बाबरी मस्जिद, राम मंदिर और हिन्दी समाज: आनंद स्‍वरूप वर्मा से लंबी बातचीत


खिड़की रेडियो के लिए और वहीं से साभार प्रकाशित आनंद स्वरूप वर्मा से अभिनव श्रीवास्तव की बातचीत


अगर हम आपकी नजरों से उस दौर को देखें तो आप क्या बताना चाहेंगे? आपने उस दौर को देखा है इसलिए हमारे लिए जानना जरूरी है कि उस समय बुद्धिजीवियों की भूमिका क्या थी?

देखिए, यह घटना तो 6 दिसंबर 1992 की है लेकिन इससे पहले घटनाओं का एक लंबा सिलसिला था जिसकी शुरुआत 1980 के दशक के उत्तरार्ध से ही हो गई थी। इस संदर्भ में दो प्रमुख घटनाओं के रूप में हम राम मंदिर का ताला खुलने और आडवाणी की रथ यात्रा को याद कर सकते हैं। इन दोनों घटनाओं से लग रहा था कि इसकी परिणति कोई बहुत अच्छी नहीं होने जा रही है। 6 दिसंबर 1992 को जब बाबरी मस्जिद ध्वस्त हुई तो एक तरह का सन्नाटा छा गया था– उन लोगों के बीच नहीं जो अपने को प्रगतिशील समझते थे या खुद को भाजपा से अलग मानते थे बल्कि व्यापक तौर पर, उन लोगों के बीच भी जो खुद को भारतीय जनता पार्टी के करीब मानते थे। उन्हें भी लगा कि यह क्या हो गया! ऐसा उन्हें इसलिए लगा कि उन्होंने जनता का रिएक्शन कुछ अजीब सा देखा। व्यापक जनसमुदाय यह स्वीकार नहीं कर सका कि किसी के धर्मस्थल को गिरा दिया जाएगा। किसी ने यह कल्पना भी नहीं की थी। इस पक्ष में तो काफी लोग थे– एक बहुत बड़ा तबका था कि राम जन्मभूमि पर राम का मंदिर बने लेकिन कोई मस्जिद गिरा दी जाएगी, इसकी कल्पना किसी ने भी नहीं की थी। जनता बिल्कुल सकते में आ गई थी। वह जो सन्नाटा छाया हुआ था उसकी अभिव्यक्ति बहुत सारे लोगों के वक्तव्य में दिखाई देती है। मैं सब की बात तो नहीं करूंगा क्योंकि यहां इतना समय नहीं है लेकिन कम से कम लालकृष्ण आडवाणी का जो वक्तव्य था उस समय और अपने इस वक्तव्य को वह बहुत लंबे समय तक मेंटेन भी करते रहे। वह यह कहते रहे कि यह मेरे जीवन का ‘सैडेस्ट डे’ है– सबसे ज्यादा दुख वाला दिन है। यह उनका पहला रिऐक्शन था और 2011 में मुंबई के प्रेस क्लब में उन्होंने अपने एक भाषण में भी यही कहा था कि ‘आई हैव मेंटेंड दैट इट वाज द सैडेस्ट डे ऑफ माय लाइफ’। उन्होंने आगे कहा कि ‘दि आर्गेनाइजेशन व्हिच हैड प्लैन्ड दैट मूवमेंट शुड हैव ऐंटीसीपेटेड दि पीपुल्स इमपेशेंस। एव्री वन वाज शाक्ड आफ्टर व्हाट हैपेंड’। हालांकि आडवाणी गलत बोल रहे थे– वह बिल्कुल दुखी नहीं थे। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि 1992 में मस्जिद गिराई गई और 24 जनवरी 1993 के ‘पांचजन्य’ में उनका एक साइंड आर्टिकल छपा जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘यह मेरे लिए सबसे खुशी का दिन था’। मैं यह बात इसलिए बता रहा हूं कि जनता का जो सेंटीमेंट था वह मस्जिद गिराए जाने के पक्ष में नहीं था और उस सेंटीमेंट को ध्यान में रखकर ही आडवाणी जी का यह वक्तव्य लगातार आ रहा था। मैंने खुद महसूस किया कि पूरे देश के माहौल में एक सन्नाटा छा गया था और लोग हतप्रभ थे  कि यह क्या हुआ। उस समय नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे और अगर उन्होंने यह घोषणा नहीं की होती कि हम उसी जगह पर मस्जिद बनाएंगे तो यह सन्नाटा नहीं टूटता। नरसिम्हा राव के इस वक्तव्य से एक बार फिर हलचल तेज हुई और उन लोगों की राजनीति को, जिन्होंने मस्जिद गिराई थी, एक संजीवनी मिल गई।

