ओडिशा के सबसे बड़े व्यापारिक केंद्र कटक में लोग शहरी रोजगार गारंटी की मांग क्यों कर रहे हैं?


महानदी की गोद में स्थित ओडिशा के दूसरे सबसे बड़े शहर और यहां की व्यापारिक राजधानी कटक में आम लोगों पर कोविड-19 लॉकडाउन के प्रभाव को समझने के लिए हमने 1 से 5 जून के दौरान 122 फोन कॉल किए जिसमें 595 व्यक्तियों को शामिल किया गया। उत्तरदाताओं में विविध व्यवसायों से लोग शामिल थे, जैसे ऑटोरिक्शा चालक, पान की दुकान चलाने वाले, घरेलू सहायक, मछली-मांस-सब्जी-फल विक्रेता, किराना दुकान के मालिक, लॉन्ड्री के मालिक, दर्जी, फोटोकॉपी दुकान मालिक, दूधिया, ट्रॉली खींचने वाले, एसी मैकेनिक, ड्राइवर, सिक्योरिटी गार्ड, निर्माण पर्यवेक्षक, दीवार की पुताई करने वाले मजदूर, राजमिस्त्री, अधिवक्ता, छापेखाने के मालिक, दिहाड़ी मजदूर, कटक के प्रसिद्ध नाश्ता (दहीबड़ा-आलूदम) के विक्रेता आदि, जिन्हें शहर के सभी प्रमुख स्थलों से चुना गया था।

प्रति व्यक्ति प्रतिमाह आय के हिसाब से इन्हें पाँच वर्गों के परिवारों में बांटा जा सकता है: प्रति व्यक्ति आय 727 रुपये से 2222 रुपये के बीच; 2250 रुपये से 3182 रुपये के बीच; 3333 रुपये से 4286 रुपये के बीच; 5000 रुपये से 8000 रुपये के बीच और 8333 रुपये से 25000 रुपये के बीच। 18 से 75 साल की उम्र के बीच 18 महिला और 104 पुरुष उत्तरदाता थे। अन्य पिछड़ी जातियों के 34 परिवार, अनुसूचित जाति के 8 परिवार, 3 परिवार अनुसूचित जनजाति के, 2 परिवार मुस्लिम थे और बाकी 75 अनारक्षित हिंदू परिवार थे। 23 उत्तरदाता स्नातक थे और 29 ऐसे थे जो मैट्रिक की परीक्षा (दसवीं कक्षा) पार नहीं कर सके। बाकी 70 उत्तरदाता मैट्रिक या हायर सेकंडरी (12वीं  कक्षा) पास थे। परिवार का आकार 2 से 11 सदस्यों के बीच था और इन परिवारों में कमाई करने वाले सदस्यों की संख्या 1 से 3 तक थी। हमारे नमूने में कमाने वाली महिला सदस्य वाले केवल 9 परिवार हैं। एक ही परिवार ऐसा है जहां एकमात्र कमाऊ सदस्य एक महिला है- वह घरेलू सहायक के रूप में काम करती है और 4 सदस्यों का परिवार चलाने के लिए 5800 रुपये कमाती है। सैंपल में सबसे गरीब परिवार 11 सदस्यों वाला है जिसमें सिर्फ एक कमाऊ सदस्य है जो 58 साल का है। हमारे सैम्पल में एक परिवार की औसत सदस्यता 5 से थोड़ा कम की है। कुल 122 परिवारों के हमारे नमूने में ऐसे 41 परिवार हैं जहां कमाने वाला सदस्य एक से ज्यादा है।

