एक बीमार स्वास्थ्य तंत्र में मुनाफाखोरी का ज़हर और कोरोना काल का कहर


इन बंद कमरों में मेरी सांस घुटी जाती है
खिड़कियाँ खोलता हूं तो ज़हरीली हवा आती है

यह किसी अज्ञात रचनाकार की पंक्ति थी जिसे कमलेश्वर ने अपनी चर्चित रचना ‘कितने पाकिस्तान’ में जगह दी थी. अपनी रचना के समय इसका महज एक प्रतीकात्मक या साहित्यिक महत्त्व रहा होगा, लेकिन आज यह अपनी प्रतीकात्मकता से बहुत ऊपर उठकर एक ऐसा क्रूर सच बन चुका है जिसे हर वर्ग और समुदाय का व्यक्ति गहराई से महसूस कर रहा है.

‘कितने पाकिस्तान’ में अदीब के दरवाजों और खिड़कियों पर लाशों की दस्तकें होती थी, चीख-पुकार मची होती थी और उसकी अदालत अपनी तरह का न्याय कर रही होती थी. आज लाशों की दस्तक और चीख-पुकार महज साहित्यिक कल्पना नहीं, बल्कि हमारे आम जीवन का एक खौफनाक मंजर बन गया है. दुर्भाग्य से यहां न कोई “अदीब” है और न उसकी “न्याय की अदालत”. आज हम लिख रहे हैं, लेखन से लगाव के कारण नहीं, बल्कि इसलिए कि इसके अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं है. हम बस लोगों को मरते हुए देख रहे हैं, हमारी पूरी ताकत भी उन्हें अकाल मृत्यु से नहीं बचा पा रही है. यह विकल्पहीनता की स्थिति केवल हमारी नहीं, बल्कि शायद उस विशाल सत्ता की भी है जिसने अपनी विशाल योजनाओं में स्वास्थ्य को महत्व का विषय ही नहीं माना. अगर ये हमारा केन्द्रीय सरोकार होता तो ऐसी तबाही नहीं आती.

दुनिया में एक आदर्श स्वास्थ्य बजट के लिए कम से कम सात से आठ प्रतिशत का प्रावधान एक आदर्श स्थिति मानी जाती है, लेकिन वर्ष 2017 के बजट में भारत में इसके लिए लगभग एक प्रतिशत का ही आवंटन रखा गया था. अमेरिका में उसी वर्ष यह लगभग नौ प्रतिशत तक था और ब्राजील जैसे विकासशील देश में भी यह बजट चार प्रतिशत का था. आश्चर्य की बात है कि यहां वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिए भी यह बजट दो प्रतिशत तक भी नहीं पहुँच सका.

स्वास्थ्य जैसे गंभीर मुद्दे का कमोबेश सभी सरकारों के लिए कोई विशेष नीतिगत या चुनावी महत्व नहीं रहा है. तभी तो आजादी से अब तक केवल तीन राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजनाएं बनीं- वर्ष 1983, 2002 और 2017 में. जो सत्ता में होता है सवाल उसी से पूछा जाता है और दायित्व भी उसी का होता है, इसलिए वर्तमान सरकार को इस त्रासदी के लिए अपनी नीतिगत विफलताओं को स्वीकारना चाहिए क्योंकि एक तो भारत की विशाल जनता को इनसे अपेक्षाएं अधिक थीं, दूसरा कि इन्होने पिछले साल के अनुभव के बावजूद भविष्य की कोई ठोस रणनीति नहीं बनायी.

दुनिया में स्वास्थ्य जैसे बुनियादी मुद्दों पर सरकारें बनती-बिगडती रही हैं, लेकिन यहां यह शायद ही बड़े-बड़े चुनावी पोस्टरों और बैनरों का हिस्सा रहा है. यूके और यूएस में तो यह योजनाओं के साथ-साथ चुनावी बहसों और रैलियों का भी बड़ा मुद्दा रहा है. इस सन्दर्भ में कुछ साल पहले के यूएस के राष्ट्रपति चुनाव में ‘ओबामाकेयर’ और ‘नॉन-ओबामाकेयर’ का विवाद तो काफी चर्चित रहा है. इसी तरह यूके में 1945 से ही लेबर पार्टी की राजनीतिक प्रतिबद्धता स्‍वास्‍थ्‍य के प्रति देखी गयी है.

