बासु चटर्जी: एक रचनाकार का अस्तित्ववादी द्वंद्व


फिल्मकार बासु चटर्जी का आज निधन हो गया। कुछ दिन पहले ही नये भारतीय सिनेमा पर विचार करते हुए मूर्धन्य सिने आलोचक विद्यार्थी चटर्जी ने बासु चटर्जी के सिनेमा पर एक गहरा लेख लिखा था जो समयांतर में प्रकाशित हुआ था। बासु चटर्जी के सिनेमा और व्यक्तित्व दोनों को समझने के लिहाज से यह लेख एक बार फिर पढ़ा जाना चाहिए। अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद अभिषेक श्रीवास्तव ने किया है। लेख यहां समयांतर से साभार प्रकाशित है।

संपादक

आम तौर से यह माना जाता है कि नया भारतीय सिनेमा नाम का मौलिक आंदोलन आज से पचास साल पहले मृणाल सेन की फिल्म भुवन शोम के साथ शुरू हुआ था, वैसे बासु चटर्जी की सारा आकाश को भी इसका श्रेय दिया जाता है। हाल ही में संपन्न हुए कोलकाता फिल्म महोत्सव के 25वें संस्करण में सारा आकाश सहित बासु चटर्जी की चार अन्य लेकिन कम चर्चित फिल्मों के प्रदर्शन के बहाने इस बात पर विचार करने के पर्याप्त अवसर हैं कि साहस, कौशल, धैर्य और दृष्टि के लिहाज से एक रचनाकार होने के मायने क्या हैं। साथ ही यह भी विचार किया जाना चाहिए जब एक रचनाकार अपनी रचनात्मकता के बुनियादी तर्क से विचलन के अपने निर्णय के पक्ष में दलील गढ़ते हुए समझौतापरस्ती को चुनता है, तो उसका हश्र क्या होता है।

नया भारतीय सिनेमा 1969 में शुरू हुआ और अगली चौथाई सदी तक ठीकठाक स्थिति में जारी रहा। शुरुआती उत्साह के छीज जाने के बाद भी विभिन्न भारतीय भाषाओं में फिल्में बनती रहीं, भले उनकी संख्या साल में एकाध रही हो। यह इस आंदोलन के शुरुआती प्रणेताओं की रचनात्मक व प्रयोगात्मक महत्वाकांक्षाओं का प्रतिबिंब था। जिस वक्त इस नयी पीढ़ी ने काम शुरू किया था, वह दौर तीव्र सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल का था। इन फिल्मकारों ने अपनी कला से व्यवस्था की आलोचना की और कभी-कभार तो एक एक्टिविस्ट की भूमिका में भी वे रहे। इन्हें अपेक्षाकृत कम लेकिन पूरे देश में खास किस्म के दर्शक मिले, जो पलायनवादी व्यावसायिक सिनेमा से तंग आ चुके थे और संविधान में किए वादों के आधिकारिक रूप से नकारे जाने से हताश थे।

मृणाल सेन, अडूर गोपालकृष्णन या गिरीश कासरवल्ली जैसे उस्तादों ने कलात्मकता के अलावा कभी किसी अन्य आयाम को प्रश्रय नहीं दिया। ये सभी अपने-अपने काम में कलात्मकता और शैली-तत्व की विशिष्टता को समझते थे। इनसे ठीक उलट, बासु चटर्जी का कुछ समय तक इस आंदोलन से लेना-देना रहा, हालांकि वह ज्यादातर शोशेबाज़ी ही थी जो शुरू होने से पहले ही खत्म हो गयी। यह कहना अनुदारता नहीं होगी कि वे शायद लोकप्रियता और व्यावसायिक कामयाबी अर्जित करने की जल्दबाज़ी में थे, लेकिन वे जिस दौड़ में थे उसमें बादशाहत से कम कुछ भी काफी नहीं होता। अपने भीतर के उस निर्देशक से उनके तार टूट चुके लगते थे जिसने सारा आकाश में अपना कौशल साबित किया था, जिससे प्रेरित होकर एक आलोचक को इस फिल्म के बारे में कहना पड़ा था कि “यह अनचाहे और कम उम्र के ब्याह से उपजी घरेलू कलह का एक गंभीर और सूक्ष्म अध्ययन है।”

