चंद्रेश मुझे एक दिन वहां के आर्य समाज मंदिर ले गया। दीवारों पर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नायकों गांधी, तिलक, टैगोर, पटेल, लाला लाजपत राय से लेकर जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस तक की तस्वीरें टंगी थीं। चंद्रेश ने फर्श की ओर एक स्थान पर दिखाते हुए बताया कि हर शनिवार यहां हवन होता है। टेबल पर बंबई से प्रकाशित होने वाले कुछ गुजराती अखबारों की प्रतियां रखी थीं। इमारत से बाहर आते वक्त हमारी मुलाकात एक बूढ़ी गुजराती महिला से हुई जो व्हील चेयर पर थीं। उन्हें देख कर ऐसा लगा मानो अपनी मौत के इंतज़ार में वे जिए जा रही हों। चंद्रेश ने जब उन्हें बताया कि मैं भारत से हूं, तो उन्होंने उचक कर मुझसे पूछा कि मैं भारत में कहां से हूं और जैंजि़बार मुझे पसंद आया कि नहीं। कुछ देर की बातचीत के बाद लगा कि वे थक गई थीं। उन्होंने अपनी टूटी-फूटी हिंदी में हमसे विदा ली और इमारत के किसी पिछले कमरे में चली गईं। रास्ते में चंद्रेश ने मुझे बताया कि वह बचपन से ही अपने बुजुर्गों से सुनता रहा है कि गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से बंबई की अपनी यात्रा के बीच जैंजि़बार में रुके थे, यहां रहने वाले भारतीयों से मिले थे और इस आर्य समाज मंदिर भी आए थे।
दिन के वक्त हम हिंदुओं के श्मशान स्थल तक गए। एक पहाड़ी को काट कर बनाई गई सीढि़यों से नीचे उतर कर हम वहां तक पहुंचे जहां शव जलाए जाते हैं। एक बरसाती के नीचे भीगने से बचाने के लिए जलावन लकड़ी को रखा गया था। शवों को जलाने के लिए एक ऊंचा सा चबूतरा बना था। अंत्येष्टि के बाद राख को बहाने के लिए हिंद महासागर में ले जाया जाता है जो बिल्कुल इस जगह को चूमता सा है। स्थानीय हिंदू मानते हैं कि हिंद महासागर गंगा जैसा ही पवित्र है इसलिए अस्थियां बहाने के लिए इससे पवित्र जल और नहीं हो सकता। वहां खड़े होकर मैंने समुद्र की नीलिमा को देखा और मेरे आश्चर्य की सीमा न रही कि निरभ्र आकाश का रंग बिल्कुल सागर के पानी से हिल मिल जा रहा था। एक पल के लिए तो उस दृश्य को देख कर मैं और चंद्रेश ठगे से रह गए। हम दोनों में से कोई भी कुछ बोलने को तैयार न था। उस जगह की खूबसूरती में हम दोनों जैसे खो से गए थे। सीढि़यों से ऊपर चढ़कर पिक-अप तक पहुंचने के बाद ही हमारे बीच बातचीत दोबारा शुरू हुई।
जैंजि़बार का चर्च |
अगले दिन मैं ऐसे ही टहल रहा था कि मेरी नज़र एक चर्च की मीनार पर पड़ी। वह एक रोमन कैथोलिक चर्च था जहां गोवा से आया कैथोलिक समुदाय हर इतवार प्रार्थना के लिए कभी जुटता था। जिन मुट्ठी भर ऐसे लोगों से मैं मिला, उनमें से किसी की भी दिलचस्पी जैंजि़बार या फिर अफ्रीका में रह जाने की नहीं थी। सभी यहां से निकल जाना चाहते थे। उनकी सबसे पसंदीदा जगह थी कनाडा जहां वे जाकर बस जाना चाहते थे। लेकिन इनके ठीक उलट मुझे गोवा से आए एक बुजुर्ग भी मिले जो किसी नई जगह जाकर नई जिंदगी शुरू करने के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने बताया कि जैंजि़बार अब वैसा नहीं रहा जैसा उनकी जवानी के दिनों में था, कभी-कभार वे खुद को यहां अनजान तक पाते हैं। इसके बावजूद उम्र और पैसे का तकाज़ा है कि वे किसी दूसरे महाद्वीप में जाकर नई जिंदगी शुरू करने के बारे में सोच तक नहीं सकते।
