‘एक मई’ दुनिया भर में श्रमिकों के संघर्ष के जश्न के रूप में ‘मजदूर दिवस’ के नाम से मनाया जाता है। इसे ‘अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस’ या ‘मई दिवस’ के रूप में भी जाना जाता है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संघों को बढ़ावा देने और प्रोत्साहित करने के लिए हर साल ‘एक मई’ को इसे पूरे विश्व में मनाया जाता है। किसी भी देश की तरक्की उस देश के किसानों तथा कामगारों (मजदूर/कारीगर) पर निर्भर होती है। एक समाज, देश, उद्योग, संस्था, व्यवसाय को खड़ा करने के लिये कामगारों (कर्मचारियों) की विशेष भूमिका होती है। अगर हम आज के मजदूर की बात करें, तो पूरे विश्व के सभी समाजों में इनकी स्थिति गंभीर है। ऐसे समय में जबकि पूरा विश्व, कोरोना महामारी की चपेट में आने से परेशान है, तब वैश्विक मजदूरों की स्थिति और अधिक विकट हो चली है। मार्क्सवादी दर्शन के अनुसार ‘हाथ’ मनुष्य और प्रकृति के बीच के द्वंद और उनके अंतरसंबंधों को समझने तथा एक बेहतर समाज का निर्माण करने की कला को विकसित करते हैं, जो कि एक सतत् प्रक्रिया है। अत: आज कोरोना महामारी के बढ़ते प्रकोप और मजदूरों की जीविका के सभी मार्गों के बंद हो जाने से काम और कामगारों का जीवन तमाम संकटों से घिर गया है।
‘पहली मई’ को दुनिया भर में मजदूर वर्ग की छुट्टी के दिन, सभी देशों के मजदूरों की एकजुटता के दिन के तौर पर कैसे मनाया जाने लगा? इस सवाल को समझने के लिए पहले हमें इतिहास में श्रमिक-प्रक्रिया, वर्ग संघर्ष और उत्पादन की प्रक्रिया को समझना होगा। मार्क्स के अनुसार, ‘पिछले सभी समाजों का इतिहास, वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है’। इन संघर्षो में ‘अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस’ भी एक लम्बे संघर्ष का परिणाम है।
वास्तव में ‘मई दिवस’ वैश्विक मजदूरों को दिनभर में कुल ‘आठ घंटे’ काम करने के लिए हुए संघर्ष से जन्मा था। यह संघर्ष मजदूर वर्ग के जीवन का न केवल हिस्सा बन गया, बल्कि उनकी ‘वर्ग चेतना’ का आधार स्तम्भ भी बना। मेहनतकश वर्ग करीब दस हजार साल पहले ही जब खेती का विकास हुआ तब से ही मौजूद रहा है। यह ऐसा समय था जब दास, अर्द्ध-दास, दस्तकार और दूसरे मेहनतकशों को अपनी मेहनत के फल/उत्पाद को शोषक वर्ग को सौंपने के लिए विवश होना पड़ता था।
मार्क्स ने इतिहास के चार चरण बताए हैं : पहला चरण- आदिम साम्यवाद (Primitive Communism)। इस समाज में किसी वर्ग विशेष की अवधारणा नहीं थी और मनुष्य छोटे-छोटे कबीलों में रहता था। कबीलों में सभी लोगों का स्तर एक समान होता था। योग्यता के आधार पर कबीले के लोग अपने समूह में से किसी एक व्यक्ति का चुनाव कबीला प्रमुख (मुखिया) के तौर पर करते थे। वह मुखिया/प्रमुख बाह्य आक्रमणों से कबीले के लोगों की रक्षा करता था।
दूसरा चरण- दास समाज (Slave Society), इस समय समाज दो वर्गों में विभाजित हो गया था – स्वामी और दास। इस समाज में ‘अतिरिक्त उत्पादन’ होने लगा था।