जहां तक बौद्धिक तबके की प्रतिक्रिया का सवाल है, मस्जिद गिराए जाने के 15 दिनों के अंदर ही दिल्ली से 80 कवियों, कथाकारों, रंगकर्मियों और विभिन्न क्षेत्र में काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक टीम लखनऊ पहुंच गई जहां उसने एक विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया। चूंकि अयोध्या यूपी में है और यूपी की राजधानी लखनऊ है इसलिए लखनऊ जा कर यह प्रदर्शन करना उचित लगा। इनमें सभी वे नाम थे जिन्हें महत्वपूर्ण समझा जाता था– राजेंद्र यादव, एसपी सिंह, अशोक चक्रधर, पंकज सिंह, पुरुषोत्तम अग्रवाल, सीमा मुस्तफा, पंकज बिष्ट, अनिल चमड़िया, राजेश जोशी, जावेद नक़वी, अनिल चौधरी, देवी प्रसाद मिश्र, डी प्रेमपति जैसे बहुत सारे नाम थे। कुलदीप नैयर भी जाने वालों में थे लेकिन ऐन मौके पर तबीयत खराब हो जाने की वजह से वह नहीं जा सके। लखनऊ में भी वहां के प्रमुख लेखक मुद्राराक्षस, वीरेंद्र यादव, अजय सिंह, अनिल सिन्हा, आदियोग, वरिष्ठ पत्रकार विद्यासागर जी और बहुत सारे रंगकर्मी आत्मजीत वगैरह इस विरोध प्रदर्शन में शामिल हुए। वहां हम लोगों ने जुलूस निकाले, आम सभा हुई और बाबरी मस्जिद ध्वस्त किए जाने के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया गया। ऐसा माहौल उस समय था और यह केवल लखनऊ में ही नहीं, आप उस समय के अखबारों को उठाकर देखेंगे तो पाएंगे कि देश के विभिन्न शहरों में मस्जिद गिराए जाने के विरोध में लोगों ने प्रदर्शन आयोजित किए थे। मस्जिद गिराए जाने के पक्ष में किसी भी प्रदर्शन की खबर नहीं दिखाई देगी क्योंकि वे लोग सकते में थे लेकिन विरोध में बहुत सारे प्रदर्शनों की खबरें आपको मिल जाएंगी। इन प्रदर्शनों में लेखकों के साथ-साथ प्रबुद्ध नागरिकों की जबरदस्त हिस्सेदारी थी।

आपने अभी बताया कि बहुत सारी घटनाओं की परिणति मस्जिद के ध्वंस के रूप में हुई थी और इन घटनाओं की शुरुआत 80 के दशक से ही हो गई थी। मेरा अगला सवाल यह है कि जिस समय समाज में सांप्रदायिक और प्रतिक्रियावादी ताकतें सक्रिय थीं, उस समय प्रगतिशील तबके की क्या भूमिका थी और उस दौर में किस तरह के आंदोलन दिखाई देते थे?

देखिए उन दिनों मजदूरों, किसानों और व्यापक जनसमुदाय के अनेक आंदोलनों का अस्तित्व था और अनेक जगहों में सांप्रदायिकता विरोधी आंदोलन चल रहे थे। जनता के मुद्दों को ले कर प्रदर्शन होते थे, मानव श्रृंखलाएं बनती थीं जो अब कहीं दिखाई नहीं देती। देखिए, बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना 1992 की है। तब से अब तक 28 वर्ष गुजर चुके हैं। उस समय की जो पीढ़ी थी, कम से कम मेरी पीढ़ी के लोग, जिनमें से कइयों की उम्र 60 और 70 से ऊपर हो चुकी है, उसे आज की पीढ़ी की तुलना में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद की समूची पृष्ठभूमि की अच्छी जानकारी थी। उसे यह जानकारी थी कि सारा मामला एक छल-कपट, प्रपंच और छद्म पर आधारित है। उसे पता था कि किस तरह 24-25 दिसंबर 1949 की रात में चोरी-छिपे यहां मूर्ति रखी गई। उसे पता था कि उस समय फैजाबाद के जो डीएम थे केके नायर उनकी इस षड्यंत्र में क्या भूमिका थी। उसे यह पता था कि किस तरह प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए लिखा कि के के नायर से पूछा जाए कि कैसे चोरी-छिपे मूर्ति रखकर यह प्रचारित किया गया कि रामलला प्रकट हुए हैं। के॰के॰ नायर ने मूर्तियों को वहां से हटाने से इनकार किया नतीजतन वे बर्खास्त किए गए और बाद में उन्होंने स्वेच्छा से अवकाश ले लिया । आगे चलकर उन्होंने और उनकी पत्नी शकुंतला नायर ने भारतीय जनता पार्टी के पुराने रूप भारतीय जनसंघ के टिकट पर चुनाव लड़ा और भारतीय जन संघ के सांसद बने। इतना ही नहीं, उनका ड्राइवर भी भारतीय जनसंघ के टिकट पर चुनाव लड़ कर उत्तर प्रदेश में विधायक बना। और यह सारा कुछ राम जन्म भूमि के नाम पर हुआ। उस समय से ही इन नेताओं को लग गया था कि राम जन्मभूमि का राजनीतिक तौर पर अच्छा इस्तेमाल किया जा सकता है। उन्हें लगा कि अगर इस मुद्दे को लेकर एक सांप्रदायिक माहौल तैयार किया जाय तो राजनीतिक तौर पर इससे काफी फायदा उठाया जा सकता है। दोनों पति पत्नी केके नायर और शकुंतला नायर का सांसद बन जाना और उनके ड्राइवर का विधायक बन जाना कोई मामूली बात नहीं है। इन बातों की जानकारी उस समय की पीढ़ी को काफी थी। मैं जो बता रहा हूं वह मनगढ़ंत नहीं है बल्कि ऐतिहासिक तथ्य है जिनकी कहीं से भी पुष्टि की जा सकती है। इस तथ्य को जानते हुए भी कि दिसंबर 1949 की एक रात में मंदिर में चुपके से मूर्तियां रखी गईं, अगर सुप्रीम कोर्ट कोई फैसला देता है तो मैं हैरान हो सकता हूं। कोई टिप्पणी करने की जरूरत नहीं है। हां, यह जरूर कहा जा सकता है कि यह समूचा मामला छल और छद्म पर टिका हुआ है। यही वजह थी कि उस समय लोगों को मोबिलाइज करने में आसानी होती थी।

