार्य-कारण सिद्धांत अर्थात प्रतीत्यसमुत्पाद का है। आगे चलकर उन्होंने तपस्स और भलिक्क से मिलने के बाद पञ्चवर्गीय भिक्षु को प्रथम उपदेश दिया और संघ का निर्माण वहीं से शुरू हो गया। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात् संघ सक्रिय हो गया, जब सुभद्द नामक एक भिक्षु ने कहा कि “अच्छा ही हुआ, बुद्ध न रहे। गुरु के न होने पर विद्यार्थियों को मनचाहा काम करने की छूट मिलती है, वैसा ही अब हुआ है।”
बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद ब्राह्मणवाद ने उनके विचार को निगलना तो चाहा लेकिन असफल रहा क्योंकि वह विचार सुदूर देशों तक जा पहुंचा था। आज भी इस विचार को बनाये रखने में भारत का योगदान बहुत कम आँका जायेगा। संपूर्ण एशिया में फैलने के बाद पश्चिम के देशों में बीसवीं सदी में इसे एक नया आयाम मिला, जिसे “बौद्ध धर्म की सामाजिक संलग्नता” कहा जाता है। सर्वप्रथम इसका उपयोग वियतनामी भिक्षु “थिक न्हात हान” ने अमेरिका और वियतनाम के बीच हुए युद्ध में दोनों से अलग एक अन्य तीसरा पक्ष अपनाते हुए युद्ध में घायल सैनिकों व आमजनों की सहायता के रूप में किया। उन्होंने साइगॉन में युवाओं को समाजसेवा देने के उद्देश्य से एक स्कूल की नींव रखी, जिसने एक जमीनी राहत संगठन के रूप में युद्ध के दौरान बमबारी से गांवों में हुए क्षतिपूर्ति एवं पुनर्निर्माण के लिए, स्कूलों और चिकित्सा केंद्रों की जरूरत को पूरा करने तथा युद्ध के कारण घर छोड़ भागे बेघर लोगों के लिए आवास की पूर्ति के लिए काम किया।
बौद्ध धर्म की सामाजिक संलग्नता के तहत विभिन्न बौद्ध देशों ने सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और पर्यावरणीय पहलुओं पर काम किया। यहाँ मैं बेहद संक्षिप्त में इसका जिक्र करना चाहूँगा। श्रीलंका में ए. टी. आर्यरत्ने ने बौद्ध धर्म की सामाजिक संलग्नता आन्दोलन का बेड़ा उठाया और वहां “सर्वोदय श्रमदान आन्दोलन” की शुरुआत की। यह आंदोलन मुख्यरूप से गाँधी और बुद्ध के विचारों पर आधारित है। इस आन्दोलन में गाँव विशेष को चिह्नित कर वहां की समस्या की जानकारी एकत्रित की जाती है। तत्पश्चात वहीं के ग्रामीण लोगों के साथ मिलकर समस्याओं का समाधान किया जाता है। इस आंदोलन को गाँवों में सड़क, स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र आदि जैसी मुख्य समस्याओं को दूर के करने के लिए तथा पर्यावरण को संतुलित रखने के लिए चलाया जा रहा हैं जिसके तहत अब तक 15000 से ज्यादा गाँवों की बेसिक समस्याओं को दूर किया जा चुका है।
दलाई लामा बौद्ध धर्म की सामाजिक संलग्नता के रूप में “विश्व शांति के लिए अहिंसा और करुणा” का प्रतिनिधित्व करते हैं। ताइवान में बौद्ध भिक्षुणी मास्टर चेंग येन ने त्ज़ु ची फाउंडेशन की स्थापना की। इस फाउंडेशन के काम में चिकित्सा सहायता, आपदा राहत और रीसाइक्लिंग जैसे पर्यावरणीय कार्य शामिल हैं। यह स्वयंसेवकों और कर्मचारियों के विश्वव्यापी नेटवर्क द्वारा संचालित है। यह फाउंडेशन ताइवान सहित विश्व के अनेक देशों में अपनी सेवा दे रहा है। इसने बॉन मेरो बैंक की स्थापना की है जिसके तहत तीन लाख से ज्यादा लोग मेरो डोनर्स का रेजिस्ट्रेशन करा चुके हैं। इसने कई अस्पतालों का निर्माण किया हैं, जिससे वहां के लोगों को हरेक तरह की बीमारी का इलाज मुफ्त होता है। इस तरह के और भी कई देश और लोग हैं, जो बौद्ध धर्म को सामाजिक उत्थान के लिए प्रयोग में ला रहे हैं।
आम अवधारणा है कि सभी धर्मों का उदय इस उद्देश्य से हुआ कि समाज को संतुलित व व्यवस्थित संस्था के रूप में रखने में मदद मिलेगी। यही कारण है कि अलग-अलग परम्परा से अलग-अलग धर्मों का उदय हुआ फिर भी लगभग सभी धर्मों का सार एक ही है। वह सार है, समाज को बेहतर बनाना। यह अलग बात है कि आज धर्मों के बेहतर बनने की होड़ में समाज को नुकसान ही पहुँच रहा है। यह न सिर्फ धर्मों की अवहेलना है बल्कि मनुष्य के इतिहास को दाग-दाग करता है। अब धर्म की नयी परिभाषा गढ़ी जाने लगी है। इसे समझे बिना गलत तरीकों से इसकी वकालत की जा रही है। मैं एक नास्तिक अधार्मिक व्यक्ति होते हुए भी कह सकता हूं कि “धर्म हमेशा बुरा नहीं होता है।” बौद्ध धर्म इसकी जीती जागती मिसाल है।
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शाेधार्थी हैं