तीसरा चरण – सामंतवाद (Feudalism) है। यह समाज सामंत और कृषि श्रमिक भागों में बटा हुआ था। इसमें सामंतों का बोलबाला था। दास और सामंतवादी समाज में उत्पादन का साधन भूमि थी।
चौथा चरण – औद्योगिक पूँजीवाद (Capitalism) है। इसके अंतर्गत उत्पादन के साधन पूंजी और मशीन हैं। यह चरण पूंजीपति और श्रमिक वर्ग में विभाजित है। इस समाज में लाभ के लिए उत्पादन होता है और अधिकांशत: मजदूर वर्ग का अतिरिक्त उत्पादन के लिए शोषण किया जाता है लेकिन आधुनिक मेहनतकश वर्ग, ‘मुक्त श्रमिक का वर्ग’ कुछ सौ साल पहले ही पैदा हुआ। इस वर्ग का शोषण मजदूरी की व्यवस्था की आड़ में ढंका होता है, लेकिन यह कम खतरनाक नहीं है।
आधुनिक पूंजीवाद की परिधि को समझने और इसमें धन संचय की प्रक्रिया को जानने के लिए तीन बातें महत्वपूर्ण हैं – पहला, पूंजीवाद में भूमि, धन संचय का आधार है जिसको क्रय-विक्रय में तब्दील कर दिया जाता है। दूसरा, किसानों और कामगारों से कम पारिश्रमिक पर काम लेना। तीसरा, श्रम का मुख्य उद्देश्य है व्यक्तिगत और सामाजिक जरूरतों, उपभोग की जगह बाजार की जरूरतों के अनुसार उत्पादन और क्रय-विक्रय करना। पूंजीवादी व्यवस्था ने सामंती व्यवस्था में प्रचलित दास और बंधुआ मजदूरी से निजात तो दिलाई, लेकिन दूसरी तरफ आज मजदूरों को दो जून की रोटी के लिए बेहद ख़राब परिस्थितियों में दस या बारह घंटे तक काम करना पड़ता है। अतः नवउदारवादी व्यवस्था और श्रमिक दिवस का इतिहास ‘काम के कुल समय’ से सम्बंधित है।
प्रायः पूंजीवाद का आधार व उसकी परिधि स्वहित, तर्कपूर्ण प्रतियोगिता, स्वनियंत्रित बाजार और निजी संपत्ति के इर्द-गिर्द घूमती है। पूंजीवादी विचारधारा में समाज का प्रभुत्वशाली वर्ग सामाजिक और आर्थिक पूंजी पर अपना अधिकार स्थापित करके, उत्पादन के प्रमुख साधनों पर नियंत्रण कर लेता है। यही कारण है कि ब्रिटिश दार्शनिक ‘बर्ट्रेंड रसेल’ ने ‘व्यक्तिवाद और स्वतंत्रता’ को पूंजीवाद के दो आधारभूत तत्त्व बताया है। इसमें (पूँजीवाद में) स्वतंत्रता, कुलीन और अमीर लोगों के उत्पादन के साधनों के द्वारा अपनी निजी संपत्ति में वृद्धि करना होता है।
मजदूर दिवस का इतिहास
पूंजीवाद के विकास के समय मजदूरों को 12 से 16 घंटे तक काम करना पड़ता था। कभी-कभी मजदूर काम करते-करते बेहोश हो जाते थे और मर भी जाते थे। ऐसी विकराल परिस्थियों को देखते हुए यह मांग उठने लगी कि काम के घंटे निर्धारित होने चाहिए। 19वीं शताब्दी के अंत तक श्रमिकों ने स्थायी वेतन के साथ बेहतर काम करने की स्थिति की मांग शुरू कर दी थी। श्रमिकों ने 8 घंटे दिन में काम करने की मांग की, जिससे उन्हें आराम और मनोरंजन के लिए पर्याप्त समय मिल पाए। वर्ष 1886 में 4 मई के दिन ‘शिकागो’ शहर के ‘हेमार्केट चौक’ पर मजदूरों का जमावड़ा लगा हुआ था। मजदूरों नें उस समय आम हड़ताल की थी। इसका मुख्य कारण मजदूरों से बेहिसाब काम कराना था। मजदूर चाहते थे कि उनसे दिन भर में आठ घंटे से अधिक काम न कराया जाए। मौके पर कोई अप्रिय घटना ना हो जाये, इसलिये वहाँ पर स्थानीय पुलिस भी मौजूद थी। तभी अचानक किसी अज्ञात व्यक्ति द्वारा भीड़ पर एक बम फेंका गया। इस घटना से वहाँ मौजूद शिकागो पुलिस ने मजदूरों की भीड़ को तितर-बितर करने के लिये एक्शन लिया और भीड़ पर फायरिंग शुरू कर दी। इस घटना में कुछ प्रदर्शनकारियों की मौत हो गयी। 