…और आप कहते हैं कि गांधी को कोई जानता भी नहीं था!


शेक्सपियर के प्रसिद्ध नाटक ‘जूलियस सीजर’ में सीजर के मरने के बाद एंटोनियो उसके मृत शरीर से कहता है: “हे सीजर! मुझे क्षमा कर कि मैं इन कसाइयों के प्रति नम्र और दयालु हूं।” भारत की महान विभूतियों को कुछ तत्व जब सरेआम अभद्र भाषा में संबोधित करते हैं, तो कुछ-कुछ ऐसा ही भाव मन में आता है। फिर, याद आते हैं महात्मा गांधी के अनमोल वचन जब वे कहते हैं, “जब तक गलती करने की स्वतंत्रता न हो तब तक स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं है।”

महात्मा गांधी- एक ऐसा नाम जिन्‍होंने स्वतंत्रता की लड़ाई अपनी कौम से नहीं वरन विदेशी धरती से शुरू की और दक्षिण अफ्रीका के इतिहास में उनका नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। प्रधानमंत्री मोदी की जब पैदाइश भी नहीं हुई थी उससे पहले एक आतंकवादी ने 79वें वर्ष में गांधीजी की जान ले ली। नेल्‍सन मंडेला अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि जब वह दक्षिण अफ़्रीका में स्वतंत्रता आंदोलन करने वाले थे तो उन्होंने महात्मा गांधी को अपना आदर्श बनाया, “…हमें लगा कि भारत में गांधी के अहिंसक विरोध प्रदर्शन की तर्ज पर बड़े पैमाने पर कार्रवाई का समय आ गया है… घर की दीवारों पर मेरे पास रूजवेल्ट, चर्चिल, स्टालिन, गांधी और 1917 में सेंट पीटर्सबर्ग में विंटर पैलेस पर हमले की तस्वीरें टंगी थीं। मैंने लड़कों को समझाया कि उनमें से प्रत्येक व्यक्ति कौन था और उसका क्या रुख था।”

रूसी लेखक लेव तोलस्‍तोय गांधी को अफ्रीका में पत्र लिखकर कहते हैं, “ट्रांसवाल में भगवान आपके सभी प्यारे भाइयों और सहकर्मियों की मदद करें। यह लड़ाई सज्जनता और क्रूरता के बीच है, एक तरफ विनम्रता और प्रेम है तो दूसरी तरफ दंभ और हिंसा और इसके बीच की यह लड़ाई, हमारे यहां भी यह स्वयं को और अधिक दृढ़ता से महसूस कराती है – विशेष रूप से धार्मिक दायित्वों और सैन्य सेवा प्रदान करने के लिए कर्तव्यनिष्ठ आपत्तिजनक राज्य के कानूनों के बीच का तीव्र टकराव।”

एक अन्य पत्र में वह आगे लिखते हैं, “ट्रांसवाल में आपका काम, जो (ट्रांसवाल) हमें पृथ्वी के अंत में लगता है, अब भी हमारे हित के केंद्र में है और सबसे महत्वपूर्ण व्यावहारिक प्रमाण प्रदान करता है जिसे अब दुनिया साझा कर सकती है, न केवल ईसाई बल्कि सभी विश्व के लोग इसमें भाग ले सकते हैं।” और यह समय था साल 1910, जब गांधी का भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में कोई योगदान तक नहीं हुआ था लेकिन दुनिया उन्हें जानने लगी थी।

और आप कहते हैं कि गांधी को कोई जानता भी नहीं था! दुखद!



चार्ल्स आर डिसाल्वो अपनी पुस्तक ‘महात्मा गांधी: अटॉर्नी ऐट लॉ’ में 1894 का एक दिलचस्प वाकया देते हैं। पचीस साल के युवा अश्वेत बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी को पता चलता है कि दक्षिण अफ्रीका के नटाल प्रांत में (जहां भारतीयों की जनसंख्या बढ़ रही थी) वहां की संसद ने एक कानून का मसौदा तैयार किया है जहां भारतीयों से वोट का अधिकार छीन लिया जाएगा। इस युवा ने बहुत छोटा और सभी तथ्यों से पूर्ण सहज एवं बिना गुस्सा का इजहार किए एक आवेदन दिया। आवेदन इतना अच्छा था कि वहां की संसद ने इस पर वाद किया, विचार किया और इस नतीजे पर पहुंची कि चूंकि भारत एक गुलाम राष्ट्र है अतः भारतीयों को मतदान का अधिकार देने का कोई औचित्य नहीं है। इसके विरुद्ध गांधी ने दुनिया को नटाल प्रांत की संसद के माध्यम से भारतमाता को गौरवान्वित करते हुए बताया कि “भारत की नगरपालिकाओं में स्थानीय स्वशासन के लंबे अस्तित्व, जातियों के शासन के लिए आयोजित चुनावों, व्यापारिक समुदायों पर शासन करने के लिए चुनी गई परिषदों और भारतीय राज्य मैसूर द्वारा स्थापित प्रतिनिधि संसद” का इतिहास रहा है। भारत एक लोकतांत्रिक देश था और भविष्य में रहेगा, यह संदेश उन्होंने विश्व को अस्पष्ट रूप से दे दिया। इस लड़ाई के लिए उन्होनें नटाल में ही अपना डेरा जमा लिया। उस युवा ने वहीं अपनी जिंदगी दांव पर लगा दी- सिर्फ दूसरों के कल्याण के लिए।

और आप महानुभाव कहते हैं कि गांधी को कोई नहीं जानता था! धरती का फटना ही बाकी है!

