जबकि मैं यूसुफ़ भाई के साथ अपने आजीवन जुड़ाव के बारे में लिख रही हूँ, तो मिर्जा असदुल्ला ख़ान ग़ालिब की ये अमर पंक्तियाँ बरबस याद आ रही हैं।
दिल मिरा सोज़-ए-निहाँ से बे-मुहाबा जल गया
आतिश-ए-ख़ामोश की मानिंद गोया जल गया
मैं हूँ और अफ़्सुर्दगी की आरज़ू 'ग़ालिब' कि दिल
देख कर तर्ज़-ए-तपाक-ए-अहल-ए-दुनिया जल गया
जब मैंने उनकी फिल्में देखना शुरू किया तो उस वक़्त मैं एक 12 या 13 साल की छोटी लड़की थी। तब से ही मैं उनकी उत्साही निडर प्रशंसक, गुप्त प्रशंसक हूँ। मैं उनसे पहली बार पचास के दशक में अपने चाचा ख्वाजा अहमद अब्बास के साथ उनसे मिली थी जब मैं गर्मी की छुट्टियों में मुंबई आयी थी।
यूसुफ़ भाई की बहनों और भाइयों के लिए अब्बास, ‘चाचा बाछो ‘, पाली हिल पर उनके विशाल घर के अंदर और बाहर बेझिझक आ जा सकते थे। मुझे उनके साथ वहां जाना अच्छा लगा और मुझे उनकी तीसरी बहन अख्तर के रूप में अपना सबसे अच्छा दोस्त मिला। मुझे वे सभी पसंद थे, आपा जी, सबसे बड़ी ज्येष्ठ और कुलमाता, ताज आपा, सईदा, फरीदा और फौजिया।
नासिर भाई और उनकी पत्नी बेगम पारा थीं। वो लोग कहीं और रहते थे (दशकों बाद, मेरी चचेरी बहन हमीदा ने मुझे बताया कि बेगम पारा जिनका नाम जुबैदा हक था, अलीगढ़ में उसकी स्कूल में उनकी सहपाठी थीं)। उनके छोटे भाई अहसान और असलम यूएसए में थे।
लेकिन मैं जो एक स्कूली छात्रा थी, का दिल युसूफ़ भाई पर टिका था। उनका अपना कमरा घर के बाकी हिस्सों से अलग था जहाँ घर के हंगामा से दूर वह काम कर सकते थे और अपने फिल्मी दोस्तों से मिल सकते थे। मैं इसके बारे में बहुत उत्सुक थी और इस जगह को उनकी शानदार नायिकाओं, मधुबाला, वैजयंतीमाला, मीना कुमारी के साथ मिलनस्थल के रूप में इसकी कल्पना की थी। मैं उनकी जगह होने के लिए क्या दे सकती थी।
मैंने कभी इस उम्मीद को नहीं छोड़ा कि एक दिन वो अपने घर के किसी कोने में एक दुबली-पतली शर्मीली लड़की जिसकी आँखों में उनके लिए प्यार था ज़रूर महसूस करेंगे। एक बार अख्तर मुझे एक गुप्त मिशन पर ले गयीं, जिसे ‘यूसुफ़ साहब का मांद’ कहा जाता था। उसमें हम लोगों ने बाहर से झाँक कर देखा।
युसूफ़ भाई ने अपने से 20 साल छोटी एक छोटी सी लड़की पर ध्यान नहीं दिया। अगले कुछ वर्षों में मेरा मोह और गहरा होता गया। ये बात मेरे बताये बग़ैर सभी जानने लगे। अख्तर जानती थीं और मुझे चिढ़ाती थीं। मेरे मॉडर्न स्कूल के दोस्त इसे जानते थे और वो लोग मुझे बहुत चिढ़ाया करते थे।
उनकी हर एक फिल्म ने मुझे बेचैन कर दिया।
फ़िल्म आजाद, जिसमें उनकी नायिका मीना कुमारी थीं, इस फिल्म में उन्होंने रॉबिनहुड-बक्कानीर-प्रिंस की भूमिका निभायी थी। हिंदी सिनेमा में स्टॉकहोम सिंड्रोम का यह पहला चित्रण था। दशकों पहले जबकि हिंदी सिनेमा में इसका नाम भी नहीं सुना था।
