जनपथ पर पिछले हफ्ते हिंदी भाषा पर एक बहस का आरंभ करने की मंशा से एक अनामंत्रित पाठक का लेख प्रकाशित हुआ था। उक्त लेख पर सोशल मीडिया पर कई प्रतिक्रियाएं आयीं, हालांकि लेख के रूप में कोई प्रतिक्रिया प्राप्त नहीं हुई। इनमें प्रमुख प्रतिक्रियाएं जस का तस बिना किसी सम्पादन के छापी जा रही हैं। इस कड़ी में दूसरा लेख भी अनामंत्रित पाठक की तरफ से ही आज प्रस्तुत है। लेख के बीच में और अंत में पिछले सप्ताह आयी प्रतिक्रियाएं संकलित हैं। जनपथ पर अभी यह चर्चा चलेगी। इस पर कोई भी प्रतिक्रिया या विचार लेख स्वरूप junputh@gmail.com पर भेजे जा सकते हैं।
संपादक
जितनी चर्चा हाल में मंत्रिमंडल-विस्तार की नहीं हुई, उससे अधिक बीते एकाध दिनों में नए स्वास्थ्य-मंत्री की ‘अंग्रेजी’ खबरों में रही। सोशल मीडिया के इस दौर में ये भी एक खतरा है। कहीं भी, कोई भी किसी सार्वजनिक पद या जिम्मेदारी पर आता है तो उसकी पूरी जिंदगी जेसीबी लगाकर खोद दी जाती है। मनसुख भाई के भी पुराने पोस्ट और उसकी बहुत ही खराब अंग्रेजी को लोगों ने निशाने पर ले लिया और उन्हें जमकर ट्रोल किया गया।
अच्छी बात यह रही कि मनसुख भाई को उनके पद से हटाया नहीं गया वरना उत्तराखंड में (अब भूतपूर्व हो चुके सीएम) रावत के मीडिया सलाहकार की ही नौकरी ही खा गये भाई लोग। उनके पुराने भाजपा विरोधी ट्वीट और पोस्ट की नुमाइश लगाकर रावत साब को मजबूर किया गया कि वे अपने नए मीडिया सलाहकार को बहाल न करें। यूपी के सीएम योगीजी के मीडिया सलाहकार रहीस सिंह की नौकरी खाने के लिए भी फेसबुकिया इंटेलिजेंसिया ने जोर बड़ा लगाया, उनके भी पुराने स्क्रीनशॉट नमूदार हुए, लेकिन योगी जी ने जनता की नहीं सुनी।
बात अंग्रेजी और मनसुख भाई से शुरू हुई थी। मनसुख भाई को यह गलती करनी ही नहीं चाहिए थी। अगर उन्हें या उनके सोशल मीडिया हैंडलर को (अगर कोई उस समय था या अभी है) को अंग्रेजी नहीं आती, तो यह कोई मसला ही नहीं था। उनको गुजराती और हिंदी में ट्वीट करने थे, अंग्रेजी में-वह भी गलत अंग्रेजी में- संवाद करने का मोह यही दिखाता है कि ‘कॉलोनियल हैंगओवर’ किस बुरी तरह से हम भारतीयों पर छाया हुआ है।
दूसरी समस्या यह थी कि अगर आपको कोई भाषा (यहां अंग्रेजी) अगर नहीं आती है, तो बजाय गलत लिखने के आप उस भाषा के जानकार की सेवा ले लेते। यह तो मामले का एक पहलू है। दूसरा पहलू हम सभी भारतीयों का शर्मनाक रवैया है। नये स्वास्थ्य मंत्री को ट्रोल करने वालों का रिकॉर्ड अगर खंगालें तो यह मजे की बात सामने आती है कि आज तक शायद ही किसी को गलत हिंदी, मलयालम, गुजराती, मैथिली, भोजपुरी इत्यादि लिखने के लिए ट्रोल किया गया हो। अंग्रेजी आप गलत नहीं बोल सकते, गलत नहीं लिख सकते। हां, भारतीय भाषाओं की टांग जैसे और जितनी बार चाहे तोड़ सकते हैं, ये हमारे उच्छिष्ट-प्रेमी मानस का परिचायक है।