जो लोग 1990 में या 1985 के आसपास पैदा हुए हैं उस पीढ़ी को इस पृष्ठभूमि की न तो कोई खास जानकारी है और न इस जानकारी को हासिल करने में उनकी कोई दिलचस्पी है। उस समय एक डेमोक्रेटिक स्पेस था जिसमें लोग अपनी बातें एक दूसरे तक पहुंचा सकते थे। आज की तरह चैनल नहीं थे लेकिन आज की तरह पाबंदियां भी नहीं थीं। उस समय की पत्र-पत्रिकाओं में भी ये बातें प्रकाशित होती थीं। मुझे याद है कि बाबरी मस्जिद ध्वस्त किए जाने की पहली बरसी पर दिल्ली में एक समारोह हुआ था जिसमें कैफी आज़मी आए हुए थे और इस समारोह का आयोजन प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच ने मिलकर किया था। सारी घटनाएं अब इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गई हैं। इन घटनाओं का अखबारों में बहुत अच्छा कवरेज था। लखनऊ में हम लोगों ने जो कार्यक्रम लिया था उसका लखनऊ के हिंदी उर्दू और अंग्रेजी के सभी अखबारों में फ्रंट पेज पर तस्वीरों के साथ व्यापक कवरेज था। दिल्ली के अखबारों में भी अच्छा कवरेज था। कहने का मतलब यह है कि उस समय मीडिया के जरिए हम अपनी बात लोगों तक पहुंचा सकते थे। आज वह स्थिति नहीं है।

लोगों के बीच यह सवाल भी देखा गया कि आखिर क्या वजह है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उस तरह की प्रतिक्रिया नहीं देखने को मिली जैसी बाबरी मस्जिद ध्वस्त होने के बाद देखने को मिली थी। हो सकता है आपके दिमाग में भी यह सवाल हो। ऐसा नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले से लोगों ने आहत न महसूस किया हो लेकिन उसकी अगर अभिव्यक्ति नहीं दिखाई देती है तो इसकी दो वजहें है। पहली वजह तो यह है कि आज उस अभिव्यक्ति को स्थान देने का कोई स्पेस ही नहीं बचा है। दूसरे, आज की पीढ़ी को ज्यादा इन चीजों से बहुत सरोकार भी नहीं है। उस समय के जो लोग थे वे भी सोचते थे कि कुछ ऐसा हो जिससे खून खराबा ना हो। लोगों ने बाबरी मस्जिद ध्वस्त होने के बाद के दंगों की भयावहता को देखा था जो दहला देने वाला था। इसके अलावा अगर मान लीजिए कोई व्यक्ति ऐसी राय व्यक्त करना चाहता हो जो कोर्ट के फैसले के प्रतिकूल हो तो वह अपनी इस राय को कहां व्यक्त कर सकता था? क्या आज कोई मीडिया ऐसा है जो उसे स्थान दे सके? वह डेमोक्रेटिक स्पेस लगातार सिकुड़ता गया और आज लगभग खत्म हो गया सिवाय इसके कि फेसबुक, इंस्टाग्राम और व्हाट्सएप पर आप कुछ लिख लें।

आपने अभी कहा कि चैनल्स बढ़े हैं लेकिन डेमोक्रेटिक स्पेस निरंतर सिकुड़ता चला गया है। आपको क्या लगता है कि हिंदी के बौद्धिक समाज ने हाल के वर्षों में आए परिवर्तनों ठीक से नहीं समझा या उसकी भूमिका बदल गई है? आप इसे कैसे चिन्हित करते हैं?

देखिए बदलाव तो आना शुरू हो गया था 1980 से ही जो 1990 के दशक में बहुत तेज हो गया। हम लोगों ने 1975  का दौर देखा था जब इन्दिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई थी। इमरजेंसी के दौरान भी अखबारों पर सेंसरशिप लगी थी और उन दिनों को हम बहुत ही आक्रांत करने वाले दौर के रूप में याद करते हैं लेकिन उस दौर के मुकाबले आज का दौर इसलिए और भी ज्यादा त्रासद है क्योंकि इंदिरा गांधी ने तो घोषित तौर पर इमरजेंसी लगाई थी– अभी जो कुछ हो रहा है उसमें कहीं घोषित तौर पर कुछ भी नहीं है। लेकिन आज लोग स्वेच्छा से सरकार की उन  दमनकारी नीतियों का समर्थन करने लगे हैं जिसका पहले विरोध करते थे। एक ऐसा जनमत बनाया जा रहा है जिसे नोम चोम्स्की ने मैन्युफैक्चरिंग कांसेंट कहा था। मीडिया पर पूरी तरह से नियंत्रण हासिल करो। अब से दो साल पहले यहीं दिल्ली में पी॰ साईनाथ ने एक भाषण में कहा था कि अगर ऐसे ही हालात रहे तो अगले पांच साल में समूचे मीडिया पर अंबानी का कब्जा हो जाएगा। उन्होंने कहा था कि कोई भी चैनल या कोई भी अखबार ऐसा नहीं होगा जो मुकेश अंबानी का न हो। आज आप देख लीजिए क्या हालत है। अकेले रवीश कुमार एनडीटीवी पर चिल्लाते रहें क्या फर्क पड़ता है। उनको काउंटर करने के लिए 50 चैनल तैयार बैठे हैं। बहुत से शहरों और कस्बों में तो एनडीटीवी को बैन कर दिया गया है केबल ऑपरेटर द्वारा।

