प्रो. विद्यार्थी चटर्जी |
सभी दिशाओं से सदियों से अन्वेषकों और व्यापारियों को अपने यहां खींचने वाले इस द्वीप पर यदि मैं नहीं आता तो मोहम्मदअमीन की दास्तान से अनजान रह जाता, जिससे जैंजि़बार का घर-घर परिचित है। मोहम्मद अमीन के पूर्वज भात से थे, लेकिन उनका जन्म जैंजि़बार में ही हुआ था। बीसवीं सदी में अफ्रीकी मुक्ति संघर्षों से पैदा हुई राजनीतिक उथल-पुथल हो या फिर इस महादेश पर नियमित तौर से आने वाली कुदरती अथवा मानव निर्मित आपदाएं, सब पर पश्चिमी जगत की आलोचनात्मक नज़र लगातार बनी रही जो एक हद तक खुद अफ्रीकी जनता की बदहाली के लिए जिम्मेदार था। लेकिन दर्द के इस सिलसिले को मोहम्मद अमीन से ज्यादा गहराई से कोई और नहीं कैद कर सका अपने कैमरे में।
मोहम्मद अमीन ‘मो’ |
अमीन अग्रणी छायाकार थे। अफ्रीका और उससे बाहर उन्होंने हर बड़ी घटना को अपने लेंस में कैद किया। प्रताड़ना के बावजूद बगैर झुके, बमों और गोलियों की दहशत में साहस से डटे हुए और अपनी बाईं बांह गंवा कर भी उन्होंने अपना काम नहीं छोड़ा जिसके चलते वे सर्वश्रेष्ठ सर्वकालिक फोटो पत्रकार कहलाए। उनके समकालीन उन पर नाज़ भी करते और उनसे रश्क भी खाते थे। ज़ाहिर है कुछ ऐसे लोग होंगे जो अब भी सोचते होंगे- और ठीक ही सोचते होंगे- कि मोहम्मद अमीन जैसों के सामने कार्टियर-ब्रेसन जैसे उन छायाकारों की रचनाएं बचकानी और किसी नौसिखिए की पसंद जैसी क्यों जान पड़ती हैं जिनके नाम पर आज भी हिंदुस्तानी आह भरते फिरते हैं।
इथोपिया का अकाल: मो की खींची तस्वीर |
जिन दिनों मैं जैंजि़बार में था, हर दूसरे समारोह के केंद्र में मोहम्मद अमीन होते। दरअसल, 2006 इस मशहूर कैमरामैन और फोटोपत्रकार की दसवीं बरसी का वर्ष था, जिन्हें जानने वाले प्यार से ‘मो’ कह कर बुलाते थे। राष्ट्राध्यक्षों से लेकर आम जनता तक उन्हें इसी नाम से जानती थी। एशियाई माता-पिता से जन्मे मो अपने दिल और दिमाग से पूरी तरह अफ्रीकी थे। उनके दादा भारत से पलायन कर के पूर्वी अफ्रीका आए थे। मोहम्मद अमीन का सबसे यादगार काम इथोपिया में 1984 में आए विनाशक अकाल का कवरेज है जिसके माध्यम से उन्होंने समूची दुनिया को बीसवीं सदी के सबसे बड़े दानकर्म से लिए प्रेरित किया। इस विनाश से प्रभावित लाखों लोगों के लिए अंतरराष्ट्रीय सरोकार निर्मित करने में उन्होंने प्रेरणा और उत्प्रेरक दोनों का ही काम किया। उनकी रिपोर्टिंग ने संपन्न देशों को शर्मसार किया, उन्हें कार्रवाई को बाध्य किया और इस तरह से एक देश विनाशकारी अकाल के मुंह से बाहर आ सका।
नस्लवाद और कुर्सियां: ‘मो’ की एक और मशहूर तस्वीर |
मो ने एशिया, अफ्रीका और मध्य-पूर्व के इतिहास के निर्णायक मौकों को अपने कैमरे में कैद किया। उनके साहस, काम के प्रति कटिबद्धता और पेशेवर श्रेष्ठता ने उन्हें जीते जी न सिर्फ पेशेवर दायरे में बल्कि आम लोगों के बीच किंवदंती बना दिया था। उन्होंने कम से कम तीन मौकों पर मौत को धोखा दे दिया। एक बार उन्हें 29दिनों तक लगातार प्रताडि़त किया जाता रहा। फिर एक धमाके में वे अपना बायां बाजू गंवा बैठे। इसके बावजूद उनके उत्साह में कमी नहीं आई। वे कृत्रिम बांह का इस्तेमाल करने वाले दुनिया के पहले फोटोग्राफर बने। तीस साल के अपने पेशेवर जीवन के दौरान उनकी 40 से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हुईं जिनमें उनकी खींची तस्वीरें शामिल थीं। 1996 में उनकी मौत हाइजैक किए गए एक विमान में हुई जो हिंद महासागर में जा डूबा था। उनकी असमय हुई त्रासद मौत से कई महाद्वीपों में शोक की लहर दौड़ गई, गोया हर कोई उन पर अपना दावा करने को बेचैन हो। ऐसी लोकप्रियता और प्रतिष्ठा रही मोहम्मद अमीन की!