इसी मानसिकता से उपजती है सरल हिंदी, आसान हिंदी वाली वाहियात प्रवृत्ति। आपने किसी को बोलते सुना है- ‘आसान अंग्रेजी लिखो’, या ‘फलाना आदमी तो बहुत क्लिष्ट अंग्रेजी’ बोलता है। शशि थरूर की अंग्रेजी हंसी का विषय है, लेकिन ग्लानि, कुंठा और बहिष्कार का नहीं। यहां तक कि जो लोग बहुत आसान-सहज अंग्रेजी बोलते हैं उनका समाज में वह सम्मान नहीं होता, जो फर्राटेदार और लगातार अंग्रेजी बोलता है। अंग्रेजी के प्रति ऐसी ही अद्भुत कुंठा ने आज इस देश में ऐसी पीढ़ी तैयार की है, जिसके पास कोई भाषा नहीं है और वे भाषाई ‘जॉम्बी’ बन चुके हैं। अशुद्ध ही सही, लेकिन फरफर अंग्रेजी बोलनेवालों को वह इज्जत और सम्मान दिया हमारे समाज ने कि व्याकरणिक तौर पर, साहित्यिक तौर पर भले दो पंक्ति भी आज के युवक-युवती सही हिंदी-अंग्रेजी या कोई भी भाषा न बोल पाएं, लेकिन दसवीं फेल करीना कपूर या सचिन तेंदुलकर की तरह वे ही भाषा के ‘आइकन’ हैं, जो बस अंग्रेजी बोलना जानते हों।
हिंदी को बस हिंदी रहने देना चाहिए। इसको क्लिष्ट और आसान के खांचों में काहे बांटना। हिंदी सहज-सरल तौर पर विदेशी भाषा के शब्दों को ग्रहण करती आयी है और यही किसी भाषा के सामर्थ्यवान होने का भी द्योतक है, लेकिन ‘यूनिवर्सिटी एक्जाम में डिले’ किस तरह की आसान हिंदी है? ‘विश्वविद्यालय’ और ‘यूनिवर्सिटी’ लगभग बराबर ही जगह भी छेंकते हैं, ऐसा भी नहीं कि विश्वविद्यालय लोगों को समझ नहीं आता! चलिए] आप अगर यूनिवर्सिटी पर आमादा हैं तो वह भी सही, लेकिन ‘विलंब’ या ‘देर’ को न समझ कर लोग ‘डिले’ समझेंगे, यह कौन सी खुराफात है? आप ‘वैशिष्ट्य’ नहीं समझ पाते, तो आपके अज्ञान को समझा जा सकता है, लेकिन आप ‘विशेषता’ भी नहीं समझेंगे तो आपकी मूर्खता जगजाहिर तो होगी ही।
यह बात सुनने में चाहे जितनी भी खराब लगे, लेकिन जिस तरह इस देश के लिए फैसले महज दो-चार लोग लेते हैं और हमें मुगालता होता है कि यह सब कुछ ‘लोकतांत्रिक’ तरीके से हो रहा है, उसी तरह न्यूजरूम में पहुंचे किसी एक वज्रमूर्ख या दो-तीन वज्रमूर्खों ने अपनी मूर्खता अखबार, टी.वी. और डिजिटल परदे पर फैला कर लीप दी है और उसे ‘जनता की आवाज’ बता दिया गया। यह ठीक है कि न्यूजरूम में भाषाई (हिंदी-अंग्रेजी दोनों ही) न्यूनतम योग्यता वाले लोग भी नहीं रखे जाते क्योंकि ‘सब चलता है’ वाली अभिवृत्ति (एटीट्यूड) भारी पड़ती है। अंग्रेजी इसलिए बची है क्योंकि वहां न्यूनतम को बचा लिया गया है, भले ही कॉलोनियल हैंगओवर ही इसका कारण हो,या अंग्रेजों को देवता की तरह पूजने का भाव उसके पीछे हो।
हिंग्लिश को बढ़ावा देने वाले जो लोग कहते हैं कि इससे भाषा की संपदा बढ़ेगी, शब्द-भंडार बढ़ेगा, वे एकांगी बात करते हैं। आलमीरा से लेकर लोटा-डोरी तक हिंदी में सहज-स्वाभाविक तरीके से शामिल हुए, अवेलेबिलिटी, एग्जाम, डिले, नेक्सस इत्यादि की तरह जबरन इनको हिंदी में शामिल नहीं किया गया/जा रहा है। वह भी तब, जबकि इनके एक नहीं कई स्थानापन्न शब्द हिंदी में मौजूद हैं। आप कंप्यूटर को संगणक और सॉफ्टवेयर को लघुवर न कहें, ट्रेन को लौह-पथ गामिनी न कहें, लेकिन ‘उत्तेजित’ को ‘एक्साइटेड’ ही लिखने की कौन सी जिद है, यह समझ के परे है। इसे आपराधिक मैं इसलिए कहता हूं कि इससे दो भाषाओं- हिंदी और अंग्रेजी- की हत्या हो रही है।
