हिंदी में पुरस्कारधर्मी मानसिकता और उससे जुड़े साहित्यिक भ्रष्टाचार के सवाल न तो किसी एक संस्था से जुड़े हैं न किसी एक व्यक्ति या पुरस्कार से और न ही वे आज पहली बार उठे हैं। ये हिंदी में पनपे और लगातार बढ़ते जाते भ्रष्टाचार के अहम सवाल हैं जो साहित्यिक पुरस्कारों से जुड़ी अधिकांश सरकारी, गैर-सरकारी संस्थाओं, व्यक्तिगत पहलों में दिखाई पड़ता है और लेखकों में अनैतिक किस्म की गुटबाजियों, तिकड़मों, अस्वस्थ प्रतियोगिताओं और साहित्येतर महत्वाकांक्षाओं को बढ़ावा देता है।
कुछ हिंदी के पुरस्कारधर्मी लेखकों ने इस बड़े और ऐतिहासिक सवाल को जान-बूझकर एक व्यक्ति में केंद्रित करने की कोशिश की और तर्क दिया कि उनकी कविताएं महत्वपूर्ण हैं जिन पर पुरस्कार मिलना वाजिब है। फिर कहा कि कुछ लोग निषेधात्मकता या विद्वेष के कारण ऐसा कर रहे हैं। उनका यह भी कहना है कि ऐसे व्यक्ति को पुरस्कार मिलने से हिंदी भाषा, कविता, स्त्री का गौरव बढ़ता है और अंततः साहित्य महिमामंडित होता है। इस तरह एक बड़े सवाल को व्यक्ति में, जेंडर में सीमित करने की यह कोशिश नए-नए तर्क गढ़ रही है आम भ्रष्टाचार के मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए।
ये लोग या तो हिंदी साहित्य की तमाम नैतिक परंपराओं और सिद्धांतों पर हुई बहसों को अनदेखा कर एक नया भ्रम इन सबके बारे में फैला रहे हैं या शायद उनसे अनजान दिखा रहे हैं। अभी तक साहित्य में इन संस्थाओं के आचरण पर लगातार बहसें हुईं हैं और उन्हें अधिकतर निर्णयों में साहित्येतर इरादों से प्रेरित पाया गया है। कुछ ही दिन तो हुए हैं उस पुरस्कार वापसी आंदोलन को जिसमें सबने इन्हें दोषी पाया था। इस बीच में ऐसा क्या हो गया कि अचानक ये संस्थाएं इतनी पवित्र हो गईं कि उसके निर्णयों पर लहालोट होने लगे। एक व्यक्ति-विशेष का सहारा लेकर ये पुरस्कारधर्मी लोग अपनी महत्वाकांक्षाओं को फलीभूत करने को लालायित हैं।
पुरस्कार देने वाली संस्थाओं के बारे में केवल हिंदी में ही नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं पर भी प्रबुद्ध लोगों की यह आम राय रही है कि अपने निर्णयों की अनैतिकता और आधारहीनता को छुपाने के लिए और अपनी विश्वसनीयता बहाल करने के लिए ये बीच-बीच में योग्य व्यक्ति को चुनकर अपने अपराधों पर पर्दा डालने का काम करती हैं। यही अनामिका के मामले में हुआ है।
हिंदी के लेखक उन्हें एक महत्वपूर्ण कवयित्री और लेखिका समझते हैं। वे हिंदी लेखकों के बीच लगभग अजातशत्रु की हैसियत रखती हैं। यह पुरस्कार उन्हें क्या नया गौरव देगा जो उनके साहित्य ने उन्हें पहले ही नहीं दिया हुआ! निहित स्वार्थ उनका नाम लेकर, उनके साहित्य के बहाने, जेंडर के बहाने पूरी बहस को एक गलत रूप देना चाहते हैं। उन्हें अपने साहित्य और लेखन से जो गौरव, लोकप्रियता और महत्व पहले ही प्राप्त है उसमें यह पुरस्कार क्या इजाफा करेगा भला!
दरअसल उन्हें पुरस्कार देकर अकादमी स्वयं को गौरवान्वित कर अपने तमाम अपराधों को सफेद करने का काम कर रही है, यह मुख्य सवाल है जो न तो हिंदी में और न केवल अकादमी के बारे में पहली बार उठ रहा है।
कई उत्सवप्रेमी और पुरस्कारधर्मी नारीवादी स्त्री लेखिकाओं ने इसे जेंडर का सवाल बनाने की कोशिश की है। यह न किसी लेखक के साहित्य के मूल्यांकन का प्रश्न है, न जेंडर का बल्कि इन संस्थाओं के प्रश्रय में पलते उस साहित्यिक भ्रष्टाचार का है जो इस तरह के पुरस्कार से अपनी तमाम कारगुजारियों से बरी होने की कोशिश करती है और लेखकों में इस भ्रष्टाचार को संगत ठहराने का भाव जगाती है। ये प्रश्न आज के नहीं हैं, आजादी के बाद से लगातार उठते और उठाए जाते रहे हैं। हमारे देश में नहीं पूरी दुनिया में उठाए जाते रहे हैं, किसी एक व्यवस्था में नहीं सब व्यवस्थाओं में उठाए जाते रहे हैं।
हां ये जरूर है कि ज्यां पाल सार्त्र की तरह हिंदी में सैद्धांतिक साहस दिखाने वाले लेखकों का नितांत अभाव है। इनाम इकराम यश की भूख तो सामान्य वासनाएं है, उनकी पूर्ति के लिए लेखक होने की जरूरत नहीं।
कर्ण सिंह चौहान वरिष्ठ साहित्यकार हैं और यह पोस्ट उनके फ़ेसबुक से साभार प्रकाशित है