नौकरी का जाना विशेष रूप से स्वरोजगाररत लोगों और ठेका मजदूरों के लिए प्रमुख चिंता का विषय है। लॉकडाउन के दौरान काम की अनुपलब्धता के कारण दैनिक मजदूरी कमाने वालों को सबसे ज्यादा परेशानी हुई। अप्रैल और मई के दौरान उनकी औसत मासिक आय लगभग शून्य पर आ गई। एसी मिस्त्री, दीवार की पुताई करने वाले, बिजली मिस्त्री, आदि व्यवसायों में नियोजित लोगों को कोरोना वायरस के संक्रमण के डर के कारण ग्राहक नहीं मिले। मार्च के मध्य से मई के आरंभ तक घरेलू कामगारों को लोगों ने काम से हटा दिया और उन्हें पूरी तनख्वाह नहीं दी गई। सड़क पर खाने पीने की सामग्री का खोमचा और रेहड़ी लगाने वालों को बहुत नुकसान हुआ लेकिन उनमें से कुछ ने स्थानीय डिलीवरी करके चुपछाप अपनी आमदनी कायम रखी। काम धंधे के लिए तय  समयावधि में वे जो कुछ भी कर पाते, सोशल मीडिया के मंचों पर फैलाई गई अफवाहों ने उस पर भी असर डाला। मार्च और अप्रैल के दौरान मुर्गे की बिक्री में भी गिरावट देखी गई क्योंकि डब्ल्यूएचओ और ओडिशा सरकार के यह स्पष्ट करने के बावजूद कि मुर्गा खाना सुरक्षित है, लोगों ने कोरोना के डर से मुर्गे का सेवन बंद कर दिया था। उस दौरान ओडिशा में अधिकांश स्थानों पर मुर्गा केवल 20 रुपये प्रति किलोग्राम पर उपलब्ध था। इसके उलट, ऐसी अफवाहों के अभाव में मछली विक्रेताओं ने उस बीच अच्छा कारोबार किया और आने वाले दिनों में अनुपलब्धता के डर से लोगों ने अपने घरों में मछली इकट्ठा करना शुरू कर दिया। जाहिर है, लॉकडाउन के दौरान राजमिस्त्री, ट्रॉली खींचने वाले, ऑटोरिक्शा चालक और टैक्सी ड्राइवरों के पास कोई काम नहीं था।

लॉकडाउन का सबसे गंभीर असर परिवारों की आय में गिरावट और इसके चलते खर्चों पर पड़े प्रभाव में देखा जा सकता है। विभिन्न आय वर्गों के लिए लॉकडाउन से पहले मासिक प्रतिव्यक्ति आय और लॉकडाउन के दौरान मासिक प्रतिव्यक्ति आय के अनुपात को यदि हम देखें, तो हम पाते हैं कि यह अनुपात शीर्ष 20 फीसदी परिवारों के लिए महज 35 फीसदी है जबकि सबसे नीचे के 20 फीसदी परिवारों के लिए यह 85 फेससदी तक जाता है (नीचे ग्राफ देखें)। यह सच है कि खपत की प्रवृत्ति जनसंख्या के गरीब वर्ग में अपेक्षाकृत ज्यादा है, लेकिन यह भी सच है कि गरीब लोग अपने व्यय में ज्यादा कटौती नहीं कर सकते क्योंकि वे ज्यादातर बुनियादी आवश्यकता की वस्तुओं और सेवाओं का ही उपभोग करते हैं। इस लिहाज से कहें तो उनके खपत पर व्यय वैसे भी जिंदा रहने के लिए न्यूनतम स्तर का व्यय है। ऐसे में आय का न होना या उसमें गिरावट की सूरत में जरूरी खर्चों को पूरा करने में गंभीर समस्या का कारण बन सकती है जिसके चलते उन्हें या तो अपनी पिछली बचत का उपभोग करना पड़ता है या उधार लेना पड़ता है, जिससे वे कर्ज की चपेट में आ जाते हैं।

स्रोत: कटक में 1 से 3 जून, 2020 के बीच किया गया टेलीफोनिक सर्वेक्षण

अध्ययन का एक प्रमुख निष्कर्ष यह है कि लोगों में नौकरी का सुरक्षा बोध समाप्त हो गया था।  केवल 15 उत्तरदाताओं (नमूने का 12 फीसदी) ने कहा है कि लॉकडाउन के बाद उनकी अपेक्षित औसत मासिक समान कायम रहेगी। 52 उत्तरदाताओं ने इस बारे में कहा है कि ‘उन्हें इसका कोई अंदाज नहीं है’ और बाकी 55 लोगों ने कहा कि उनकी मासिक आय औसतन एक-तिहाई के आसपास रहने जा रही है। इसलिए, लॉकडाउन खत्म होने के बाद की स्थिति को लेकर विभिन्न व्यावसायिक पृष्ठभूमि के लोगों के मन में अत्यधिक असुरक्षा और भय का भाव है। 90 फीसदी से अधिक उत्तरदाताओं ने राय दी है कि शहरी भारत के लिए भी मनरेगा की तरह ही रोजगार के एक अंतिम उपाय की तत्काल आवश्यकता है। ध्यान देने की बात है कि यह राय ओडिशा की व्यावसायिक राजधानी में किये गए सर्वेक्षण से निकाल कर आ रही है, देश के अन्य छोटे शहरों और जिला कस्बों, उप-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों को तो छोड़ ही दें।

