बिहार के एक जाने-माने अस्पताल में एक महिला के साथ हुई यौन-उत्पीड़न की घटना कल से ही राष्ट्रीय मीडिया की नज़र में है. अस्पतालों पर, खासकर निजी अस्पतालों पर आम तौर से शुल्क, सुविधा आदि को लेकर ही आरोप लगते रहे हैं, लेकिन मरीज या उसके परिजनों के यौन उत्पीड़न का मामला शायद ही कभी राष्ट्रीय बहसों और विमर्शों का हिस्सा बन पाया है. यहां तक कि समाजविज्ञान में भी इसके विशेषीकृत अध्ययन और आंकड़ों का अभाव दिखता है, जबकि यह अपराध अस्पतालों और मेडिकल क्लीनिकों में न जाने कब से हो रहा है. यूरोप और अमेरिका जैसे देशों में भी ऐसे अपराध होते रहे हैं, जिन पर थोड़े-बहुत अध्ययन भी हुए हैं, फिर भी पीड़ित की निजता और मामले की गोपनीयता के चलते सही स्थिति अकसर सामने नहीं आ पाती है.
इस विषय पर वर्ष 2003 में जॉन कैचम द्वारा निर्देशित एक सिनेमा आया था- ‘आई एक्यूज़’। इसमें एक डॉक्टर अपने दो मरीजों के साथ यौन-सम्बन्ध बनाने के लिए ड्रग का प्रयोग किया करता था. हमारे एक शिक्षक अपने एक डॉक्टर मित्र की कहानियों को हमसे साझा किया करते थे कि कैसे वह महिला मरीजों के इलाज के बहाने अपनी यौन कुंठा मिटाता था. मरीज इस उधेड़बुन में ही रह जाता होगा कि शायद डॉक्टर के इलाज का यही तरीका है, या फिर यह सोचकर चुप रह जाता होगा कि आखिर किसी को बता कर भी क्या फायदा! और तो और, लम्बे समय तक डॉक्टरों को “भगवान” मानने की प्रवृत्ति ने भी ऐसे मुद्दे को कभी सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा नहीं बनने दिया. इसके अतिरिक्त हमारे समाज की बुनावट भी ऐसी है कि हजारों-लाखों महिलाओं को अपने इस उत्पीड़न को सार्वजनिक करने में डर लगता है क्योंकि उनके परिजन उनके ऊपर ही दुष्चरित्र होने का दोष मढ़ सकते हैं.
इस उत्पीड़न के विरुद्ध जब कभी महिलाओं ने मुंह खोला, तो पूंजी के साम्राज्य पर खड़े निजी अस्पतालों के सामने उनकी एक न चली. उनके मामले दबा दिये गये या फिर यह समाज और सत्ता की संवेदना को झकझोर नहीं पाया. फिर भी समय-समय पर अनेक मामले किसी न किसी तरह राष्ट्रीय फलक पर आते ही रहे और आंशिक ही सही, लेकिन इस प्रकार के अपराध के बारे में हमें सजग करने का प्रयास करते रहे. जैसे पिछले ही साल दिल्ली के फोर्टिस मेमोरियल रिसर्च हॉस्पिटल में एक 21 वर्षीय टीबी मरीज़ युवती के इलाज के दौरान बलात्कार का मामला रहा हो या फिर मुंबई के एक अस्पताल के वृद्ध डॉक्टर पर अपने मरीज के यौन उत्पीडन का आरोप, या फिर दिल्ली के संजय गांधी अस्पताल के एक गार्ड के द्वारा मरीज के साथ बलात्कार का मामला- अख़बारों में ऐसे सैकड़ों मामले मिल जाएंगे, लेकिन शायद ही यह कभी मुख्यधारा के विमर्श का विषय रहा है. ये मामले अख़बार में कोने की एक खबर बनकर दो-चार दिन टहलते रहे और फिर इन्हें भुला दिया गया.
इसके अतिरिक्त अस्पतालों और मेडिकल क्लीनिकों में यौन उत्पीड़न की और भी अनगिनत मौखिक कहानियां हैं जिन्हें सार्वजनिक करने की अनुमति न तो पीड़िता देती है और न ही उसका समाज. इसलिए बिहार की उस महिला के साहस को सलाम करना होगा कि उन्होंने अपनी व्यथा के माध्यम से पूरे भारत में व्याप्त अस्पतालों में इस तरह की मानसिकता का परदाफाश किया. पितृसत्तात्मक तंत्र को ऐसी मुखर चुनौती देना आसान कार्य नहीं होता.
