आज़ाद भारत में दलित सशक्तिकरण के तीसरे चरण की शुरुआत


मल्लिकार्जुन खड़गे ने कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद संभाल लिया। बाबू जगजीवन राम के बाद वे दलित समाज से आने वाले दूसरे कांग्रेस अध्यक्ष हैं। यह बदलाव न सिर्फ राष्ट्रीय राजनीति बल्कि कांग्रेस की आंतरिक राजनीति में भी अहम मोड़ है क्योंकि एक तरफ जहां दलित वर्ग में संविधान-प्रदत्त अधिकारों पर भाजपा सरकारों द्वारा किये जा रहे हमलों से बेचैनी है तो वहीं कांग्रेस, अस्मितावादी दलित और पिछड़ावादी राजनीति द्वारा बनायी गयी अपनी सवर्ण प्रभुत्व वाली पार्टी की छवि से भी मुक्त होती दिख रही है। 

इसीलिए इस बदलाव पर व्यापक प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है। भाजपा के नेता उनके चुनाव को पहले से तय पटकथा बता रहे हैं, तो बसपा प्रमुख मायावती की प्रतिक्रिया और ज्‍यादा झल्लाहट व असुरक्षाबोध वाली है।

संघ और भाजपा के लिए खड़गे इसलिए चुनौती हैं क्‍योंकि दलितों के बीच उसने अपनी जो भी पैठ बनायी है वह हिंदुत्व और मुस्लिम-विरोध जैसे नकारात्मक एजेंडे पर टिका है। उसे उसने अधिकार-संपन्न करके नहीं जोड़ा है, जैसा कि कांग्रेस की सरकारों ने किया था। मसलन, नेहरू सरकार ने जमींदारी उन्मूलन करके दलितों पर सामंती पकड़ को कमजोर किया था और इंदिरा गांधी की सरकार ने भूमिहीन दलितों को जमीन के पट्टे देकर मजबूत किया था। इंदिरा गांधी ने 1979 में दलित और आदिवासी वर्ग के लिए बजट में विशेष प्रवधान देने वाला स्पेशल कंपोनेंट प्लान बनाया था। इस सिलसिले को आप मनमोहन सिंह की सरकार की योजनाओं में भी देख सकते हैं, जिसका सबसे ज्‍यादा फायदा दलित वर्ग को मिला था। इन सब योजनाओं ने दलितों को एक ठोस सामाजिक-आर्थिक जमीन उपलब्ध करायी जिस पर वे अपनी स्वतंत्र राजनैतिक हैसियत खड़ी कर सके।

कांग्रेस के संकटकालीन अध्यक्ष की वैचारिक व रणनीतिक चुनौतियां

इसके उलट मोदी सरकार ने उनके सशक्तिकरण को अगले चरण में ले जाने के बजाय इन सभी अधिकारों में कटौती ही की है। यह सब एक रणनीति के तहत किया गया जिसका मकसद दलितों को फिर से अधीन करना है। आप इस बारीक खेल को अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार द्वारा सरकारी कर्मचारियों के पेंशन को बंद कर देने के फैसले से भी समझ सकते हैं। एक आम दलित कर्मचारी अपनी पेंशन से मिलने वाली आर्थिक सुरक्षा के कारण सेवानिवृति के बाद भी अपनी सामाजिक और राजनीतिक सक्रियता को बनाए रखता था क्योंकि पहले से संपन्न सवर्ण तबके के मुकाबले उसकी पेंशन ही उसे बुढ़ापे में सक्रिय रहने का साहस देती थी। अस्‍सी-नब्‍बे के दशक में दलितों और अन्य कमजोर तबकों के राजनीतिक सशक्तिकरण की प्रक्रिया में इन रिटायर्ड कर्मचारियों की बड़ी भूमिका रही है जबकि उनके मुकाबिल सामाजिक परिवर्तन को रोकने वाली सामाजिक-राजनीतिक प्रक्रियाओं के हिस्सेदार रिटायर्ड सवर्ण कर्मचारियों की निर्भरता सिर्फ पेंशन पर नहीं रही है। वे बहुत हद तक अन्य कारणों से सक्षम रहे हैं। पेंशन बन्द होने के बाद दलितों के आंतरिक सशक्तिकरण की यह प्रक्रिया बहुत हद तक रुक गयी है।

भाजपा सरकार द्वारा उन्हें कमजोर करने के इन षड्यंत्रों से दलित वर्ग में बेचैनी है। भाजपा के लिए भी अब इन्हें रोक पाना चुनौती बनती जा रही है। ऐसे में कांग्रेस खड़गे के चेहरे और राहुल और प्रियंका गांधी के दलितों के पक्ष में खड़े रहने वाले नेता की छवि के मिश्रण से हिंदी बेल्ट में इन्हें फिर से अपने साथ ला सकती है।