मैं 1975 की बात कर रहा था जब इमरजेंसी लगी थी। इमरजेंसी के बाद 1980 में जब इंदिरा गांधी दोबारा सत्ता में आईं तो उन्होंने जनसंघ को याद किया जिनकी वजह से उन्हें तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ा था। सत्ता में आने के बाद इंदिरा गांधी ने सॉफ्ट हिंदुत्व की लाइन ली और उस लाइन ने कांग्रेस को भी बर्बाद किया और देश को भी। सत्ता में आने के बाद सबसे पहले वह बीकानेर में एक हिन्दू संगठन के कार्यक्रम का उद्घाटन करने पहुंच गईं। आगे चलकर हमने देखा कि शाहबानो केस के बाद राजीव गांधी ने हिंदुत्ववादी शक्तियों को खुश करने की राजनीति के तहत अयोध्या में मंदिर का ताला खुलवा दिया। इसलिए मेरा मानना है कि भारत का जो सत्ताधारी वर्ग है, और इसमें केवल भाजपा शामिल नहीं है बल्कि समूचा रूलिंग क्लास है, वह अपने चुनावी फायदे के लिए समय-समय पर सांप्रदायिक कार्ड खेलता रहा है। उसने हमेशा खासतौर पर हिंदू सांप्रदायिकता को एक जरिया बनाया खुद को सत्ता में लाने के लिए या सत्ता में अपने को मजबूत बनाए रखने के लिए। समाज में जहर घोलने का यह काम लंबे समय से चल रहा है। ऐसा नहीं कि मोदी के आने के बाद ही यह शुरू हुआ। नरेंद्र मोदी के आने से फर्क यह पड़ा कि वे बीज, जिन्हें 1980 के दशक से ही समाज में डाला गया था, उनके फलने फूलने का बहुत अच्छा अवसर मिला और उन्हें ऐसी हवा, पानी और खाद मिली कि वे लहलहा उठे। हमें बहुत निर्मम होकर विश्लेषण करना होगा कि कैसे एक ऐसी संस्कृति विकसित की गई जिससे सांप्रदायिक फसल पैदा हो। मैं इसीलिए बार-बार कहता हूं कि यह सारा मसला सांस्कृतिक मुद्दों से जुड़ा हुआ है क्योंकि देखिए, किसी भी वर्ग विभाजित समाज में संस्कृति निरपेक्ष नहीं होती है। एक सत्ताधारी वर्ग की संस्कृति होती है और एक उस वर्ग की संस्कृति होती है जिस पर शासन किया जा रहा। 1990 में जब भूमंडलीकरण का दौर शुरू हुआ तो रूपर्ट मरडाक के चैनलों ने हमारे बेडरूम में घुसकर उस संस्कृति को पहुंचाना शुरू किया जो जन संस्कृति से अलग की संस्कृति थी। यह भूमंडलीकरण का प्रताप था। पहले संस्कृति के स्तर पर हमारा प्रदूषण हुआ। इसे सभी मानते हैं कि संस्कृति में ही प्रतिरोध के बीज छिपे होते हैं। हमारी प्रतिरोध की धार कुंद होती चली गई। आज हम जिस हालत में पहुंचे हैं वह उसी प्रक्रिया की परिणति है। हम लगातार कहते रहे कि फासीवाद दस्तक दे रहा है और वह कब घर के अंदर प्रवेश कर गया और कब हमने उसके प्रवेश के लिए दरवाजे खोल दिए यह समझ ही नहीं सके।

इंदिरा गांधी ने जब इमरजेंसी लगाई थी उस समय भी हम यही कहते थे कि फासीवाद आ गया है। उस समय फासीवाद हमें नहीं पता था और हमने डिक्टेटरशिप को फासीवाद समझ लिया था। अब पता चलता है कि डिक्टेटरशिप क्या होता है और फासीवाद क्या होता है।

अभिनव जी, यह मेरा दुर्भाग्य हो या सौभाग्य कि मैंने नेहरू से लेकर मोदी के प्रधानमंत्रीत्व काल को अपने होशो हवास में देखा है। 1964 में जब नेहरू जी की मृत्यु हुई उस समय मेरी उम्र 21 वर्ष थी और मैं राजनीतिक तौर पर जागरूक हो चुका था। सभी प्रधानमंत्रियों के दौर को देखने के बाद मुझे लगता है ऐसा दौर पहले कभी नहीं आया शीर्ष पर बैठे हुए व्यक्ति सहित समूचा नेतृत्व व्यापक जनसमुदाय को अशिक्षित करने में लगा हो। आज सुनियोजित ढंग से जनता को अज्ञानता की ओर धकेलने का प्रयास किया जा रहा है, उसकी डी-स्कूलिंग की जा रही है। उसे अंधविश्वास की तरफ, अवैज्ञानिक सोच की तरफ ठेला जा रहा है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। आप अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए पूरी की पूरी आबादी को मूर्ख बनाने पर तुले हुए हैं। यह कितनी आपराधिक कार्रवाई है! यही सारे कारण हैं जिनकी वजह से आप को वैसी प्रतिक्रिया नहीं दिखाई दे रही है जैसी होनी चाहिए। जो लोग प्रतिक्रिया व्यक्त करना चाहते हैं, विरोध व्यक्त करते हैं उनकी आवाज बंद कर दी जाती है। आखिर क्या वजह है कि देश के योग्यतम लोगों को, एकेडमीशियंस को चाहे वह आनंद तेल्तुंबड़े हो या गौतम नवलखा या वरवरा राव उन्हें जेलों में डाल दिया गया है। इन लोगों ने क्या किया था? क्या इन लोगों ने कभी बंदूक उठाई या सत्ता को पलटने की कोशिश की? नहीं, ये लोग केवल अपने विचारों की वजह से, अपनी सोच की वजह से जेलों में पड़े हैं। तो जब सत्ता पूरी तरह विचारों पर पाबंदी लगाने के लिए आमादा हो, ऐसे में कुछ भी कहना कम खतरनाक नहीं है। सत्ता यह बर्दाश्त नहीं करेगी। उसे बंदूकों, तोपों या एके-47 से डर नहीं लगता क्योंकि उसका वह मुकाबला कर सकती है। उसे विचारों से डर लगता है। अगर विचारों के बीज दूसरे दिमाग में पहुंच गए– अलग-अलग दिमागों में तो वे जिस दिन पुष्पित पल्लवित होंगे उन्हें वह नहीं झेल पाएगी। ऐसी स्थिति फासिस्ट शासन-काल में ही देखने में आती है।

हिंदी के जब बौद्धिक परिदृश्य कि हम समीक्षा करते हैं तो कहीं इंट्रोस्पेक्शन में हम पाते हैं कि, जैसा कि आपने पहले भी इशारा किया है, कि हमने व्यापक पैमाने पर किसी सांस्कृतिक सामाजिक आंदोलन की कोशिश नहीं की, उन मसलों को हमने ठीक से समझा नहीं। आखिर हमसे चूक कहां हुई है ?

