फ्रांस में एक धार्मिक मदान्ध ने उस टीचर की हत्या कर दी जो क्लास में पढाते हुए हजरत मुहम्मद के बनाये गये कार्टून के आधार पर अभिव्यक्ति की आजादी समझा रहे थे। घटना साम्प्रदायिक वहशीपन है और इस तरह की चीजें इस्लाम जैसे महान धर्म को कलंकित करती हैं। यहां इस पोस्ट में मेरा प्रयास यह है हम इस घटना को भारतीय मुसलमानों के लिहाज से कैसे समझें।
हम जिस प्रकार से इस घटना को समझेंगे उससे यह समझने में मदद मिल सकती है कि हम अपनी सोच ,धारणा में कितना अधिक जाने अनजाने साम्प्रदायिक हो चुके हैं। यह बात मैं मुख्यतः हिन्दू और मुस्लिम दोनो संप्रदायिकताओं के लिहाज से कहूंगा।
इस घटना का अगर हिन्दू साम्प्रदायिक समझ से मतलब लगाएं तो हिन्दू इससे खुश होगा क्योंकि उसकी मुसलमानों के बारे में जो धारणा है उसे बल मिलेगा। वो कहेगा कि मुसलमान सारी दुनिया मे फसाद की जड़ हैं। उनका धर्म केवल कट्टरता सिखाता है और वो अन्य धर्मावलंबियों को अपना दुश्मन समझते हैं। जहां जहां वो ताकतवर हैं वहां इन्होंने अपना धार्मिक कानून बना रखा है। वो तो मजबूरी में सद्भाव वगैरह की बात करते हैं जहां कम हैं। फिर वो कुरान ,शरीयत आदि पर आ जायेगा और हर तरह से मुसलमान कौम को बुरा साबित करेगा। उसे फ्रांस की घटना एक रूलिंग /नजीर लगेगी।
जो मुस्लिम संप्रदायिक के हिसाब से कोई मुस्लिम सोचे तो वो मन ही मन खुश होगा कि अच्छा सबक दिया। कोई हमारे धर्म को नीचा दिखाए या उसका मखौल उड़ाए तो यही सुलूक होना चाहिए। वो मुस्लिम साम्प्रदायिक यह भी सोचेगा कि अभी भी हमारी कौम में इतना जोर है कि हम बदला ले सकते हैं।
अब सवाल ये है कि इन दोनों व्याख्याओं में कौन सही है कौन गलत है।
आप गौर से देखिये तो ये दोनों साम्प्रदायिकताएँ एक ही तरह से सोच रही हैं। ये कहने को तो एक दूसरे के विरोधी लग रही लेकिन ये दोनों आपस में एक दूसरे को जस्टिफाई भी कर रही हैं। किस तरह से?
दोनोंं ये मान रहे हैं कि फ्रांस के एक शहर में घटी घटना का महत्त्व उसी तरह का है जैसे चावल का एक दाना देखकर पूरी पतीली का पता चल जाता है। दोनो एक खराब घटना के आधार पर दुनिया भर में फैली पूरी बिरादरी को एक ही तरह का बता रहे हैं। दरअसल ये दोनों अपनी अपनी बिरादरी को एक ही डंडे (धार्मिक डंडा) से हांकना चाहते हैं और उसके एकमात्र प्रवक्ता बनना चाहते हैं। दोनोंं लोग धार्मिक नफरत से भरे रहे हैं। दोनोंं अपने अपने धर्म को सबसे अच्छा मान रहे हैं। अगर आप इन दोनों की अन्य सोचों पर जाएं तो दोनो बहुत पिछड़ी हुई सोच वाले होंगे। महिलाओं के प्रति दोनोंं की सोच उनको बांध के रखने वाली होगी। दोनोंं भयंकर भाग्यवादी होंगे और असल जिंदगी की समस्याओं से मुंह चुराने वाले भी होंगे। एक कयामत के इंतजार में रहता होगा ,दूसरा पूर्व जन्म के पाप पुण्य को संसार गति मानता होगा।
तो ये दोनों तरह की संप्रदायिकताएँ, या कि अन्य भी जो हैं ,वो सब एक ही तरह से सोचती हैं भले ही आपस मेंं एक दूसरे से लड़ती दिखें।