हिंदी का तो खैर आपने चूं-चूं का मुरब्बा बना ही दिया है, अंग्रेजी को भी बर्बाद करने की राह पर हैं। इस पूरी प्रवृत्ति को मैं कुछ वज्रमूर्खों की सनक इसलिए कहता हूं क्योंकि इसके उदाहरण मौजूद हैं। नवभारत टाइम्स में जब एक अंग्रेजीदां-हिंदीविहीन ब्रांड मैनेजर आया बरसों पहले, तो उसने अपनी सनक में आदेश जारी कर दिया कि अंग्रेजी जैसे अंग्रेज (इंग्लैंड-निवासी) बोलते हैं, वैसे ही देवनागरी में लिखी जाएगी। उन्होंने कंप्यूटरों में बोलने वाली ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी डलवा दी रातोरात। आज जो नवभारत टाइम्स में ‘ऑफिशल’, ‘फटॉग्रफर’, मैनेजमंट, जैसे शब्दों की चिरांध आप देख रहे हैं वह इनकी ही देन है। इन भले आदमी से यह पूछा जाए कि प्रभु, फोटो को तो हिंदी ने पूरी तरह अपना लिया है, फोटोग्राफर को भी, तो ये फटॉग्रफर की क्या चुल्ल है; अंग्रेजी इंग्लैंड वाली होगी या अमेरिका वाली या स्पेन वाली; ये कैसे तय करेंगे?
न्यूजरूम के मूर्खों के अपराध सबसे अधिक हैं। जब तक ये लोग टी.वी. चैनल, अखबार या डिजिटल प्लेटफॉर्म में रहे तब तक तो इन्होंने हिंदी को भ्रष्ट करने में अपना सर्वसंभव योगदान दिया, लेकिन रिटायर/बेरोजगार होते ही इनको हिंदी की चिंता सताने लगती है! किसी भी ‘हिंदी के शुभचिंतक पत्रकार’ की यही दशा है। ये लोग यह दलील भी नहीं दे सकते कि ये तो बस ‘नौकर’ थे, इनकी बात इसलिए मानी जा सकती थी कि मालिकों को हिंदी के प्रदर्शन से कोई मतलब नहीं होता, उन्हें बाज़ार चाहिए होता है और उनके दिमाग में न्यूजरूम के मूर्खों ने ही यह बात डाली कि शुद्ध हिंदी तो कोई पढ़ता, सुनता और देखता ही नहीं, इसलिए सरलता के नाम पर जितना भी अत्याचार हिंदी के साथ हुआ है, उसके दोषी तो ये संपादक ही होंगे। एक बहस याद आती है, जब फेसबुक पर गंगा-जमनी तहजीब के संदर्भ में ‘हैरतअंगेज’ और ‘हैरतनाक’ की तर्ज पर ‘हैरतजनक’ और ‘हैरतप्रद’ जैसा कुछ होने देने की भी वकालत की जा रही थी। बहस लंबी चली थी लेकिन यह भुला दिया गया कि अरबी-फारसी ‘नाक’ और ‘अंगेज’ जैसे प्रत्ययों के साथ उनके ही शब्दों को जोड़ना ठीक होगा न कि संस्कृत-हिंदी के जनक और प्रद जैसे प्रत्यय लगा दिए जाएं। इससे दोनों ही भाषाओं के साथ अनाचार होगा।
एक और उदाहरण जो जबरन शब्द और प्रयोग के हैं, वह है ‘हर्ष फायरिंग’। लोग जब ‘आसमानी फायरिंग’ जानते ही थे, तो ये हर्ष फायरिंग का प्रयोग किसी एक सब-एडिटर या उसके ऊपर के किसी बंदे-बंदी ने कुछ अधिक प्रयोग करने के उत्साह में कर दिया होगा और उस दिन से जब भी बेमतलब, शादियों में या कहीं भी आसमानी फायरिंग की बात होती है, तो हिंदी का पत्रकार ‘हर्ष फायरिंग’ की माला जपने लगता है। उसी तरह ‘ऑनर किलिंग’ है। बात नंबर एक कि हत्या में किस तरह का ऑनर भाई, और वह भी उस हत्या में जो जाति के नाम पर की गयी हो। आपको तो बस अंग्रेजी से उधार ले लेना है, चला लेना है। जिस तरह आजकल ‘मॉब लिंचिंग’ चल पड़ी है। अब तो आलम ये है कि किसी एक या दो व्यक्ति ने भी हत्या कर दी, तो हहुआए पत्रकार मॉब-लिंचिंग लिखने में एक सेकेंड भी वक्त जाया नहीं करते।
सवाल वही है जो पिछले सप्ताह था- हिंदी अपने तरीके से, मौलिक और विशुद्ध देसी तरीके से कब सोचेगी?