साधारण सी समझ वाली बात है कि कोई अमीर से अमीर आदमी भी शौकिया दवाइयां नहीं खाता. बीमार होने पर ही वह उसे खाता-खरीदता है. दूसरा तथ्य यह भी है कि एक बड़ी आबादी तो मामूली बीमारियों में भी दवा खरीदने की ताक़त नहीं रखती. वह आर्थिक रूप से अत्यंत ही कमजोर है. पूरी उम्र या तो वह किसी तरह बीमारियों लड़ती रहती है या फिर ईश्वर-अल्लाह के भरोसे जब तक जी सके तो जिया. फिर तमाम छोटी-बड़ी बीमारियों को अनदेखा करते हुए अचानक ही किसी दिन इस जीवन-लोक को आदमी छोड़ जाता है. आम आदमी की जिन्दगी और मौत में बहुत अधिक का फर्क नहीं होता. आप इनके जीवन के महत्त्व को अंग्रेजी के शब्द ‘मर्डर’ और ‘असैसिनेशन’ के फ़र्क से भी समझ सकते हैं. आम आदमी की हत्या महज़ एक ‘मर्डर’ है, लेकिन सत्ता के शीर्ष के लोगों के लिए एक ख़ास शब्द ‘असैसिनेशन’ है. खैर…

एक बात तो साफ़ है कि आम तौर पर दवाइयां आदमी मरने से बचने के लिए ही खाता है, न कि स्वाद और भोग-विलास के लिए. संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में देखता है, तो फिर सवाल है कि जीवित रखने वाले तंत्र को मुनाफे का उद्योग क्यों बनाया गया या लगातार बनाया जा रहा है? अभी के इस संकट के समय में भी अनगिनत निजी अस्पताल जिस स्तर पर मुनाफाखोरी में मशगूल हैं वह वाकई भयावह है. ऑक्सिजन सहित अन्य तमाम मेडिकल वस्तुओं और सुविधाओं की कालाबाजारी की जा रही है. फ़ीस के रूप में निर्धारित शुल्क से कई गुणा अधिक राशि वसूल की जा रही है, जिसे चुकता करने में हजारों-लाखों लोगों की पूरी जमा पूंजी चली गयी है. वे आर्थिक रूप से बर्बाद हो चुके हैं. इस आपदा के बाद वे कैसे जियेंगे उनके लिए यह भी एक बड़ी चुनौती बन गयी है. यह अंततः जीने की स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार का हनन है. और यह हनन दशकों से सरकारी नीतिगत संरक्षण में हो रहा है.

वर्ष 2005 के बाद से भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का अधिक तेजी से निजीकरण हुआ है, जिसे बाद की सरकारों  ने भी अपनी नीतियों की प्राथमिकताओं में रखा. सरकारी एवं निजी स्वास्थ्य सुविधाओं के बीच एक गहरी खाई तेजी से बढ़ी है. एक ओर अपार पूंजी के बल पर खड़ी ऊँची-ऊँची इमारतों वाले निजी अस्पताल हैं जिनका अंतिम और एकमात्र उद्देश्य कारोबार करना है, वहीँ दूसरी तरफ अत्यंत अल्प संसाधनों में काम करने वाले सरकारी अस्पताल हैं जिन पर भारत की विशाल आबादी की जिन्दगी टिकी है. डब्लूएचओ के ग्लोबल हेल्थ एक्स्पेंडीचर डेटाबेस 2016 के अनुसार स्वास्थ्य सुविधाओं पर सरकारी खर्च की सूची में भारत 188 देशों की सूची में 170वें पायदान पर है, जिसे भारत जैसे महत्वाकांक्षी देश के लिए एक शर्मनाक स्थिति ही माना जाएगा.

मेडिकल जर्नल ‘दी लांसेट’ द्वारा प्रकाशित ‘ग्लोबल बर्डन ऑफ़ डिजीज’ 2018 के अनुसार भारत ‘स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता और उपलब्धता’ की 195 देशों की सूची में 145वें पायदान पर था. वर्ष 2011 से 2020 के बीच भारत की आबादी में लगभग 13.25 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, परन्तु इसी बीच स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च में केवल 0.39 प्रतिशत की मामूली बढ़ोतरी की गयी. सरकारी स्तर पर बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव और उसकी दुर्दशा ने निजी क्षेत्र को पाँव पसारने का भरपूर मौका दिया जिसे धीरे-धीरे सरकार ने अपनी नीतिगत प्राथमिकताओं में भी शामिल कर लिया.

वर्ष 2020 में भारत में निजी क्षेत्र में कुल 43,486 अस्पताल, लगभग 12 लाख बेड, 59,264 आइसीयू और 29,631 वेंटीलेटर हैं. वहीँ दूसरी ओर सरकारी क्षेत्र में 25,778 अस्पताल, 713,986 बेड, 35,700 आइसीयू और 17,850 वेंटीलेटर हैं. भारत में निजी अस्पतालों का इंफ्रास्ट्रक्चर देश के कुल इंफ्रास्ट्रक्चर का लगभग 62 प्रतिशत है. अस्सी प्रतिशत से ज्यादा आबादी स्वास्थ्य के मामले में निजी क्षेत्र पर निर्भर है. भारत के 81 प्रतिशत डॉक्टर निजी अस्पतालों में सेवाएं देते हैं. अगर स्वास्थ्य बीमा के संदर्भ में देखें तो वर्ष 2017 तक देश की केवल 17 प्रतिशत आबादी के पास ही इसकी उपलब्धता थी.