संदर्भ सामग्री: डॉक्टर और मरीज़ के रिश्तों पर Indian Journal of Medical Ethics का अध्ययन, 2010
1533-5अस्पतालों में डॉक्टरों और अन्य कर्मियों के द्वारा यौन उत्पीड़न के मामलों को सामान्य घटना के रूप में लेना अपने आप में ही एक अपराध है. यह उस स्त्री-समुदाय की पीड़ा है जिसके हम सभी किसी न किसी रूप में अनिवार्य अंग होते हैं. वास्तव में यह हम सब के विरुद्ध ही अपराध माना जाना चाहिए. भारत में अस्पताल तंत्र भी एक सामन्ती ढांचे की तरह ही कार्य करता है. आम तौर पर डॉक्टर के साथ-साथ इसके सभी कर्मी मरीज और उसके परिजनों के साथ ऐसा कठोर व्यवहार करते हैं, जैसे यह उनका जन्मसिद्ध अधिकार हो. अस्पताल में मरीज और उसके परिजन लाचार स्थिति में होते हैं, वे अस्पताल प्रबंधन की हर बात मानने को मजबूर होते हैं। उनका विरोध करना उनकी शक्ति के बाहर की बात होती है, खासकर एपिडेमिक बिल 2020 के संशोधित प्रावधानों के बाद- जिसमें मरीजों के वाजिब विरोध को एक चिकित्सीय अवरोध मानकर कानूनी शिकंजे में फंसाये जाने की पर्याप्त आशंका बनी रहती है- ऐसा विरोध और कमज़ोर पड़ा है।
इस कोविड काल में न जाने कितने मरीजों के साथ यौन उत्पीड़न हुआ होगा यह कहना कठिन है, लेकिन ऐसे आंकड़े सैकड़ों में होने से इंकार नहीं किया जा सकता. जैसे उत्तर-प्रदेश में कोविड के इलाज में गयी एक युवती के साथ उत्पीड़न के आरोप में एक 30 वर्षीय डॉक्टर को गिरफ्तार किया गया है. इसी तरह पिछले वर्ष दिल्ली के एक बड़े कोविड केंद्र पर एक 14 वर्षीय कोविड मरीज़ के यौन उत्पीडन का मामला सामने आया था.
यौन कुंठित लोगों के लिए आपदा एक अवसर की तरह होती है. आपदा की अराजकता ने व्यवस्था की विभिन्न कमियों के साथ-साथ मेडिकल क्षेत्र में फैली इस मानसिक विकलांगता का भी रहस्योद्घाटन करके रख दिया है. इसने मेडिकल क्षेत्र की इस समस्या की तरफ भी समाज और सत्ता को सोचने का मौका दिया है. ऐसे क्रूर समय में इस तरह के अपराधों के बढ़ने के अनेक कारण हो सकते हैं, लेकिन उनमें से कुछ प्रथमदृष्टया नज़र आते हैं- जैसे न्याय-तंत्र का “लॉक-डाउन” होना, लोक-सुरक्षा तंत्र पर अचानक बढ़ा बोझ, “सामाजिक दूरी का फॉर्मूला”, नये मेडिकल बिल से मेडिकल स्टाफ में बढ़ा अति-आत्मविश्वास, आदि। ये कुछ ऐसे कारण हैं जिसने डॉक्टर और मेडिकल स्टाफ को मनमानी का भरपूर मौका दिया है. एक तरह से मरीजों के प्रति किसी भी तरह का निर्णय लेने का उन्हें एकाधिकार प्राप्त हो गया है.
संदर्भ सामग्री: डॉक्टर और मरीज़ के रिश्तों पर Indian Journal of Psychiatry में प्रकाशित चिकित्सकों के लिए दिशानिर्देश
aaaaaलॉक-डाउन और खासकर न्यायालयों के बंद होने की स्थिति ने ऐसे अपराधियों को इस अपराध के बाद के किसी खतरे से भय-मुक्त कर दिया. जब सुनवाई ही नहीं होगी तो सजा कैसे मिलेगी! इस दौरान चिकित्सा बिल 2021 और मेडिकल सेवाओं से जुड़े सभी कर्मियों पर देश की निर्भरता और इससे बढे उनके अति-महत्त्व ने इन्हें अपराध के प्रति दुस्साहसी बना दिया. साथ ही यह भी एक विचारणीय पक्ष है कि “सामाजिक-दूरी” का जुमला इतने जोर-शोर से फैलाया गया कि लोगों ने शारीरिक दूरी के बजाय अपनी सामुदायिकता को ही कमजोर कर लिया; जबकि सामुदायिक-शून्यता की स्थिति अपराध के लिए एक अनुकूल माहौल बनाती है. इस जुमले ने समाज का गंभीर नुकसान किया है. फलस्वरूप अधिकांश अस्पताल प्रबंधन ने मरीजों के सन्दर्भ में अपनी सुविधा के अनुसार नियम-कानून बना रखे हैं। इन कानूनों में कहीं कोई एकरूपता नहीं है, न ही किन्हीं मानकों का पालन किया जा रहा है। इसका दुरूपयोग इस पेशे से जुड़े अनगिनत लोग कर रहे हैं.
जरूरत है कि मेडिकल क्षेत्र में व्याप्त इस बीमारी पर विस्तृत विमर्श खड़ा किया जाए. चिकित्सा से जुड़े लोगों की इस विषय पर मुखरता भी इसके समाधान में एक अहम् भूमिका निभा सकती है. उन्हें अपने क्षेत्र में फैली इस मानसिक बीमारी पर बोलने-कहने में नहीं हिचकिचाना चाहिए क्योंकि मरीजों के इलाज के साथ-साथ उनकी गरिमा और सम्मान की रक्षा करना भी उनका एक चिकित्सीय दायित्व है. इससे इस व्यवसाय से जुड़े लोगों के प्रति अवाम का विश्वास बढेगा. साथ ही समाज को भी चाहिए कि वे अपने घर की लड़कियों व महिलाओं के उत्पीड़न को सार्वजनिक करने को प्रतिष्ठा का विषय न बनाएं. किसी भी अपराध पर मौन समाज अपराधी ही माना जाता है.
लेखकद्वय लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, पंजाब में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। डॉ. केयूर पाठक काउंसिल फॉर सोशल डेवलपमेंट, हैदराबाद से पोस्ट-डॉक्टरेट हैं।