देश के दूसरे हिस्सों में उनके समकालीन कुछ बेहतरीन फिल्मकारों के भीतर जैसा धैर्य या कहें त्वरित सफलता के प्रति जैसी अरुचि दिखती थी, वह चटर्जी के यहां नहीं थी। अकेले सत्तर के दशक में उन्होंने बीस से ज्यादा फिल्में बनायीं। ये सभी व्यावसायिक रूप से कामयाब रहीं, कुछ ज्यादा तो कुछ कम, लेकिन यह कहना शायद बेहतर हो कि सामने पड़ी चकमदार सफलता के चक्कर में वे दूर की उस कौड़ी से चूक गये जो मुट्ठी भर विजेताओं को दौड़ने वाली भीड़ से अलग करती है। इससे भी बुरा यह रहा कि उन्हें इस नुकसान का अहसास तक नहीं हुआ, इसका अफ़सोस मनाना तो दूर की बात है। इस अहसास का न होना ही पुष्टि करता था कि वे पाला लांघ कर अब कभी न वापस आने के लिए सिनेमाई कचरे की दुनिया में जा चुके हैं।

समूचे सत्तर और अस्सी के दशक के दौरान जब सामाजिक प्रतिबद्धता वाली फिल्में चलन में रहीं- शायद इसलिए कि उस वक्त पर्याप्त लोग भी थे जो इन फिल्मों की ज़रूरत को महसूस करते थे- “आलोचकों के लिए यह पहेली थी कि बासु चटर्जी जैसी प्रतिभा आखिर क्यों आरामगाह में चली गयी।” इस आलोचना का चटर्जी ने जो जवाब दिया, वह आत्मावलोकन से कहीं ज्यादा बचाव को दिखाता थाः “मैं जिंदगी को इसी तरह से लेता हूं। मैं जानता हूं कि इस दुनिया में दुख और गरीबी है। मैं उसका हिस्सा हूं। मैं इसे महसूस करता हूं। फिर क्यों नहीं इसके तत्व को पकड़ा जाए और इसी से उलझा जाए। तमाम निर्देशक दुख, रुग्णता, रहस्य को दिखाते हैं। ऐसे कई किस्म के निर्देशक हैं। मेरा निजी फलसफा यह है कि जिंदगी हमेशा संदेशों से ही भरी नहीं होती। इसमें कुछ सहज तत्व भी हैं जो हमें अपार खुशी देते हैं। मैं वही दिखाना पसंद करता हूं। जिंदगी के छोटे-छोटे सुख।”

मानना होगा कि चटर्जी ने पलायनवाद की संस्कृति को जिस तरीके से सही ठहराया है, बंबई के व्यावसायिक फिल्म जगत में कुछ ही लोग अपनी ग्लानि को इस तरह से परिभाषित कर पाएंगे, जिस पर यह इंडस्ट्री तकरीबन पूरी तरह निर्भर है। इस किस्म का शाब्दिक साहस हालांकि यह हकीकत नहीं छुपा सकता, कि कुछ रचनाकार हमेशा से ही जिदगी की दुश्वारियों को दिखाने के खिलाफ रहे हैं और इसके पीछे वे अपने किस्म के मनोरंजन की दलील देते हैं। इसे आप मानें या न मानें, लेकिन इस हकीकत से मुंह नहीं मोड़ सकते कि आर्थिक से लेकर भावनात्मक यानी हर किस्म की वंचना से पैदा हुई हताशा आज ज्यादातर भारतीयों को घेरे हुए है और यही उनकी जिंदगी का केंद्रीय भाव है। नया भारतीय सिनेमा की कई फिल्मों में भी यही केंद्रीय विषय है, भले उतने प्रत्यक्ष रूप में ज़ाहिर न हो। चटर्जी इस मामले में अलग हैं कि कुछ ज्यादा मीठा खिलाने की अपनी प्रतिबद्धता में वे कुनैन को भी चाशनी में लपेट कर परोस देते हैं।  