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गाँवों और दूरदराज के क्षेत्रों में स्वास्थ्य सम्बन्धी असमानता तो और भी अधिक गंभीर है. वर्ष 2018 के एक अध्ययन के अनुसार भारत में 51 हजार की आबादी पर सिर्फ एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र है, जिनमें से 15700 (61.25 प्रतिशत) में केवल एक-एक डॉक्टर है, 1974 (7.69 प्रतिशत) में कोई डॉक्टर नहीं है, 9183 (35.8 प्रतिशत) के पास कोई लैब टेक्निशियन नहीं है और 4744 (18.4 प्रतिशत) के पास कोई फार्मासिस्ट नहीं है. यह दर्शाता है कि भारत का बुनियादी स्वास्थ्य सिस्टम खुद ही गंभीर रूप से बीमार है.

दक्षिण की तुलना में उत्तर भारतीय राज्यों में इनकी स्थिति तो और भी ख़राब है. शहरी क्षेत्रों के भी हालात अच्छे नहीं कहे जा सकते, लेकिन इन सब के बीच दिल्ली सरकार द्वारा वर्ष 2015 से संचालित ‘मोहल्ला क्लीनिक’ लोक-स्वास्थ्य के लिए सरकारी स्तर पर किया गया एक अच्छा प्रयास माना जा सकता है, जिसने शहरी ग़रीब आबादी को निशुल्क और सुलभ स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया करायी हैं. यह मॉडल चार स्तरों पर है जिसमें प्राथमिक सुविधाओं के लिए मोहल्ला क्लिनिक, माध्यमिक स्वास्थ सेवा एवं ओपीडी के लिए मल्टीस्पेशलिटी पॉली क्लीनिक्स, आइपीडी के लिए मल्टी स्पेशलिटी अस्पताल और आखिर में सुपर स्पेशलिटी अस्पताल के प्रावधान किये गये. दिल्ली जैसे महानगर में रहने वाले निम्न और मध्यम आय वर्ग के लोगों के लिए यह एक वरदान की तरह है, हालाँकि इसकी सुविधाओं में और अधिक सुधार किये जाने की जरूरत है.  

कोरोना एक त्रासदी के साथ-साथ सबक भी है कि हम अपनी स्वास्थ्य सेवाओं को बाजार में मुनाफा कमाने वाला एक उद्योग न बनायें, बल्कि राष्ट्र को स्वस्थ और मजबूत नागरिक प्रदान करने वाली एक इकाई के रूप में विकसित करें. निजी चिकित्सा संस्थानों पर सरकारी नियंत्रण किये जाने की सख्त जरूरत है और इलाज के खर्चे का भी एक मानक बनाया जाना चाहिए, क्योंकि कहीं किसी बीमारी के लिए दो हजार खर्च करने होते हैं तो कहीं और उसी बीमारी के लिए दो लाख रुपये. इस बड़े अंतर को पाटना भी समय की मांग है.

साथ ही मेडिकल सिस्टम को व्यापक रूप से विकेन्द्रित किये जाने की जरूरत है, मतलब नगरों में भीमकाय अस्पतालों के अतिरिक्त सुदूरवर्ती गाँवों-कस्बों तक छोटे-छोटे प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र स्थापित किया जाएं और जहां पहले से ही वे मौजूद हैं उनके स्तर में सुधार लाया जाए. अगर हमारे पास पहले से ही मजबूत प्राथमिक स्वास्‍थ्य केंद्र रहे होते तो बड़े अस्पतालों पर इतनी निर्भरता नहीं बढ़ती और इतनी अफरातफरी की नौबत भी नहीं आती. बहुत सारे मामले निचले स्तर पर ही संभाल लिए जाते. इस तरह की आपदा के भविष्य में न आने का कोई भी दावा नहीं किया जा सकता, इसलिए अब भी वक़्त है अपनी नीतियों में स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने की. और इन सब के लिए जनता की सांगठनिक चेतना एक प्रभावी माध्यम बन सकती है.  


लेखकद्वय लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, पंजाब में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। डॉ. केयूर पाठक काउंसिल फॉर सोशल डेवलपमेंट, हैदराबाद से पोस्ट-डॉक्टरेट हैं।

Cover Image: SIPA USA/PA Images


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