जातिगत भेदभाव का शिकार जेलों में पिसते दलित और पिछड़े वर्ग के कैदी


हमारे देश में हमेशा से ही दलितों और पिछड़े वर्गों के साथ शोषण होता आया है। उन्हें शारीरिक रूप से हो या मानसिक रूप से हर समय सताया गया है और नीचा दिखाने की कोशिश की गयी है। सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर पिछड़ी जाति के लोगों को छोटे-छोटे अपराधों के लिए जेल में बंद रहना पड़ता है।  ऐसे कितने लोग हैं जो सालों साल जेल में रहने के बाद बरी हो गए पर इस दौरान जेल में उन्हें जिन मानसिक और शारीरिक यातनाओं को बर्दाश्त करना पड़ा उसकी कल्पना करना भी कष्टदायक है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार देशभर में रोजाना करीब 100 मामले एससी/एसटी एक्ट के तहत दर्ज होते हैं। भारत में रोजाना औसतन 10 दलित महिलाओं के साथ जेल में यौन हिंसा होती है। देश की जेलों में सबसे ज्यादा दलित और पिछड़े वर्ग से आने वाले लोग शामिल हैं जिनमें अधिकांशतः बिना किसी अपराध के शक के आधार पर जेलों में बंद है जोकि पुलिस द्वारा गिरफ्तारी के अधिकार का दुरुपयोग है। जबरन उनसे जुल्म कबूल करने के लिए कहा जाता है जो उन्होंने किया ही न हो। कबूल न करने की स्थिति में उन्हें इतना टॉर्चर किया जाता है कि कई बार वे दम तोड़ देते हैं जबकि उच्चतम न्यायालय के निर्देशानुसार पुलिस को केवल उन्हीं मामलों में आरोपियों को गिरफ्तार करना चाहिए जहां इसकी जरूरत हो।

जिन मामलों में गिरफ्तारी किये बिना छानबीन पूरी हो सकती हो वहां आरोपी की गिरफ्तारी नहीं की जानी चाहिए। वर्ष 2000 में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की तरफ से जारी दिशा-निर्देशों में भी यही हिदायत दी गयी थी।

देश के न्यायिक इतिहास में वर्ष 1995 में दाखिल एक याचिका ने न सिर्फ तमिलनाडु बल्कि समूचे देश का ध्यान अपनी तरफ खींचा था जिसमें इरुला समुदाय और सदियों तक उन लोगों द्वारा सहन किए गए अत्याचार की जानकारी हुई। हाल ही में इसी सच्ची घटना पर आधारित तमिल फिल्म ‘जय भीम’ में इस विषय का बखूबी प्रस्तुतीकरण किया गया है जिसमें जेल में झूठे आरोपों में बंद किए गए आदिवासी कैदियों पर इस कदर अत्याचार किया जाता है कि एक कैदी की मृत्यु तक हो जाती है जो पुलिस द्वारा उत्पीडित जाति के कैदियों पर जातीय उत्पीड़न और बर्बरता को सिद्ध करता है। हाल ही में मध्य प्रदेश के खरगोन जिले में न्यायिक हिरासत में 35 वर्षीय बिसन नाम के आदिवासी व्यक्ति की मौत भी इसका जीता जागता उदाहरण है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने जेलों पर अपना ताजा आंकड़ा पिछले दिनों जारी किया, जिसके अनुसार मुस्लिम, आदिवासी और दलित वर्ग के लोगों की संख्या जेलों में सबसे ज्यादा है जो कि जनसंख्या में उनके अनुपात से कहीं अधिक है। मीडिया में प्रकाशित 2019 के आंकड़ों के मुताबिक अंडर ट्रायल कैदियों में सबसे अधिक संख्या मुस्लिमों की है।  देशभर की जेलों में दोष सिद्ध कैदियों में ज्यादा संख्या दलितों की है,  21.7 प्रतिशत अनुसूचित जाति के विचाराधीन कैदियों का प्रतिशत है  जबकि 2011 की जनगणना में उनका हिस्सा सिर्फ 16.6 प्रतिशत का है।