1889 में पेरिस में अंतरराष्ट्रीय महासभा की द्वितीय बैठक में ‘फ्रेंच क्रांति’ को याद करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया गया कि इसको ‘अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस’ के रूप में मनाया जाए, उसी समय से विश्व भर के 80 देशों में ‘मई दिवस’ को राष्ट्रीय अवकाश के रूप में मान्यता प्रदान की गई।
भारत में पहली बार मजदूर दिवस पहली मई, 1923 को ‘मद्रास’ में ‘मलयपुरम सिंगरावेलु चेट्टियार’ के नेतृत्व में मनाया गया। एम. सिंगारवेलु ने उसी दिन मजदूर संघ के रूप में ‘लेबर किसान पार्टी ऑफ हिंदुस्तान’ की स्थापना की। इस दिन भारत में पहली बार ‘लाल झंडा’ भी इस्तेमाल किया गया।
आजादी के इतने साल बाद भी श्रमिक वर्ग लगातार अपनी मांगों और मूलभूत सुविधाओं के लिए संघर्षरत है। श्रमिक संघर्ष अब भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा बना हुआ है क्योंकि नव-उदारवादी विश्व व्यवस्था के तहत श्रमिकों का शोषण और दमन अब भी जारी है। कोरोना महामारी भी भूमण्डलीय पूँजीवाद या नव उदारवादी और पर्यावरणीय शोषणकारी मानसिकता को पुष्ट करने में कहीं न कहीं सहयोगी हो रही है।
कोरोना संकट और मजदूर
आज पूरा विश्व कोविड- 19 के सामने विवश और मजबूर है। किसी भी देश के पास इस बीमारी से निजात पाने लिये दमदार और उपयुक्त साधन-संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। इसी के साथ ही सामाजिक-आर्थिक स्तर की बहुस्तरीय पर्तें इस आपदा से जूझने वाले लोगों के लिए एक समान नहीं हैं। इस महामारी का बुरा असर सभी देशों के समाजों पर गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी और इसके संक्रमण से हजारों की संख्या में हो रही मौतों के रूप में पड़ रहा है लेकिन इस महामारी के कारण सबसे ज्यादा ख़राब स्थिति मजदूर वर्ग की हुई है।
इस वर्ग के ज्यादातर लोगों के पास स्थायी तौर पर रहने के लिए आवास की उचित सुविधा नहीं है। यहाँ तक कि खाने-पीने के लिए भी इन्हें दैनिक मजदूरी पर ही निर्भर रहना पड़ता है। अब ऐसे में सब कुछ बन्द हो जाने से तथा रोज़गार समाप्त हो जाने से इन लोगों का जीवन संकटों से घिर गया है और लोग बीमारी से कम परन्तु भूख से ज्यादा परेशान हैं।