फ़िल्म ‘देवदास’ जिसमें उन्हें दो महिलाओं का प्यार मिला था, एक सरल सूक्ष्म अंतहीन प्रेम की ऐसी भावना जो उन्होंने दोनों के प्रति व्यक्त की। ‘कौन कम्बख्त है जो बर्दाश्त करने के लिए पीता है…!’ राजिंदर सिंह बेदी द्वारा लिखित एक अमर संवाद वे चंद्रमुखी से कहते हैं।
फ़िल्म ‘कोहिनूर’, जिसमें उन्होंने रोमांस और छल का उत्कृष्ट प्रदर्शन किया और शकील बदायुँनी के गीत ‘दो सितारों का ज़मीं पर है मिलन’ और ‘मधुबन में राधिका’ में कुमकुम के साथ अपने नृत्य के जादू से अमर कर दिया।
एक और उनकी फ़िल्म ‘मधुमती’ थी जिसमें उन्होंने प्यार किया और खो दिया लेकिन अपने दर्शकों की आँखें नम कर दीं और उनका दिल दिल जीत लिया।
फ़िल्म गंगा-जमुना में उन्होंने गंगा-जमुनी तहज़ीब, जोकि आज ख़तरे में है, उसका ‘नैन लड़ जइहें तो मनवा मा कसक होइबे करी’ के ज़रिये बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया है।
फ़िल्म ‘नया दौर’ में पंजाब की संस्कृति को दिखाया गया है- ‘तुझे चांद के बहाने देखूं तू छत पर आजा गोरिए…!’
फ़िल्म ‘मुसाफिर’ जिसमें उन्होंने पहला और आख़िरी गाना गाया था- उनकी आवाज जो एक बार में रफी और तलत दोनों जैसी थी- ‘लागी नहीं छूटे रामा चाहे जिया जाए…।’
और फिर शानदार मुग़ल-ए-आज़म थी, जिसमें शहज़ादा सलीम के रूप में उन्होंने अपनी प्रेमिका अनारकली (मधुबाला) और उसकी प्रतिद्वंद्वी बहार (निगार सुल्ताना) के बीच कव्वाली प्रतियोगिता में पुरस्कार से सम्मानित किया। बहार को फूल सौंपते हुए वह कहते हैं ‘मरहबा’; अनारकली को कांटों को सौंपते हुए वे ऐसे शब्द बोलते हैं जो भारतीय सिनेमा के इतिहास में गूंजते हैं- ‘अनारकली, तुम्हारे हिस्से में ये कांटे हैं।’
जब मैं उच्च शिक्षा के लिए विदेश गयी तो उनकी छवि मेरे दिल पर बनी रही। अख्तर और मैं उन मुश्किल दिनों में भी करीब बने रहे, जब मेरी माँ बीमार हो गयीं और आखिरकार एक अजनबी माहौल में उनकी मृत्यु हो गयी। जब वह अस्पताल में थीं, अख्तर मेरे पिता और मेरे साथ रहने के लिए न्यूयॉर्क से मेरे विश्वविद्यालय परिसर में आयीं। यूसुफ़ भाई की तरह उनकी भी एक खूबसूरत आवाज़ थी। उन्होंने हमारे लिए गाया भी। मैं रोयी और मेरे पिता भी अपने आंसू नहीं रोक पाए, जब हमने ये पंक्तियाँ सुनीं- आज पाँच दशक बाद भी उनका प्रभाव कम नहीं हुआ।
सौ बार चमन महका सौ बार बहार आयी
दुनिया की वही रौनक दिल की वही तनहाई
बाद में, मैंने अपने सपनों का राजकुमार पाया और उससे शादी की, लेकिन यूसुफ़ भाई और सायरा बानो की शादी के बाद।
