किसान संगठनों का कहना है कि तीन कानूनों को निरस्त करने और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी गारंटी प्रदान करने से भारत राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) के तहत आम लोगों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के जरिए 5 किलोग्राम के बजाय 15 किलोग्राम अनाज दे सकेगा जबकि सरकार ने कहा है कि वो तीन कानूनों को निरस्त नहीं करेगी और न ही उसके लिए सभी 23 फसलों के लिए एमएसपी को कानूनी गारंटी देना संभव होगा क्योंकि इसमें 17 लाख करोड़ रुपये खर्च होंगे।
किसान संगठनों ने बिल्कुल सही तरीके से एक प्रोत्साहित एमएसपी के जरिए किये जाने वाले कृषि उत्पादन को खाद्य सुरक्षा के मुद्दे से जोड़ा है क्योंकि यही वो कारक है जिसने भारत को सत्तर के दशक से खाद्य सुरक्षा के मामले में आत्मनिर्भर होने की ओर बढ़ाया। फिर भी, इस वक़्त केवल आधी लड़ाई ही जीती जा सकी है। अभी भी अनाज के ढेर लगे हैं, जबकि भुखमरी गरीबों का पीछा कर रही है। अनाज के उत्पादन का एक सर्वव्यापी पीडीएस के साथ एकीकरण एक समावेशी भारतीय राष्ट्रवाद का असली चेहरा बन सकता है।
हरित क्रांति की शुरुआत दरअसल खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भरता हासिल करने और अपमानजनक शर्तों पर मिलने वाली अमेरिकी खाद्य सहायता पर हमारी निर्भरता से छुटकारा पाने के उद्देश्य से की गई थी। यह पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश का कृषि क्षेत्र ही था, जिसने भारत को एक भीख मांगने वाले देश से बदलकर एक उभरते हुए महत्वपूर्ण देश के रूप में स्थापित होने में मदद की। इस समय यही इलाके वर्तमान विरोध प्रदर्शनों की धुरी बने हुए हैं। हरित क्रांति के दौर में शुरू हुई खरीद, भंडारण और सार्वजनिक वितरण प्रणाली की व्यवस्था ने चावल, गेहूं और चीनी को एक सुनिश्चित मूल्य प्रोत्साहन [एमएसपी] प्रदान किया और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह कि उसने इन फसलों के वास्ते एक घरेलू बाजार को विस्तार दिया। देशभर में उपलब्ध विविध प्रकार के खाद्यान्नों में से केवल चावल, गेहूं और चीनी ही देश के अधिकांश इलाकों में राशन की दुकानों के जरिए मुहैया कराये जाते हैं। सरकार ने गरीबी रेखा के नीचे के परिवारों के लिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा (यानी लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली) सुनिश्चित करने के लिए या इससे पहले अपेक्षाकृत अधिक महत्वाकांक्षी रूप से पूरी आबादी (यानी सर्वव्यापी सार्वजनिक वितरण प्रणाली) के लिए बफर के रूप में रखने के लिए अनाज की खरीद की।
चूंकि खाद्यान्नों के मूल्य निर्धारण और इतनी बड़ी मात्रा में उनकी खरीद में एमएसपी सहित कई अवयव होते हैं, उचित मूल्य की दुकानों (यानी केंद्रीय निर्गम मूल्य) के जरिए बाजार मूल्य से कम पर अनाज वितरित करने के लिए मूल्य निर्धारित करने वाली कुल आर्थिक लागत- सरकार द्वारा वहन की जाने वाली आर्थिक लागत और केंद्रीय निर्गम मूल्य चैनल के माध्यम से होने वाली वसूली के बीच का अंतर- ही खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के क्रम में सब्सिडी बन जाती है।
खाद्य सुरक्षा पर कितना खर्च आता है?
आइए सबसे पहले एमएसपी के मुद्दे को लेते हैं, जो इन दिनों सुर्ख़ियों में बना हुआ है। एमएसपी तब तक कल्पना या विचारों में ही सिमटा रहता है जब तक कि फसल की वास्तव में खरीद नहीं हो जाती है। लिहाजा, सभी फसलों के लिए घोषित एमएसपी की कीमतों को 17 लाख करोड़ रूपए आंकना बिल्कुल भ्रामक है क्योंकि ज्यादातर चावल और गेहूं ही इसके माध्यम से खरीदे जाते हैं और वह भी इन दोनों फसलों के कुल उत्पादन का केवल कुछ खास प्रतिशत [40-50% के बीच] ही। कई बार एमएसपी बाजार में मूल्य स्थिरीकरण के तौर पर भी काम करता है। इस लिहाज से सरकार द्वारा किसी फसल के एक छोटे से प्रतिशत की खरीद [मसलन दाल के उत्पादन का 25%] से बाजार में उस अनाज के मूल्य का स्थिरीकरण हो सकता है।
भारत पिछले कुछ वर्षों से बफर स्टॉक के मानदंडों से कहीं अधिक अनाज का उत्पादन कर रहा है, इसलिए सरकार द्वारा वास्तव में इस लागत का केवल 30-40% ही वहन किया जाएगा। यह कोई 5 -7 लाख करोड़ रुपये के बीच होगा। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, यानी दो तिहाई आबादी के बीच प्रति परिवार 5 किलोग्राम अनाज प्रदान करने का खर्च 1.8 लाख करोड़ रुपये से 2 लाख करोड़ रुपये बीच आना चाहिए। बेशक, इस लागत का कुछ हिस्सा केंद्रीय निर्गम मूल्य पर पीडीएस की दुकानों पर बिक्री के माध्यम से वसूला जाएगा। लिहाजा, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के वर्तमान स्तर पर किसानों की मांगों को मान लिए जाने पर 7-8 लाख करोड़ रुपये से अधिक का खर्च नहीं होगा।
दरअसल, सरकार पीडीएस को सर्वव्यापी बना सकती है या 2-3 लाख करोड़ रुपये की अतिरिक्त लागत से हर घर को 5 किलोग्राम अनाज वितरित किये जाने के प्रावधान को बढ़ाकर 15 किलोग्राम तक ले जा सकती है। इस प्रकार, 7-8 लाख करोड़ रुपये के वार्षिक व्यय से किसानों की मांग को पूरा किया जा सकेगा और कृषि उत्पादन एवं गरीबों के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकेगी। इसके अलावा, सरकार दाल जैसी कुछ वस्तुओं के आयात खर्च में कटौती कर सकेगी। निश्चित रूप से हम दाल जैसी दैनिक उपभोग की वस्तुओं के मामले में आत्मनिर्भर हो सकते हैं, जिसकी पैदावार किसान सुनिश्चित कीमतों के तहत काफी बड़ी कर सकते हैं।
कहां से आएगा पैसा?