भारत जैसे जनसंख्या बाहुल्य वाले देश में मजदूरों को विभिन्न समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। कोरोना महामारी की भयावह स्थिति को रोकने के लिए देश में अब तक दो चरणों में लॉकडाउन का ऐलान किया जा चुका है, जिसकी वजह से दूर-दराज के इलाकों, शहरों, महानगरों में काम करने वाले लोग वापस अपने घरों की ओर पलायन करने को विवश हो गये हैं। भारत में प्रवासी कामगारों की संख्या कम से कम 120 मिलियन है। संभवतः इनकी कुल संख्या इस अनुमान से अधिक भी हो सकती है। कोरोना महामारी और पूंजीवाद के सकंट के इस दौर में वे अब अपने घरेलू गाँव, शहरी क्षेत्रों से सैकड़ों या हजारों मील दूर पलायन कर रहे हैं। इस पलायन के परिणामस्वरूप सड़क दुर्घटनाओं में दर्जनों लोग मारे गए हैं।
यहां तक कि नवउदारवादी आर्थिक नीतियों का पुरजोर अनुसरण करने वाले विद्वानों और राजनीतिज्ञों के पास भी इन मज़दूरों के सवालों का एक स्पष्ट जवाब नहीं है। इन मजदूरों का अपने घर से शहर की ओर पलायन करने और पूँजीवादी और नवउदारवादी नीतियों के कारण गाँव-शहर, अमीर-ग़रीब और सरकारी-व्यक्तिगत चिकित्सालयों के बीच की खाईं देखने को मिलती है।
भारत में अधिकारिक तौर पर ‘श्रम’ समवर्ती सूची का विषय है। श्रम के सम्बन्ध में केंद्र सरकार और राज्य सरकार, दोनों को कानून बनाने और कार्य करने का अधिकार है। अंतर-राज्यिक प्रवासी कर्मकार (नियोजन का विनिमय और सेवा शर्ते) अधिनियम, 1979 में उल्लेख है कि प्रत्येक राज्य के श्रम विभाग प्रवासी मजदूरों पर निगरानी कर सकते हैं और असंगठित श्रम क्षेत्रों में नियोक्ताओं की भर्ती और प्रवासियों के शोषण को रोकने के लिए उनकी सुरक्षा सुनिश्चित कर सकते हैं। किन्तु यह प्रावधान लगभग ठीक से लागू नहीं हुए हैं, जिसके परिणामस्वरूप भारत में प्रवासी मजदूरों की सुरक्षा में कमी दिखाई देती है।
अगर हम कोरोना के इस भयावह संकट के दौरान दिल्ली और अन्य अनेक राज्यों में अंतर्राज्यीय पलायन के दौरान भूख और अनिश्चितता की बात करें, तो इन प्रावासी मजदूरों की स्थिति शीर्ष पर है। प्रवासी मजदूरों के साथ-साथ सेक्स वर्कर, चरवाहे, निर्माण कार्य करने वाले मजदूर, रिक्शाचालक, मछुआरे, बंजारे आदि का अस्तित्व या यूँ कहें कि उनका भविष्य ही खतरे में है।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) और आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) के द्वारा किये गए सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार भारत में कुल मिलाकर लगभग 136 मिलियन गैर-कृषि रोजगार तत्काल जोखिम में हैं। बहुत से सामान्य भारतीय अपने स्वास्थ्य की देखभाल तक नहीं कर पाते हैं और इस महामारी के समय में वे अधिकांश मजदूर, जिन्हें दो समय का भोजन तक उपलब्ध नहीं हो पा रहा है, वे प्राथमिक उपचार सेवा तक का उपभोग नहीं कर पा रहे हैं।
यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत में कोरोनो वायरस की चपेट में आने से सबसे खतरनाक मंजर भारत की 70% जनसंख्या जो कि मजदूर और निम्न मध्यवर्गीय लोगों की है, को देखना पड़ रहा है। यह कुछ सीमा तक नवउदारवादी आर्थिक नीतियों और मजदूर कानूनों को नजरंदाज करने का परिणाम कहा जा सकता है।
लेखिका गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय, गांधीनगर, गुजरात में पीएचडी शाेधार्थी हैं