हमारी कहानी जारी रही। अलग-अलग महाद्वीपों में अलग-अलग जगहों पर हम मिलते रहे। मैंने कभी भी उनकी फिल्में देखना बंद नहीं किया, चाहे जीवन में कुछ भी चल रहा हो। इसके अलावा, मैंने अपने सबसे क़रीबी अख्तर से कभी संपर्क नहीं खोया, हमने एक-दूसरे को फिर से कनाडा में पाया।
आखिरी बार मैं यूसुफ़ भाई से तब मिली थी जब वो और सायरा बानो कनाडा में मेरे शहर आए थे। मुझे वो लंच याद है जहां मुझे उनसे मिलने के लिए आमंत्रित किया गया था। उनके जीवन का ‘अस्मा’ प्रकरण समाप्त हो चुका था; उन्होंने अपनी जीवनी ‘द सबस्टेंस एंड द शैडो’ में इसका जिक्र किया है।
हम अपने करीबी दोस्त के घर पर मिल रहे थे, हैदराबाद का एक परिवार, जिसका नेतृत्व एक सुंदर और प्रिय कुलमाता कर रही थीं, यूसुफ़ भाई के आपाजी के तरह। वे खुश लग रहे थे, यूसुफ़ भाई और सायरा। उत्तरी अमेरिका में कई साल रहने के बावजूद, एक प्यार करने वाले पति, तीन खूबसूरत बच्चों और उस दुनिया में महत्वपूर्ण पदों पर रहने के बावजूद, जब मैंने उनसे अपने दिल की इच्छा के बारे में बात की- ‘यूसुफ़ भाई, मैं आपकी जीवनी लिखना चाहती हूं। क्या तुम… तुम करोगे?’
उसी रहस्यमय मुस्कान के साथ मुझे पाली हिल के उन दिनों की याद आयी जब उन्होंने अपनी पत्नी की ओर इशारा किया था। ‘ये तो इन से पूछिए’। मुझे तब पता था कि ऐसा नहीं होगा।
बाद में जब मैं भारत लौटी और जीवनयापन के लिए लिखना शुरू किया, तो मुझे आश्चर्य हुआ कि उन्होंने मुझे अपनी नक़लनवीस के रूप में शामिल करने का मौका क्यों दिया। 2012 में जब मुझे मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय का चांसलर नियुक्त किया गया, तो यूसुफ़ भाई को डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया।
‘आख़िरकार वो मेरे बग़ल में खड़े होंगे जब मैं उन्हें उपाधि प्रदान करूंगी’, मैं ये सोच कर विजय भाव से भर गयी। वह अस्वस्थ थे इसलिए ऐसा न हो सका। मंच पर हम सभी को सायरा बानो की दोस्त उदयतारा नायर द्वारा लिखित उनकी ‘आत्मकथा’ प्रदान की गयी। सीमित संस्करण पर ‘विथ लव दिलीप कुमार’ के साथ हस्ताक्षर किये गए थे।
पेशावर के उनके पुश्तैनी घर में ‘क़िस्साख्वानी बाज़ार’ में जहाँ मैं साल 2000 में गयी थी, उन्हें अपनी दादी के शब्द याद आ गए, जब वह गली से आंगन के अंदर दौड़ते हुए आए- ‘आ गए यूसुफ़ी!’
वो आए, देखा, और जीत हासिल की- सरहद और सरहद के पार! इंसान की खींची लकीर मानवीय भावनाओं को क़ैद नहीं कर सकती, खासकर जब ये शहंशाह-ए-जज़्बात से संबंधित हो।
ऐसा लगता है कि अल्लामा इकबाल ने ये शेर यूसुफ़ खान के लिए ही लिखा था:
हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा
[इस लेख में रेयाज़अहमद (फेलो, मुस्लिम विमेंस फ़ोरम) का भी योगदान है]