बिल्कुल यही बात उन प्रवासी गुजरातियों ने भी कही जिनके छोटे-छोटे खूबसूरत ढाबों पर हम दिन का खाना यानी रोटी, सब्ज़ी और लस्सी खाया करते थे। ऐसा ही एक ढाबा था राधा इंडियन प्योर वेजिटेरियन रेस्त्रां, जिसके मालिक अंशकालिक पत्रकार भी थे और रोज़ाना कुछ वक्त जैंजि़बार प्रेस क्लब में बिताते। उन्होंने बताया कि उनके कई रिश्तेदार कनाडा में बस गए हैं और वे खुद उनके आग्रह पर वहां जाने के बारे में गंभीरता से सोच रहे थे। जब मैंने उनसे पूछा कि जैंजि़बार की खुली धूप और आरामदेह माहौल को छोड़ कर कनाडा की भीषण ठंड में बस पाना क्या उनके लिए आसान होगा, उन्होंने बेबसी में अपने हाथ खड़े कर के कहा कि यहां कारोबार करने के अवसर कम हैं और इसीलिए वे यह जगह छोड़ने को मजबू हो गए हैं। हम जहां कहीं भी गए, खासकर नौजवान, समझदार और मेहनती लोगों की आम राय यही दिखी कि इस जगह को छोड़ कर जाने में ही फायदा है।
हालांकि इन सबसे हट कर जैंजि़बार के सबसे मशहूर पेंटर जॉन डी सिल्वा हैं, जो इसी द्वीप पर रह कर युवाओं को कलाकार बनाने में लगे हुए हैं। यह जगह छोड़ कर जाना तो दूर, उनका सपना है कि वे अपने आखिरी दिन जैंजि़बार में ही बिता सकें क्योंकि उनका इकलौता घर यही है। जेडआईएफएफ का कैटलॉग उनके बारे में कहता है, ‘‘रेखाओं और रंगों के नाज़ुक प्रयोग के लिए जॉन डी सिल्वा जाने जाते हैं। जैंजि़बार की संस्कृति और विरासत के प्रति अपने सरोकार के चलते वे अपना सारा ज्ञान पेंटरों की अगली पीढ़ी तक पहुंचाने में जुटे हैं। ये युवा कलाकार अकसर कुदरती तौर पर प्रतिभाशाली होते हैं और इनमें पेंटिंग की ललक होती है, लेकिन कुछ के पास ही चित्रकला का औपचारिक प्रशिक्षण होता है जिसके कारण ये पर्याप्त कुशलता हासिल नहीं कर पाते।’’
कला को समर्पित चित्रकार जॉन डी सिल्वा |
फिल्म महोत्सव और इससे जुड़ी अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों के समानांतर जॉन डी सिल्वा ने नए कलाकारों के लिए हफ्ते भर की एक कार्यशाला का आयोजन किया था जिसमें उन्हें सिलसिलेवार ढंग से ऑयल पेंटिंग की तकनीकों का प्रशिक्षण दिया गया। जैंजि़बार के समाज की विविध और व्यापक संस्कृति को संजोए रखने में इनके जैसे लोग बड़ा योगदान दे रहे हैं। जिस वक्त यहां गोवा से आए तमाम लोग पलायन कर रहे हों, डी सिल्वा का यहां टिक जाने का फैसला उन भारतीयों के लिए एक अर्थवान टिप्पणी के रूप में आता है जो भारत से यहूदियों, आंग्ल-भारतीयों, आरमेनियाइयों या चीनी मूल के अल्पसंख्यक समूहों के लुप्त होते जाने का रोना रोते हैं। एकरूपता दरअसल इस अर्थ में एक अपराध से कम नहीं होती जो भावनाओं की ज़मीन को बंजर बना देती है। इसके बरक्स विविधता एक ऐसा शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व है जिसके सावधानी से बरते जाने पर उसके फल जादुई आभा लिए हो सकते हैं जिनमें असीमित गुंजाइशों के बीज हों। कैथोलिक धारणाओं वाले डी सिल्वा दरअसल ऐसा कर के जैंजि़बार का खुद पर चढ़ा कर्ज़ चुका रहे हैं। (क्रमश:)
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डी सिल्वा को सलाम !