देखिए चूक तो हुई है क्योंकि इतनी बड़ी हिंदी पट्टी है, हिंदी भाषी प्रदेश है और इसमें पिछले 400-500 वर्षों में कोई भी समाज सुधार संबंधी आंदोलन नहीं हुआ। मेरी जानकारी सीमित है लेकिन मुझे लगता है कि कबीर के बाद हिंदी बेल्ट में कोई ऐसा समाज सुधारक नहीं आया जो पूरे जनमानस को उद्वेलित कर सके या प्रभावित कर सके जबकि महाराष्ट्र में, बंगाल में, तमिलनाडु में बहुत सारे समाज सुधार आंदोलन हुए। पूरे हिंदी बेल्ट में सामंतवाद की जड़ें बहुत गहरी हैं और सामंतवाद भले ही अपने पुराने रूप में आज न मौजूद हो, भले ही आज बड़ी जोत वाले जमींदार न हों लेकिन एक सामंतवादी मानसिकता, सामंतवादी संस्कृति हमेशा यहाँ हावी रही। इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं, यह हमारे संस्कारों में है। इसको दूर करने के लिए जो आंदोलन होना चाहिए था वह नहीं हुआ।

एक बात और है कि हम 200 साल तक अंग्रेजों के गुलाम रहे जिसकी वजह से हम एक खास तरह की औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त हैं। इस मानसिकता से मुक्ति पाने का हमारे यहां कोई सचेत प्रयास नहीं हुआ– उल्टे 90 के दशक में भूमंडलीकरण के साथ हमारा री-कोलोनाइज़ेशन यानी पुन: उपनिवेशीकरण हो गया। औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति दिलाने का काम सांस्कृतिक काम था। इसे कोई राजनीतिक संगठन नहीं बल्कि सांस्कृतिक आंदोलन ही पूरा कर सकता था। बौद्धिक समुदाय ने अपने इस कार्यभार को पूरा नहीं किया। अब इस औपनिवेशिक मानसिकता के दुष्परिणाम हम हर क्षेत्र में देखते हैं। इस मानसिकता की अभिव्यक्ति भी हम तमाम क्षेत्रों में देखते हैं। इसकी वजह से ही हमने कभी अपने छोटे पड़ोसी देशों चाहे वह नेपाल हो, भूटान हो या मालदीव हो की संप्रभुता का सम्मान ही नहीं किया। हमें ऐसा लगता है जैसे यह देश हमारा ही कोई सूबा हो और नेपाल… अरे, वहां तो सब के सब चौकीदार हैं, दरबान हैं जिसका नतीजा हम भुगत रहे हैं कि हमारे सभी पड़ोसी देश हमारे खिलाफ हैं। यह औपनिवेशिक मानसिकता रूलिंग क्लास से छन कर मीडिया के जरिए आम आदमी के दिमाग को भी प्रभावित करती है और आम जनता भी छोटे पड़ोसी देश के नागरिक को उसी हिकारत की नजर से देखता है जिससे उसे अमेरिका या ब्रिटेन का नागरिक देखता है। बहुत सारी बातें ऐसी हैं जहां हमें, मतलब बौद्धिक समुदाय को हस्तक्षेप करना चाहिए था, लेकिन हम विफल रहे। हम अगर विफल नहीं रहे होते तो आज इतनी दुर्दशा नहीं झेलते। यह हमारी हमारे पहले की पीढ़ी की और हमारी अपनी भी विफलता है। जहां तक समाज सुधार आंदोलन की बात है तो आप ने जो सवाल किया कि वह क्यों नहीं हो पाया, इसका जवाब कोई समाजशास्त्री ही दे सकता है। मैं बस केवल यही कह सकता हूं कि वह नहीं हो सका।

कहा जाता है कि एक दौर में भारत के लोकतांत्रिक प्रयोग से पूरी दुनिया को बहुत उम्मीदें थीं और जिस तरह भारतीय लोकतंत्र के माध्यम से निचले तबके के लोगों ने अपनी गोलबंदी की और अपनी मांगों को ऊपर उठाया वह अपने आप में भारतीय लोकतंत्र की उपलब्धि है। तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद इसे आज भी माना जाता है। तो क्या इस तरह के आंदोलनों के अब न होने का कारण यह तो नहीं है कि हमने एक संसदीय दायरे के भीतर ही तमाम तरह के सुधारों और तमाम उम्मीदों को देखना शुरू कर दिया जिसकी सीमाएं 25-30 सालों के बाद स्पष्ट होने लगीं?