मोहनदास करमचंद गांधी, महाराष्ट्र (अब गुजरात) के छोटे से गांव का एक लड़का, जो विलायत से वकालत की पढ़ाई करता है, उसने सत्य और प्रेम के सिवा कुछ नहीं सीखा। भगवान को किसी परिधि में बांधने के ख़िलाफ वह हमेशा अग्रणी रहते थे। उनका गीता पर जो भाष्य है उसमें वह अद्वैतवाद को बढ़ावा देते हुए स्पष्ट कहते हैं कि भगवान का कोई धर्म नहीं होता। यह दीगर बात है कि उनके शब्द नए हैं किंतु विचार नहीं; शिवमहिम्न स्तोत्र और श्रीमद्भगवतगीता भी तो यही कहती है।

वीएस नायपॉल कहते हैं, “उन्होंने भारत को उस तरह देखा जैसा कोई भारतीय नहीं देख सकता था; उनकी दृष्टि प्रत्यक्ष थी, और यह प्रत्यक्षता क्रांतिकारी थी और है।” जोसफ लेलीवेल्ड अपनी पुस्तक ‘ग्रेट सोल: महात्मा गांधी एंड हिज स्ट्रगल फॉर इंडिया’ में कहते हैं, “वह हमेशा एक स्वतंत्र संचालक रहे थे और निडरता से अपने उद्भेदन को लगभग पूरी तरह से अपने अनुभव के आधार पर बनाते थे।”

कौन कहता है कि गांधी को कोई जानता तक नहीं था? लेकिन जब आजादी थाली में परोसी हुई मिली हो, तो किसी को भी महापुरुष फिल्मों में ही दिखाई देंगे। जो भारतीय जनता अपने ही देश में विदेशियों द्वारा बर्बर और वहशी करार दी जाती रही हो उसके दंश को झेलने वाला यदि अपने ही लोगों के लिए आवाज उठाता हो और उसे सिर्फ सिनेमा के माध्यम से ही विख्यात मानने वाला यदि उसी देश का प्रधानमंत्री हो, तो जनता को एक बार ठहर कर सोचना चाहिए। प्रधानमंत्री को भी इस पर विचार करना चाहिए।

जैड एडम्स अपनी पुस्तक ‘गांधी: ट्रू मैन बिहाइंड मॉडर्न इंडिया’ में लिखते हैं, “अंत में, जब उनके पास घरेलू सूत (खादी) से सजे समर्थकों की एक फौज थी, तो वह केवल एक लंगोटी के अलावा नग्न होकर लगभग कुछ भी नहीं पहने हुए दिखाई दिए। यह वह छवि थी जो दुनिया भर में चली गई- एक साम्राज्य के खिलाफ एक लगभग नग्न पवित्र व्यक्ति। वह एक आइकन बन गए. उस समय केवल चार्ली चैपलिन और एडॉल्फ हिटलर ने ही अपनी छवि के लिए विश्वव्यापी पहचान हासिल की थी, जैसे कि हर कोई जानता था कि वे वास्तव में क्या चाहते थे।”

विंस्टन चर्चिल या फिर लॉर्ड लिनलिथगो या आइंस्टीन या फिर ऐटली ने गांधी के बारे में क्या कहा यह सभी जानते हैं।

एक नमक सत्याग्रही जब 60 वर्ष की उम्र में दांडी से 10 किलोमीटर दूर से सिर्फ 70-80 आदमी को लेकर आंदोलन शुरू करता है तो साम्राज्य को कभी नहीं लगता कि अगले 17 साल में उसे अपना बोरिया बिस्तर कारोबार की हानि के साथ समेटना पड़ेगा, लेकिन शर्मनाक है कि हमारे देश के प्रधानमंत्री चुनावी फायदे के लिए कह देते हैं कि गांधी को कोई नहीं जानता था। एक महीने बाद मई में गांधी को उनके 30000 अनुयायियों के साथ जेल में डाल दिया जाता है और वह औपनिवेशिक मानसिकता के लिए गली की हड्डी बन जाता है। ऐसा इन पंक्तियों का लेखक नहीं, वरन 1931 में टाइम पत्रिका कहती है। यह पत्रिका उन्हें ऐसा कहते हुए ‘शांत अंग्रेजी बुद्धि’ (कोल्ड इंग्लिश ब्रेन) का तमगा देती है।