संकट के ऐसे दौर में सरकारी योजनाएं जनता तक अपेक्षा के अनुरूप नहीं पहुंची हैं। 28 फीसदी लोगों ने बताया है कि पीएम गरीब कल्याण योजना (पीएमजीकेवाई) की घोषणा के 2 महीने बाद भी लॉकडाउन के दौरान उन्हें कोई मुफ्त राशन नहीं मिला है। केवल एक चौथाई उत्तरदाताओं ने जन-धन खाता होने की बात स्वीकार की और धन प्राप्त किया। सर्वे में शामिल किसी भी व्यक्ति ने लॉकडाउन के दौरान मुफ्त गैस सिलेंडर मिलने की सूचना नहीं दी। ये तीन वादे पीएमजीकेवाई में ठोस शब्दों में मार्च में किए गए  थे। इसलिए, अत्यधिक अनिश्चितता और कमजोरियों के इस दौर में घोषित योजनाओं के उचित कार्यान्वयन का अभाव सरकार की ओर से ध्यान और हस्तक्षेप की मांग करता है।

हमने परिवारों से स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों के बारे में भी पूछताछ की। हमने पाया कि अधिकांश परिवारों में हालांकि स्वास्थ्य को लेकर बहुत दिक्कत नहीं रही लेकिन मौजूदा बीमारियों का उपचार इस दौरान गंभीर रूप से प्रभावित हुआ और उनसे समझौता किया गया। कुछ मामलों में तो मधुमेह, हृदय रोग, एलर्जी आदि से पीड़ित लोग इस भय से अस्पताल नहीं गए कि अगर उस अस्पताल में कोई कोविड पाज़िटिव रोगी मौजूद हुआ तो उसके संपर्क में आने के चलते उन्हें कहीं संगरोध केंद्र में बंद न कर दिया जाये। इसके अलावा, कई डॉक्टरों ने भी संक्रमित होने का डर से रोगियों को देखने से इनकार कर दिया।

हमने लोगों से सरकार से उनकी अपेक्षाओं के बारे में पूछा। उनमें से अधिकांश ने शहरी क्षेत्रों में किसी प्रकार की रोजगार गारंटी (कुछ बेरोजगारी लाभों के लिए प्रावधान के साथ) के लिए सुझाव दिया। इसके अलावा, उन्होंने उचित सुरक्षा उपायों और सार्वजनिक क्षेत्र की स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ ही अर्थव्यवस्था को दोबारा खोलने की बात कही। हाल ही में ओडिशा सरकार ने शनिवार और रविवार को पूर्ण शटडाउन की घोषणा की है- कई लोग इसके खिलाफ हैं। लोगों ने अपने व्यवसाय फिर से शुरू करने के लिए ऋण और नकदी की मांग की है। निजी स्कूलों में भी शिक्षा पर सब्सिडी देने की मांग उठ रही है और लॉकडाउन के कारण हुए  आय के नुकसान की भरपाई के लिए नकद हस्तांतरण की भी मांग की जा रही है।

लॉकडाउन लंबा खिंच जाने और आय में हुए नुकसान के चलते शुरुआत में व्यापक भलाई के लिहाज से लोगों ने लॉकडाउन का जो समर्थन किया था, अब वह छीज रहा है। जनता के बीच यह भावना है कि अपनी जिम्मेदारी से पल झाड़ने के लिए सरकार ने लॉकडाउन लागू किया है और लोगों को अपनी किस्मत के भरोसे छोड़ दिया है। हताशा की भावना स्पष्ट है इसलिए सरकार को उनकी भावनाओं को शांत करने के लिए तत्काल कदम उठाने चाहिए। ऐसा जितनी जल्दी हो, उतना ही अच्छा होगा।


सुरजीत दास सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। मधुब्रता रायसिंह नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, ओडिशा में अर्थशास्त्र की सहायक प्रोफेसर हैं। लेखकद्वय अपने शोध में सहयोग के लिए सम्यक मोहंती और सिद्धार्थ आनंद पंडा (एलएलबी पांचवें वर्ष में एनएलयूओ के छात्र) के ऋणी हैं।


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