आपका कहना काफी हद तक सही है कि उस लोकतंत्र को हम भरपूर मानने लगे और लगा कि इसके बाद कुछ नहीं होना चाहिए। लेकिन आज तो स्थिति यह है कि वही लोकतंत्र, जो अधूरा था और जिसको हम सब लोग लोकतंत्र का ‘फार्स’ कहते थे, प्रहसन कहते थे आज तो वह लोकतंत्र भी बचने की स्थिति में नहीं है। हमने हमेशा नेहरू के लोकतंत्र का, इंदिरा गांधी के लोकतंत्र का विरोध किया और कहा कि यह लोकतंत्र का नाटक है लेकिन कम से कम उस लोकतंत्र में डेमोक्रेटिक स्पेस तो था और आज तो उसी लोकतंत्र को, उसी संविधान को बचाने की की लड़ाई तेज करने की जरूरत है जिस संविधान को हमारे बहुत सारे मित्र जनविरोधी कहा करते थे। एक अवस्था आती है जब सत्ताधारी वर्ग के लिए वे चीजें भी बर्दाश्त से बाहर हो जाती हैं जो बहुत सामान्य किस्म की हैं और जिन्हें उसी ने बनाया है। अब इस संविधान से सत्ताधारी पार्टी का काम नहीं चल रहा है तो संविधान में तरह तरह के बदलाव लाने की बात हो रही है। आपका यह कहना सही है कि इस जनतंत्र को भरपूर मानकर उसी में सीमित रह गए। लेकिन विफलता जो हुई है वह मुख्य रूप से आर्थिक मोर्चे पर हुई है। उसमें कुछ गलतियां भी हो सकती हैं क्योंकि 1947 में जब राजनीतिक आजादी मिली उस समय हमारे नेताओं को शासन तंत्र का कुछ खास अनुभव नहीं था। मुझे लगता है कि नेहरू ने जो मिक्सड इकोनामी वाली अर्थव्यवस्था की, उसकी वजह से बहुत सारी गड़बड़ियां हुई। लेकिन इतना तो था कि पब्लिक सेक्टर में बहुत सारी महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल हुईं। आज भी उठा कर देख लीजिए कि जितनी भी हमारी प्रमुख संस्थाएं हैं चाहे वह आईआईटीज हों या आईआईएम्स या अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था ‘इसरो’–ये सभी सार्वजनिक क्षेत्र में ही है। इतनी बड़ी एलआईसी सरकारी क्षेत्र में है। उन्होंने देश को गौरव तो दिया ही जनता के हित में भी बहुत काम किया। आज इन पर भी प्राइवेटाइजेशन का खतरा मंडरा रहा है। अब इस समय ऐसे ऐसे मुद्दे खड़े कर दिए जा रहे हैं जिनमें जनता उलझी रहे। जैसे बिल्ली के भाग्य से छींका टूटता है उसी तरह कोरोना आ गया और सरकार को यह कहने का बहाना मिल गया कि इसकी वजह से ही अर्थव्यवस्था की हालत ऐसी हुई है जबकि सबको पता है कि कोरोना से पहले हमारा जीडीपी कितना नीचे चला गया था। लोग कोरोना से परेशान हैं ही, अब राम मंदिर में उलझ जाएंगे और इस बीच तमाम पब्लिक सेक्टर कंपनियों को कहीं अंबानी को तो कहीं अडानी को बेचा जा रहा है और किसी को इस पर शोरगुल मचाने की फुर्सत नहीं है। मीडिया को आपने पहले ही पालतू बना लिया है। उसे इन बातों से अब कोई सरोकार नहीं है। आप देखिएगा कि 5 अगस्त को शिलान्यास के लिए जब मोदी जी अयोध्या जाएंगे तो उसकी रनिंग कमेंट्री सारे चैनलों पर शुरू हो जाएगी। यह सिलसिला आगे भी दो-तीन दिनों तक चलता ही रहेगा। इस बीच देश के अंदर आर्थिक मोर्चे पर क्या हो जाए इसकी किसी को जानकारी नहीं रहेगी। हालत ऐसी है जिसमें लोगों का पस्त होना स्वाभाविक है। वे छटपटा रहे हैं, समझ नहीं पा रहे हैं कि क्या किया जाए और अगर कोई इन मुद्दों को लेकर जनता के बीच सक्रिय होना चाहता है तो उसे जेल में डाल दिया जाता है। ऐसी स्थिति पहले कभी नहीं आई।

तो आज हम जिस दौर से गुजर रहे हैं वह एक बहुत ही संकटपूर्ण दौर है लेकिन इतिहास में तमाम देशों में इस तरह के दौर आते रहे हैं और जनता उनसे निपटती रही है। कहीं कोई ऐसी घटना हो जाती है, देश के अंदर या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो समूचे परिदृश्य में गुणात्मक तौर पर एक तब्दीली ला देती है और इसमें अगर स्थानीय शक्तियों का कुछ योगदान मिल जाता है तो चीजें और बेहतर हो जाती हैं। मैं निराश नहीं हूं लेकिन चिंतित हूं।

आपने अपने लगभग हर जवाब में मीडिया और डेमोक्रेटिक स्पेस की चर्चा की है। एक तरफ तो हमारे पास यह इतिहास है कि राम जन्मभूमि विवाद के समय हिंदी मीडिया हिंदू मीडिया बन गया था। आपने ही बताया कि इसके बावजूद बहुत सारी प्रगतिशील बातों को अखबारों में जगह मिल जाती थी। हमें यह भी पता है की हिंदी भाषी क्षेत्र की चेतना के विकास में हिंदी अखबारों की एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसका एक इतिहास रहा है और बाबरी मस्जिद की घटना को एक टर्निंग प्वाइंट माना जाता है। लेकिन वहां भी आप कह रहे हैं कि एक स्पेस था तो आज की स्थिति क्या है? आज वह स्पेस क्यों खत्म हो गया है जबकि मीडिया का काफी विकास हुआ है? मैं अभी पिछले दिनों अखबारों को देख रहा था और मुझे लगा कि उत्तर भारत के संपादकों और पत्रकारों के अंदर (राममंदिर को ले कर) काफी उत्साह दिखाई दे रहा है। अगर हम मीडिया की नजर से समझना चाहें तो आप बताएं कि आज वह स्पेस कहां चला गया?