इस सदंर्भ में शायद सारा आकाश के अंत की सराहना की जानी चाहिए, जो उनका इकलौता गंभीर काम है, जिसमें एक ऐसे मध्यवर्गीय उत्तर भारतीय परिवार के बारे में हास्यास्पद अंतरे हैं जो पितृसत्तात्मक धारणाओं के चक्कर में खुद को पहचान नहीं पा रहा। राजेंद्र यादव के लिखे त्रासद अंत वाले इसी नाम के एक उपन्यास पर बनी इस फिल्म को “जिंदगी का सुख और उत्साह” प्रकाशित करने की स्वघोषित रुचि से प्रेरित चटर्जी उलझे हुए एक दंपत्ति के बीच सुखद समझौते पर लाकर खत्म कर देते हैं, बजाय इसके कि उपन्यास का अंत नवविवाहित पुरुष की बहन की उसके ससुराल में हुई रहस्यमय मौत और एक टेलीग्राम के माध्यम से उसके माता−पिता तक पहुंचे संदेश में होता। 

कहने की ज़रूरत नहीं है कि चीज़ों को संतुलित करने की यह कवायद, शिकन को सपाट करने की कोशिश और इस तरह से दुनिया को खतरों से महफूज़ दिखाने के तमाम कारनामे दरअसल अच्छी और दीर्घकालिक कला के खिलाफ जाते हैं क्योंकि कोई भी सौंदर्य सत्य के आवाहन के बगैर मुमकिन नहीं है। दुनिया भर के विवेकवान पुरुषों और स्त्रियों ने एक कलाकार की भूमिका को शुरुआत से ऐसे ही समझा है, कि उसका काम नशा देना नहीं है, पोषित करना है और बेशक छिछला मनोरंजन करना तो बिल्कुल भी नहीं है। विवेकहीन भीड़ के समर्थन में गरजने से कलाकार खुद को उस अस्तित्ववादी द्वंद्व के शिकंजे से नहीं बचा सकता जिसमें वह खुद जकड़ा हुआ है।

मृणाल सेन अपनी आखिरी फिल्म अमर भुबन बनाते वक्त अस्सी पार थे। इसे उनकी बड़ी उपलब्धियों के साथ रखकर नहीं गिना जाता, लेकिन इस फिल्म में उस आदर्शवाद या कहें एक समकालीन कथा को सुनाने की बेचैनी साफ झलकती है। उनके भीतर का महान कलाकार हमें बार−बार इलियट के ये शब्द याद दिलाता हैः “जो लोग काफी दूर तक जाने का जोखिम उठा सकते हों, केवल वे ही लोग शायद यह जान सकेंगे कि वे कितनी दूर जा सकते हैं।” सेन के भीतर यह भावना मरते दम तक मौजूद रही। हर बार उन्हें झटका लगा, हर बार वे इस अदम्य इच्छाशक्ति से वापस उभर आए। इसके उलट बासु चटर्जी के बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि “जब एक व्यक्ति अपने काम की सीमा खुद बांध लेता है तो वह खुद को भी सीमाबद्ध कर लेता है कि वह क्या होगा।”

सारा आकाश जितनी मौलिक और भव्य फिल्म थी, चटर्जी बड़ी आसानी से भारतीय सिनेमा के इतिहास में अपनी जगह बना सकते थे लेकिन उन्होंने बाजारू दुनिया के बीच एक बंद महल में बसने से संतोष कर लिया। जाहिर है, गरीबी और संपन्नता के बीच चुनाव कभी भी इतना आसान नहीं रहा। जब कभी किसी कलाकार ने हो-हल्ले पर संगीत को चुना, स्वर्ण मुद्राओं के बदले आत्मा की आवाज़ सुनी, उसे बहुसंख्य द्वारा खारिज किए जाने से संतोष करना पड़ा लेकिन साथ ही उसे कुछ लोगों ने गले भी लगाया। ये वही मुट्ठी भर लोग हैं, जो लंबी दूरी में हमेशा मायने रखते हैं।


लेखक मू्र्धन्य सिने आलोचक हैं

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4 Comments on “बासु चटर्जी: एक रचनाकार का अस्तित्ववादी द्वंद्व”

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