साम्प्रदायिक सोच में एक खास बात होती है कि वो किसी एक जगह की हिंसक घटना के आधार पर कुछ सामान्यीकरण करती है। जैसे फ्रांस में एक मुसलमान ने हत्या की तो उसका मतलब यह लगा दिया जाएगा कि दुनिया भर के सारे मुसलमान ही हत्यारी सोच वाले हैं। अगर कोई मुसलमान हत्यारा नहींं होगा तो ये मान लिया जाएगा कि वो मजबूरी में शरीफ है वरना मौका मिलने पर वो भी ऐसा ही करता। इसी तरह से अगर कोई हिन्दू किसी मुसलमान को मार देगा तो मुसलिम कट्टरपंथी अपनी जमात में सारे हिन्दू ऐसे ही नफरती हैं बताने की कोशिश करेगा। मतलब ये है कि हत्यारे के धर्म के आधार पर उस धर्म के सभी लोगों को हत्यारा समान घोषित कर दिया जाएगा या कम से कम मन मेंं तो यही सोच लिया जाएगा।
एक बात और है। एक तरह की साम्प्रदायिकता जिस धर्म खास को निशाना बनाती है, उसकी धार्मिक पुस्तक/पुस्तकों से ऐसे उद्धरण निकाले रखती है जिसमेंं कुछ हिंसा की वकालत की गई हो। उन उद्धरणों को नजीर के तौर पर पेश कर दिया जाता है कि देखिए साहेब, इनकी तो धार्मिक किताब में ही दूसरे धर्म वालों पर या दूसरों पर हिंसा करना जायज़़ लिखा है। इस तरह की बातें साम्प्रदायिकता में किसी भी धर्म मानने वालों को थोक में बदनाम करने के काम लायी जाती हैं, हालांकि इसमेंं जैसी राजनीति की जरूरत रहती है उस तरह से कम ज्यादा किया जाता रहता है। जैसे कोई खास समय मेंं हिन्दू को मुसलमान सबसे खराब प्राणी लगने लगेगा। कुछ समय बाद जब उस तरह की राजनीति की जरूरत नहींं होगी तो फिर से वो ठीकठाक लगने लगेगा।
हिन्दू-मुस्लिम से परे भारत मेंं एक अन्य बिरादरी भी इस तरह के दौर से गुजर चुकी है। वो है सिख समाज। 1970 के दशक के अंत से सिख अलगाववाद जोर पकड़ने लगा। उसका आलम यह हुआ कि शेष धर्मावलंबियों को हर सिख आतंकवादी दिखने लगा था। ये कहा जाता था कि सिख धर्म मेंं ही कृपाण रखने की छूट दी गयी है तो सिख तो वैसे भी हिंसक व आतंकवादी होंगे क्योंकि सिख धर्म को शुरू से ही लड़ने भिड़ने के लिए बनाया गया था।
तात्पर्य यह है कि धार्मिक किताबों के अंश दिखाने का एक तरीका किसी धर्म को कट्टर /हिंसक बताने के लिए साम्प्रदायिकता इस्तेमाल करताा है। अब भारतीय मुसलमानों के बारे में कुछ बातें।
भारत के मुसलमान उतने ही अच्छे या बुरे हैं या हो सकते हैं जितना भारत का कोई भी अन्य धर्म वाला व्यक्ति। वो न तो अलग से अच्छे हैं न ही अलग से बुरे। वो सामान्य हैं। भारत के मुसलमानों पर भी वो सब प्रभाव हैं जो अन्य लोगों पर। उनके सपने भी वही हैं जो अन्य किसी के। जैसे- परिवार सम्बन्धी जो चिंताएं किसी हिन्दू को होती हैं वही उनमेंं भी हैं। वो भी उतना ही तरक्की करना चाहते हैं जितना कोई और। उनके सुख दुख ,जीना मरना सब उतना ही भारतीय है जितना किसी और भारतवासी का।
कहने का मतलब यह कि वो कोई अजीब चीज नही हैं। अगर साम्प्रदायिक धारणाओं से मुक्त होकर करीब से देखेंगे तो भारत के ताने-बाने से उसी तरह से अपनी सारी अच्छाइयों-बुराइयों के साथ वे गुुंथे मिलेंगे जितना कोई और। इसके अलावा, वर्ग, जाति, क्षेत्र, भाषा, पारिवारिक संस्कार, शिक्षा आदि के जो मायने हिंदुस्तान में सबके लिए हैं वही उनके लिए भी। खानपान, पोशाक, नेचर भी उतना ही अलग और समान मिलेगा जितना किसी और का।