स्थिति तबसे खराब हुई जबसे मीडिया में पूंजी का दबदबा बढ़ता चला गया। आप खुद देखिए कि अब से 20-25 साल पहले अखबारों के कम संस्करण निकलते थे लेकिन लोगों तक खबरें पहुंच जाती थीं। आज अखबारों के 20-20, 25-25 संस्करण निकल रहे हैं लेकिन खबरों का स्थानीयकरण होता चला गया। एक ही अखबार के अल्मोड़ा संस्करण में जो खबरें हैं वे नैनीताल या पिथौरागढ़ के संस्करण में आपको नहीं मिलेंगी। अब अखबारों की पृष्ठ संख्या बहुत हो गई है, कलेवर रंगीन हो गया है, प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी नयी आ गई है और हमें लगता है कि मीडिया का काफी विकास हुआ है जबकि यह महज टेक्नोलॉजी का विकास है। हमने टेक्नोलॉजी के विकास को मीडिया का विकास समझ लिया। तो हम देखते हैं कि पूंजी के प्रवेश ने लोगों को एक दूसरे से खबरों के मामले में काटना शुरू कर दिया। 1992 तक यह स्थिति थी कि अगर कार सेवकों की खबर छप रही है तो इसके विरोध में आवाज उठाने वालों की खबरें भी छपती थीं, संतुलन बनाने के नाम पर अखबार ऐसा मेंटेन करते थे हालांकि कभी-कभी यह संतुलन बहुत बिगड़ जाता था। अब तो वह भी नहीं है। दूसरी बात यह है कि पूंजी ने जनता से जुड़ी खबरों पर घातक प्रभाव डाला। उदाहरण के लिए मान लीजिए कि कोका कोला का कोई प्लांट अगर वाराणसी या बलिया में लग रहा है और उसकी वजह से वहां व्यापक तौर पर जल प्रदूषण हो रहा हो और किसानों का संघर्ष चल रहा हो तो उन अखबारों में इन खबरों को कोई स्थान नहीं मिलता था जिनमें कोका कोला कंपनी अपने बड़े-बड़े विज्ञापन देती थी। इसी तरह अखबार निकालने और चैनल चलाने वाली एक चिटफंड कंपनी के फ्रॉड की खबरें अखबारों में इसलिए नहीं छपती थीं क्योंकि वह कंपनी ढेर सारे अखबारों को पूरे पूरे पृष्ठ के विज्ञापन देती थी। पूंजी का यह दबदबा न केवल अखबारों में बल्कि राजनीति में भी तेजी से बढ़ा। आप पिछली पांच लोकसभा के सदस्यों की सूची उठाकर देख लीजिए– क्रमशः करोड़पति सांसदों की संख्या बढ़ती चली गई है और आज हालत यह हो गई है कि लगभग तीन चौथाई सांसद करोड़पति हैं। तो हम देखते हैं कि किस तरह राजनीति और मीडिया दोनों पर पूंजी का शिकंजा कसता चला गया। मैं इसीलिए मानता हूं कि आज भी यह लड़ाई पूंजीवाद के पक्ष वालों की और पूंजीवाद का विरोध करने वालों के बीच की लड़ाई है।

देखा जाता है कि भारतीय जनता पार्टी की राजनीति का मुख्य आधार हिंदुत्व रहा है। इसके बाद  उसने विकास को अपना एक नैरेटिव बनाया। फिर उसने दोनों के बीच संतुलन कायम करने की कोशिश की। कुछ लोगों का कहना है कि विकास का नैरेटिव एक छलावा था। एक तबके का यह भी कहना है कि नरेन्द्र मोदी ने न तो कभी राम जन्मभूमि की चर्चा की और न इस पर वोट मांगे। इस आधार पर उनका कहना है कि भाजपा ने यह एक नया शिफ्ट किया। इस पर आपको क्या कहना है?

आप गौर करिए कि मोदी सरकार का जो दूसरा कार्यकाल है उसमें बड़े सुनियोजित ढंग से बीजेपी के एजेंडा को लागू किया जा रहा है। नरेंद्र मोदी भले ही चुनाव सभाओं में राम जन्म भूमि की बात न करें या भले ही वह स्वयं कभी अयोध्या की यात्रा पर न गए हों, लेकिन उस एजेंडा के अनुसार ही तो सारी मानसिकता तैयार की गई है। अब इसमें चाहे मीडिया का सहारा लिया जाए या विभिन्न राज्यों में सरकारों को गिराने या बचाने का तरीका अपनाया जाए। उनके लीडर और कैडर यह बात कहते हैं कि हमने अपने घोषणापत्र में जनता से जो वादा किया है उसे हम लागू कर रहे हैं। किसी भी राजनीतिक पार्टी का यह दायित्व है कि वह अपने चुनावी घोषणापत्र को लागू करे। देखिए, एक दौर आता है जब लोग कलेक्टिव डिल्यूजन यानी सामूहिक मतिभ्रम के शिकार हो जाते हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक अवस्था है। आप याद करिए उस समय को जब अनेक वैज्ञानिक और बड़े-बड़े प्रोफेसर गणेश जी को दूध पिलाने निकल पड़े थे। भले ही कुछ वर्षों बाद उनको लगा हो कि उन्होंने एक ऐसी बेवकूफी की थी लेकिन उस समय वे एक कलेक्टिव डिल्यूजन के शिकार हो गए थे। इसी तरह अभी हमने कोरोना के समय देखा कि लोग अपनी छतों पर खड़े होकर थाली और ताली पीटने लगे। हो सकता है कि बाद में उन्हें अपनी इस मूर्खता का एहसास हो। आज वही स्थिति है। अब कहा गया है कि 5 अगस्त को सब लोग दिवाली मनाएं और लोग मनाएंगे।