जनजातियों (आदिवासियों) का भी यही हाल है। दोषी करार दिए गए कैदियों में वे 13.6 प्रतिशत है और विचाराधीन कैदियों में 10.5 प्रतिशत जबकि देश की कुल आबादी में वे सिर्फ 8.5 प्रतिशत हैं! मुसलमानों की संख्या देश की आबादी में 14.2 प्रतिशत है, लेकिन जेल के भीतर कैदियों में 16.5 प्रतिशत से कुछ अधिक ही उनकी संख्या है और विचाराधीन कैदियों में 18.7 प्रतिशत। न्यायप्रणाली के विशेषज्ञों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि इससे भारत की आपराधिक न्याय पद्धति की बहुत सी कमजोरियों का पता चलता है और यह भी कि गरीब व्यक्ति के लिए इंसाफ की लड़ाई कितनी कठिन है।

भारत की जेलों में कैद औरतों की अनकही कहानियां

उत्तर प्रदेश के रिटायर्ड आइपीएस अधिकारी वीएन राय कहते हैं कि हमारी न्याय व्यवस्था भी दोषरहित नहीं है। उनके मुताबिक आंकड़ों से पता चलता है कि हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली न सिर्फ दोषपूर्ण है बल्कि गरीबों के भी खिलाफ है। जो लोग अच्छे वकील रख सकते हैं उन्हें आसानी से जमानत मिल जाती है। आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को छोटे-छोटे अपराधों के लिए भी लंबे समय तक जेल में बंद रहना पड़ता है। ऐसे कितने लोग हैं जो सालों साल जेल में रहने के बाद अदालत से बरी हो गए।

अफसोस की बात यह है कि हमारा संविधान लागू होने के सात दशक बाद भी जेलों में मनुवादी जाति व्यवस्था कायम है जिसके अंतर्गत निचली जाति के कैदियों को जबरन झाड़ू लगाने और शौचालय साफ करने के लिए बाध्य किया जाता है और यहां तक कि कभी-कभी सेप्टिक टैंक भी साफ करवाया जाता है जो कि शोषण की पराकाष्ठा है। उच्च वर्ग वाले रसोई या लीगल दस्तावेज विभाग को संभालते हैं जबकि अमीर और प्रभावशाली कोई काम नहीं करते। इस व्यवस्था का उस अपराध से कुछ लेना-देना नहीं है, जिसमें कोई व्यक्ति गिरफ्तार हुआ है। सब कुछ जाति आधारित है।

दिल्ली की एक वकील और भारतीय जाति व्यवस्था की मुखर आलोचक दिशा वाडेकर जेल कानूनों की तुलना मनु के प्रतिगामी कानूनों से करती हैं। वाडेकर कहती हैं, “यह जेल प्रणाली बस मनु की दंड नीति की नकल है। जेल व्यवस्था उस आदर्श दंड प्रणाली पर काम करने में विफल रही है, जो कानून के समक्ष सबकी समानता और सबको कानून के समान संरक्षण के सिद्धांत पर बनायी गयी है। इसके उलट यह मनु के कानूनों का अनुसरण करती है जिसकी आधारशिला अन्याय के सिद्धांत पर रखी गयी है- एक व्यवस्था जो यह मानती है कि कुछ जिंदगि‍यों को दूसरों से ज्यादा सजा दी जानी चाहिए और कुछ जिंदगियां दूसरों से ज्यादा मूल्य रखती हैं। राज्य परंपरा से प्राप्त न्याय के नियम जाति आधारित समाज पर ही चल रहे हैं और जाति पदानुक्रम व्यक्ति के स्थान के आधार पर ही दंड और जुर्म पर निर्णय करते हैं।”

1979 में पुलिस के द्वारा की जा रही मनमानियों को रोकने के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण कानून बनाया गया जिसके अंतर्गत किसी भी व्यक्ति को अवैध हिरासत में लेकर उसके साथ दुर्व्यवहार करने पर उन्हें अपने से बड़े अधिकारियों और नेताओं को जवाब देना पड़े, किंतु आज भी स्थिति यह है कि इस कानून की धज्जियां उड़ रही हैं और हमारे देश की दलित, पिछड़ी और गरीब जातियों पर झूठा केस ठोक कर बिना किसी पुख्ता सबूत के हिरासत में लेकर उनको यातनाएं दी जाती हैं।


रचना अग्रवाल स्वंतत्र पत्रकार एवं लेखक हैं


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