तो क्या मुस्लिम समाज मे कोई समस्या ही नहींं है? निश्चित ही मुस्लिम समाज मेंं बहुत से सुधार की संभावनाएं हैं, लेकिन वो एकमात्र ऐसे नहींं हैं। हर धर्म के लोगों में तमाम सामाजिक समस्याएं हैं। इन समस्याओं को कैसे दूर किया जाए, यह काम उस समाज के समझदार लोगों के ऊपर छोड़ना चाहिए और उसमे यथासम्भव सहायता करनी चाहिए। किसी समाज में मौजूद समस्याओं को उस समाज को हिकारत से देखने का जरिया बनाना गलत तो है ही, साथ ही स्वयं की मूढ़ता भी है।
मुस्लिम समाज भी बदलावों से अछूता समाज नहींं है। उस पर भी बाहरी हवा पानी का उतना ही असर होता है जितना किसी पर। रही बात बदलाव की स्पीड की तो ये बहुत से कारकों पर निर्भर करता है। सामाजिक बदलाव तेजी से हमेशा एक सौहार्दपूर्ण माहौल में ही सम्भव होते हैं क्योंकि जब खुशनुमा सामाजिक माहौल होता है तो उससे आत्मविश्वास बढ़ता है और मनुष्य अपना आंतरिक विकास कर पाता है।
उदाहरण के लिए बुर्का प्रथा। मुसलमानों में बुर्के का चलन लगभग अंतिम सांसेंं गिन रहा है। युवा पीढ़ी में शायद ही कोई बुर्के में रहे।
एक बात ये भी है कि किसी धार्मिक समुदाय को सुधार के लिए कोंचा नही जा सकता और न ही जलील किया जा सकता है। जैसे कोई ब्राह्मण जो भले ही किसी अन्य जाति वाले पर जुल्म न करता हो, लेकिन अगर उसकी जातीय श्रेष्ठता के मानसिक बोध को गाली देकर उसे जलील किया जाए तो वो अपनी ब्राह्मण पहचान के प्रति सायास चिपक जाएगा।
भारतीय मुसलमान अपना जीवन धार्मिक किताब/किताबों के अनुसार कॉपीबुक स्टाइल में नहींं जीते। हिन्दू, सिख, ईसाई कोई भी अपनी जिंदगी धार्मिक संदेशों के आधार पर नही जीता। हर धर्म मेंं कुछ कर्मकांड होते हैं। उन्हें वो धर्म वाला अपने अपने हिसाब से ढीला या कसा रूटीन बनाकर करने की कोशिश करता है। कुछेक धार्मिक संस्कार होते हैं, वो भी अपनी सुविधा, इच्छा तथा (आर्थिक सामर्थ्य) के हिसाब से कर लेता है। इसमेंं कुछ भी असहज होने जैसा नहींं होता और न ही वो सब बहुत महत्त्वपूर्ण और बुरा ही होता है कि वो राष्ट्र की सुरक्षा या राष्ट्रीय मांग या चिल्लाहट का विषय बनाया जाए। ये सब साम्प्रदायिक राजनीति की रोटियां सेंकने के लिए किया जाता है।
क्या मुसलमानों में अपने धर्म के लिए कट्टरता नहींं है? मैं समझता हूं उनमे धर्म के प्रति एक संवेदनशीलता है और इस संवेदनशीलता का कारण सामाजिक राजनीतिक परिदृश्य है। इस तरह से हर धर्म वाले में अपने धर्म के प्रति एक संवेदनशीलता रहती है। कम या ज्यादा का सवाल एक साम्प्रदायिक सवाल है जिसका लोग अपनी धारणाओं के आधार पर उत्तर गढ़ते रहते हैं।
तार्किक समाज, वैज्ञानिक बोध वाला समाज ये सब कुछ अभीष्ट हैं, लेकिन सबसे बड़ा अभीष्ट और लक्ष्य सभ्य समाज होना है। सभ्य समाज के लिए सबसे जरूरी शर्त यह है कि धार्मिक मामलों में एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करना। अगर ऐसा न हो और कोई बात अपने धर्म का असम्मान लगे तो उसके लिए मनुष्य धर्म न छोड़ना।
हर धार्मिक मतावलंबियों की तरह मुसलमानों को भी इस परीक्षा में और खरा उतरने की जरूरत है।
(यह पोस्ट लेखक के फेसबुक से साभार प्रकाशित है)