जिस दौर में राम जन्मभूमि आंदोलन विकसित हुआ यह वही दौर था जब सोवियत संघ का विघटन हुआ और भारत ने नव उदारवादी आर्थिक व्यवस्था के दौर में प्रवेश किया, आर्थिक सुधारों की शुरुआत की। साथ ही इसी दौर में भारत के अंदर हिंदू कट्टरवादी ताकतें बाजार के साथ मिलकर पूंजीवाद के तर्क को कहीं ज्यादा खतरनाक ढंग से आगे बढ़ाने में कामयाब हो गईं। क्या जो वर्तमान दौर है उसकी कोई पृष्ठभूमि 90 के दशक में ही तैयार हो गई थी? या उसका कोई बिंदु इमरजेंसी में तलाशा जा सकता है?

आपकी बात काफी हद तक सही है और आपको यह भी याद होगा कि मैंने कहा कि यह लड़ाई पूंजीवाद के समर्थक और पूंजीवाद के विरोधी या समाजवाद के पक्षधर लोगों के बीच की ही लड़ाई है। 1980 के उत्तरार्ध और 1990 के दशक में जब सोवियत संघ का विघटन हुआ उसके बाद से जो चीजें खराब हुई हैं वह अनायास ही नहीं है। यह ऐसा दौर था जिसमें तेजी से कुछ घटनाएं हुई मसलन राजनीति का अपराधीकरण, अर्थव्यवस्था का भूमंडलीकरण, समाज का संप्रदायीकरण और संगठनों का एनजीओकरण। यह सब एक साथ देखने को मिला और इनके मेल से अत्यंत घातक जहर तैयार हुआ। तो यह लड़ाई अभी लंबी चलेगी। देखिए, समाजवाद को संस्थागत रूप से स्थापित हुए 2017 में महज 100 वर्ष होंगे– अगर हम 1917 की रूसी क्रांति को अपना आधार मानें तो। और पूंजीवाद को? अगर सुविधा के लिए कोलंबस के समय को ही मान लें तो भी 500 साल से ज्यादा हुए। यह लड़ाई सौ साल और पाँच सौ साल के अनुभव के बीच की है। यही वजह है कि पूंजीवाद बार-बार नया जीवन धारण कर लेता है। मैंने जब से होश संभाला– एक टर्म है मारीबांड कैपिटलीज़्म यानी ‘मरणासन्न पूंजीवाद’ जिसे मैं सुनता आ रहा हूं। मैं अब लगभग मरणासन्न होने जा रहा हूं पर पूंजीवाद निरंतर अपने को विकसित करता जा रहा है। कितनी बार लगता है कि पूंजीवाद अब मरा कि तब मरा लेकिन वह कभी डोनाल्ड ट्रंप के रूप में तो कभी बिल गेट्स के रूप में जनता के लिए कोरोनावायरस का वैक्सीन तैयार करने का उदार रूप धारण कर नया जीवन पा जाता है और हम ताली और थाली बजाते रहते हैं। तो यह लड़ाई लंबी है। इसमें बहुत परेशान होने की जरूरत नहीं है। निराश होने की जरूरत नहीं है। पस्त होने की जरूरत नहीं है। अपने को स्थिर करके बार-बार लोगों को गोलबंद करते रहने की जरूरत है और केवल सांगठनिक शक्ति के जरिए, जनता की शक्ति के जरिए ही इस लड़ाई से हम पार पा सकते हैं।

आपकी इस सार्थक टिप्पणी के साथ इस चर्चा को खत्म करते हैं। धन्यवाद।    


आनंद स्‍वरूप वर्मा वरिष्‍ठ पत्रकार और समकालीन तीसरी दुनिया के संस्‍थापक हैं। अभिनव श्रीवास्‍तव स्‍वतंत्र पत्रकारिता करते हैं।


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जनपथ हिंदी जगत के शुरुआती ब्लॉगों में है जिसे 2006 में शुरू किया गया था। शुरुआत में निजी ब्लॉग के रूप में इसकी शक्ल थी, जिसे बाद में चुनिंदा लेखों, ख़बरों, संस्मरणों और साक्षात्कारों तक विस्तृत किया गया। अपने दस साल इस ब्लॉग ने 2016 में पूरे किए, लेकिन संयोग से कुछ तकनीकी दिक्कत के चलते इसके डोमेन का नवीनीकरण नहीं हो सका। जनपथ को मौजूदा पता दोबारा 2019 में मिला, जिसके बाद कुछ समानधर्मा लेखकों और पत्रकारों के सुझाव से इसे एक वेबसाइट में तब्दील करने की दिशा में प्रयास किया गया। इसके पीछे सोच वही रही जो बरसों पहले ब्लॉग शुरू करते वक्त थी, कि स्वतंत्र रूप से लिखने वालों के लिए अखबारों में स्पेस कम हो रही है। ऐसी सूरत में जनपथ की कोशिश है कि वैचारिक टिप्पणियों, संस्मरणों, विश्लेषणों, अनूदित लेखों और साक्षात्कारों के माध्यम से एक दबावमुक्त सामुदायिक मंच का निर्माण किया जाए जहां किसी के छपने पर, कुछ भी छपने पर, पाबंदी न हो। शर्त बस एक हैः जो भी छपे, वह जन-हित में हो। व्यापक जन-सरोकारों से प्रेरित हो। व्यावसायिक लालसा से मुक्त हो क्योंकि जनपथ विशुद्ध अव्यावसायिक मंच है और कहीं किसी भी रूप में किसी संस्थान के तौर पर पंजीकृत नहीं है।

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