सत्ता के गलियारों में बार-बार यह शोर उठता है कि इससे राजकोषीय घाटा बढ़ेगा। जब भी भोजन, बुनियादी शिक्षा, स्वास्थ्य या आवास या रोजगार यानी गरीबों की सुरक्षा जाल को मजबूत करने वाले वस्तुओं के मामले में सब्सिडी की बात आती है, तो नियमित रूप से इस तर्क को लहराया जाता है। इसका विकल्प मौजूद है और विकल्प की कल्पना करने में सक्षम होना ही आत्मनिर्भर भारत की शुरुआत है। निश्चित रूप से, इसका एक रोडमैप पिछले साल एक मूर्छित अर्थव्यवस्था के लगभग पूर्ण लॉकडाउन के दौरान अधिक स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ा। यह कोई रहस्य नहीं है कि मंदी के दौर में भी जहां वैश्विक और स्थानीय जीडीपी में अभूतपूर्व गिरावट दर्ज की गई, वहीं शेयर बाजारों में 12-13% की उछाल दिखी।
शीर्ष के कुछ लोगों की संपत्ति एक लॉकडाउन वाले साल में भी बढ़ गई है और नवंबर 2020 में एक दिन शेयर बाजार का कारोबार 1.47 लाख करोड़ रुपये पहुंच गया, जोकि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के लिए आवश्यक सालाना राशि के बराबर है। हाल ही में 11 जनवरी 2021 को, मुंबई स्टॉक एक्सचेंज मार्केट कैपिटलाइज़ेशन द्वारा मापे गये निवेशक धन का आंकड़ा 196 लाख करोड़ रुपये पहुंच गया। निश्चित रूप से, 1% से भी कम का आत्मनिर्भरता कर इस महासागर में एक बूंद के बराबर होगा। क्या सरकार शेयर बाजार में होने वाले लेन-देन पर मात्र 0.5% का टर्नओवर टैक्स लगाकर आत्मनिर्भरता कर नहीं लगा सकती और इसके जरिए 4-5 लाख करोड़ रुपये सालाना नहीं वसूल सकती है? जबकि 1% के आत्मनिर्भरता कर के माध्यम से किसानों की मांग और गरीब भारत को व्यापक खाद्य सुरक्षा प्रदान करने से जुड़ी तमाम लागतों से भी अधिक राजस्व की वसूली हो सकती है। इस दिशा में सही ढंग से तैयार किये गये दिवालिया कानून, अरबपतियों की संपत्ति पर उच्च कर लगाने एवं इसी किस्म के अन्य तरीकों के जरिए राष्ट्रीयकृत बैंकों के गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों के दोहन जैसे अन्य स्रोत भी मौजूद हैं।
असली राष्ट्रीय आर्थिक संप्रभुता की शुरुआत ऐसे कदमों के जरिए होनी चाहिए। किसानों के आंदोलन ने इस तरह के उपायों की संभावना का रास्ता खोल दिया है, जबकि सरकार समस्या बनी हुई है। खरीदी हुई मीडिया या ऐसे आर्थिक पंडितों के समर्थन के बावजूद एक बड़े और महंगे संसद भवन का सेंट्रल विस्टा या यहां तक कि सबसे ऊंचा राम मंदिर भी इस किस्म के उपायों का विकल्प नहीं बन सकते क्योंकि आप कुछ लोगों को कुछ समय के लिए बेवकूफ बना सकते हैं लेकिन सभी लोगों को हमेशा बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। निश्चित रूप से, किसानों के आंदोलन के आगे बढ़ने के साथ यह स्पष्ट संदेश दूर-दूर तक गूंज रहा है।
कौस्तव बनर्जी, दिल्ली स्थित अंबेडकर विश्वविद्यालय में ग्लोबल स्टडीज के एसोसिएट प्रोफेसर हैं