मायावती को यह चिंता है कि दलितों के बीच एक नया युवा और जागरूक तबका अस्तित्व में आ चुका है जो अपनी खोखली राजनीतिक पहचान से अब और ज्‍यादा की इच्छा रखता है। उसे दलितों के विरुद्ध हिंसा पर चुप रहने वाली पार्टी अब पसंद नहीं है, जिसका इन घटनाओं से वोट और मजबूत होता था। उसे अब रोहित वेमुला, उना या हाथरस जैसी दलित उत्पीड़न की घटनाओं पर खुल कर मैदान में खड़े होने वाले नेतृत्व की ज़रूरत है। चार बार मुख्यमंत्री रही बसपा नेता को पांचवीं बार मुख्यमंत्री बनाने के बजाय उसकी दिलचस्पी अब अपने उस सामाजिक और लोकतांत्रिक स्पेस को बचाने में ज्‍यादा है जो कांग्रेस की सरकारों में उसे मिले थे।

‘वल्गर’ समाजवाद व आइडेंटिटी पॉलिटिक्स की वैचारिकी की भूलभुलैया और कांग्रेस का भविष्य

आठ साल के अपने तजुर्बे से उसे यह भी समझ में आने लगा है कि भाजपा के ‘कांग्रेसमुक्त भारत’ के नारे का वास्तविक अर्थ संविधानमुक्त भारत है, जिसका सबसे ज्‍यादा नुकसान दलितों को होगा। ऐसे में राहुल गांधी या प्रियंका गांधी उसे वैचारिक और भावनात्मक लिहाज से ज्‍यादा अपील करते हैं। अब तक कांग्रेस के भीतर कोई दलित चेहरा शीर्ष पर नहीं होने के कारण यह अपील चुनावी राजनीति में कोई सार्थक परिणाम नहीं दे पाती थी। अब राष्ट्रीय अध्यक्ष के बतौर मल्लिकार्जुन खड़गे और उत्तर प्रदेश अध्यक्ष के बतौर दलित समाज से आने वाले बृजलाल खाबरी के रूप में कांग्रेस के पास यह चेहरे भी हैं।

मायावती जी की भाजपा के सामने वैचारिक पोजिशनिंग का अंदाजा उपराष्ट्रपति चुनाव में भाजपा प्रत्याशी जगदीप धनखड़ को समर्थन देने के साथ आये उनके बयान से लग जाता है जब उन्होंने इसे बसपा के मूवमेंट के लिए जरूरी बताया था। दलित वर्ग इस पर जरूर सोच रहा है कि बसपा के मूवमेंट के लिए भाजपा को समर्थन देते हुए कांग्रेस के प्रत्याशी के खिलाफ़ जाना कैसे जरूरी है। वह बसपा को संदेह से देखने लगा है।

मल्लिकार्जुन खड़गे के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के इस ऐतिहासिक अवसर पर राहुल गांधी द्वारा 2013 में नयी दिल्ली में आयोजित अनुसूचित वर्गों के सशक्तिकरण के कार्यक्रम में दिये भाषण को ध्यान में रखना चाहिए। उन्होंने दलित वर्ग के राजनीतिक विकास को तीन चरणों में व्याख्यायित करते हुए कहा था कि पहला चरण डॉ. अम्बेडकर का था जिन्होंने कांग्रेस सरकार के सहयोग से ऐसा संविधान तैयार किया जिसने आरक्षण की व्यवस्था दी। दूसरा चरण कांशीराम का था जिन्होंने आरक्षण से मजबूत हुए वर्ग में संगठन बनाया। अब तीसरे चरण की ज़रूरत बड़ी संख्या में दलित नेताओं का निर्माण है, लेकिन मायावती ने अपने अलावा किसी और को विकसित नहीं होने दिया। उस भाषण में राहुल गांधी ने यह भी कहा था कि कांग्रेस के पास ऐसे 40-50 दलित नेता होने चाहिए जिनके बारे में लोग कह सकें कि यह बेहतर प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री साबित होंगे। मल्लिकार्जुन खड़गे का कांग्रेस अध्यक्ष बनना राहुल गांधी की इसी परिकल्पना को जमीन पर उतारने की कोशिश के बतौर देखा जाना चाहिए। इसे दलित वर्ग में नये नेतृत्व के विकास के तीसरे चरण की शुरुआत भी कहा जा सकता है।


लेखक उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक कांग्रेस के अध्यक्ष हैं


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