(नीचे देखें मोहम्मद अमीन की सच्ची कहानी ‘मो’)
‘मो’ के बेटे सलीम अमीन |
अपने कैमरे के लेंस से मोहम्मद अमीन ने दुनिया को वह दिखाया जिसे कुछ तो देखने से डरते थे और कुछ अन्य अनदेखा कर देना चाहते थे। सच्चाई को बयान करने की कैमरे की ताकत यही थी और इस महान विरासत को संभाले रखने की चुनौती पूर्वी अफ्रीकी मीडिया की बनती है। जेडआईएफएफ ने अलग-अलग तरीकों से मोहम्मद अमीन को श्रद्धांजलि दी। महोत्सव में उन पर बनी एक पुरस्कृत डॉक्युमेंटरी दिखाई गई जिसे उनके बेटे सलीम अमीन ने निर्देशित किया था। फिल्म का नाम था ”मो एंड मी”। पुरानी तस्वीरों, फिल्म की कतरनों, उन्हें करीब से जानने वाले लोगों के साक्षात्कार और एक पिता व पुत्र के बीच की स्मृतियों से बुना यह एक खूबसूरत ताना-बाना था।
‘मो’ के कैमरे से… |
इसके अलावा चौंकाने वाली उनकी कुछ तस्वीरों और उनकी लिखी पुस्तकों की प्रदर्शनी भी लगाई गई थी। कुल मिला कर बीते दौर के एक बेहतरीन कलाकार की तमाम स्मृतियों का आवाहन उस सम्मान से किया गया था जिसका वह हकदार था। सबसे ज़रूरी बात यह रही कि इसके माध्यम से नई पीढ़ी को एक कलाकार और उसकी कला के बारे में देखने-समझने का मौका मिला। मोहम्मद अमीन एक ऐसे पेशेवर फोटोग्राफर थे जो एक कलाकार और एक इंसान दोनों के तौर पर अपनी कीमत जानते थे। खुद में उनका आत्मविश्वास जिस कदर था, वह तमाम निजी जोखिम उठा कर खींची गई तस्वीरों में ही अकेले नहीं झलकता बल्कि पश्चिमी मीडिया के साथ उनके रिश्तों से भी ज़ाहिर होता है। मो कभी भी पश्चिम की अग्रणी फोटो एजेंसियों या बड़े अखबारों के झांसे में नहीं आते थे। मैदान से सीधे उन्हें तस्वीरें भेजने में लगे पोस्टेज का खर्चा भी वे उनसे वसूल लेते। रचनात्मक अराजकता के मामले में उनका कोई सानी नहीं था। इस बारे में और कुछ दूसरे किस्से भी सलीम के मुंह से सुनना काफी दिलचस्प रहा। (क्रमश:)
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दिलचस्प , रोचक !
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मो. के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा। अद्भुत।