टाइम पत्रिका ने 1931 के जनवरी महीने में गांधी की तस्वीर आवरण पर देते हुए लिखा, “दिलचस्प बात यह है कि साल के अंत में जेल में ही वह छोटा सा आधा नग्न भूरा आदमी मिला जिसका विश्व इतिहास पर 1930 का निशान निस्संदेह सबसे बड़ा होगा।

फ्रांसीसी लेखक रोमां रोलां कहते हैं कि डब्ल्यू. डब्ल्यू. पियर्सन जब 1918 में दक्षिण अफ्रीका में गांधी से मिले थे तो सहज रूप से उन्हें देखकर उनके दिल में असीसी के सेंट फ्रांसिस के बारे में खयाल आया। एक पवित्र व्यक्तित्व था उनका। एटकिंसन डॉमिनिक कहते हैं, “मूसा और गांधी ने बहुत अलग-अलग तरीकों से अपने लोगों को आजाद कराते समय कानून, न्याय और विश्वास की शक्ति को सामने लाया।”

स्‍लावोज जिजेक अपनी पुस्तक ‘वायलेंस’ में एक कहानी के माध्यम से समझाते हैं कि जब तानाशाह अपनी पर उतर जाए तो उसे मूल समेत उखाड़ फेंकने का एक ही रास्ता है और वह है गांधी का असहयोग आंदोलन। गांधी ने ही सिखाया था कि जब कभी सत्ता नशे में चूर हो तो असहयोग करो, हेकड़ी निकल जाएगी।

और आप इस मुगालते में रहे कि गांधी को कोई जानता तक नहीं था!

आज के इलेक्ट्रॉनिक लोकतंत्र का मतदाता, जिसे रील्स की आदत लग चुकी हो, वह असहयोग करने की स्थिति में नहीं है। अन्यथा चुनाव में किसी को यह कहने की हिम्मत नहीं होती कि मुसलमानों ने ईसाइयों से रविवार छीनकर शुक्रवार को दे दिया। एक गांधीवादी तो कतई इस बात को बर्दाश्‍त नहीं कर सकता। अंग्रेजों द्वारा पोषित और महिमामंडित छुआछूत को जब आर्यसमाजियों ने चुनौती देकर ब्राह्मणों द्वारा शूद्रों का अध्ययन-अध्यापन का कार्य शुरू किया तो गांधी जी शूद्रों को ‘हरिजन’ (यह शब्द अब असंसदीय करार दिया गया है) कहकर आत्मसम्‍मान दिलाया और उनके अध्ययन-अध्यापन को न सिर्फ स्वीकार किया वरन बढ़ावा भी दिया।

लुई फिशर कहते हैं, “गांवों में अछूत सबसे निचले बाहरी इलाके में रहते हैं जहां से गंदा पानी बहता है; शहरों में वे दुनिया की सबसे खराब मलिन बस्तियों के सबसे खराब हिस्सों में निवास करते हैं। अछूतों को उन कार्यों तक ही सीमित रखा जाता है जिन्हें हिंदू अस्वीकार करते हैं: सड़क की सफाई करना, मृत जानवरों और पुरुषों को संभालना, कूड़ा हटाना आदि।”

गांधी इसके लिए लड़े। उन्हें शूद्रों को न्याय दिलाना था। समानता को वह भगवान की आज्ञा मानते थे। अपनी आत्मकथा में गांधी स्वयं लिखते हैं, “मुझे एक अछूत उम्मीदवार को आश्रम में प्रवेश देने का पहला अवसर लेना चाहिए…।”

और आप कहते हैं कि गांधी को कोई जानता भी नहीं था!

गांधी की वकालत सिर्फ इंग्लैंड में नहीं, दक्षिण अफ्रीका में भी चलती थी। उनके प्रेम का संदेश रूस में भी फैला हुआ था। हमेशा अन्वेषण में रहने वाले गांधी लक्ष्य को केंद्रित करते रहते थे। समस्याओं को दूसरे के चश्मे से नहीं बल्कि अपने नजरिये से मूल्यांकन करना उनका शगल था। निर्णय पर पहुंचने की उन्‍हें जल्दीबाजी नहीं थी। उनका काम करने का ढंग उस समय भी कई विचारकों को प्रभावित करता था, आज भी करता है।

मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने तो अपनी आत्मकथा में कई बार गांधी का जिक्र किया। वह कहते हैं, “भारत में महात्मा गांधी के आंदोलन के बारे में नई बात यह थी कि उन्होंने आशा और प्रेम, आशा और अहिंसा पर क्रांति की शुरुआत की। यही नई अवधारणा हमारे देश के नागरिक अधिकार आंदोलन की विशेषता है जो 1956 के मोंटगोमरी बस बहिष्कार से लेकर 1965 के सेल्मा आंदोलन तक आजमाया गया।”

यह सब जानने-सीखने के लिए लोगों को पुस्तकालय में नियमित समय व्यतीत करना चाहिए अन्यथा भारतीय इतिहास के अस्तित्व पर अपने चुने हुए प्रधानमंत्री का अनर्गल प्रलाप सुनने को जनता अभिशप्‍त रहेगी।


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