बहसतलब मूल लेख :
हिंदी के पतन की वजह न्यूजरूम में बैठे आलसी, अक्षम और जड़बुद्धि लोग हैं
फ़ेसबुक पर आईं प्रमुख प्रतिक्रियाएं
हिन्दी वालों को हिन्दी से प्यार नहीं है!
उज्जवल भट्टाचार्य, कवि और भूतपूर्व संपादक डोएचे वेले हिन्दी सेवा, जर्मनी
मैं हिन्दी के पतन के दावे से सहमत नहीं हूँ. यह न्यूज़रूम का पतन है, और वह सिर्फ़ भाषा के मामले में ही नहीं हो रहा है. शायद सामाजिक पतनशीलता का असर न्यूज़रूम में दिखाई दे रहा है? और वह उल्टी करते हुए उसे समाज को लौटा रहा है? भाषा की बहस मानक की बहस हो गई है. मुझे लगता है कि सिर्फ़ भाषा के मानक पर नहीं, बहस के मानक पर भी सोचा जाना चाहिए. आधुनिक हिन्दी में मानक शब्द तैयार किये गये. तैयार करने वाले आलसी, अक्षम और जड़बुद्धि लोग नहीं थे. उन्हें सरकारी मान्यता भी मिली. लेकिन नतीजा क्या निकला?
आधुनिक हिन्दी एक कृत्रिम भाषा है. यह कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं है, विश्व की महत्वपूर्ण भाषायें आधुनिकता के दौर में या उससे ठीक पहले-पहले कृत्रिम भाषायें रही हैं. आधुनिक कृत्रिम हिन्दी की पृष्ठभूमि में स्वाभाविक बोलियाँ व स्थानीय भाषायें रही हैं. एक विस्तृत भूगोल रहा है, जो भाषा के दायरे में एक रोचक बहुलता लाता है. बहुलता और मानक के बीच सन्तुलन ही ऐसी भाषा के लिये सबसे बड़ी चुनौती है.
शुद्धतावादियों का सारा ध्यान शब्दों पर होता है – वे डंडा लेकर दरवाज़े पर खड़े रहते हैं, ताकि कोई नया शब्द न आ जाय. जो भूले-भटके आ गये हैं, उन्हें बाहर खदेड़ने की कोशिश की जाती है. वाक्य विन्यास पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है.
आधुनिक चिन्तन का जगत पश्चिमी जगत है – पश्चिम की भाषाओं में व्यक्त. हिन्दी में उसके विमर्श के लिये पारिभाषिक शब्द तैयार किये गये हैं. इनके साथ दिक्कत यह है कि अक्सर इन शब्दों का एक लौकिक अर्थ होता है और एक पारिभाषिक अर्थ. मैं जब हिन्दी में विमर्श के पाठ पढ़ता हूँ तो मन में अक्सर पारिभाषिक शब्दों का अंग्रेज़ी या जर्मन में अनुवाद करते हुए पढ़ना पड़ता है. इस सिलसिले में यह देखना दिलचस्प होगा कि भारत की दूसरी भाषायें इस समस्या से कैसे निबट रही हैं. लेकिन हिन्दीवालों को जब अपनी ही भाषा से लगाव नहीं है तो यह अपेक्षा कैसे की जाय कि देश की दूसरी भाषाओं में उनकी दिलचस्पी होगी.
हिन्दी की सबसे बड़ी समस्या यह है कि हिन्दी वालों को हिन्दी से प्यार नहीं है. प्यार अगर नहीं है तो कैसे पैदा किया जा सकता है?
उज्ज्वल भट्टाचार्य की टिप्पणियों पर आयी प्रतिक्रियाएं
प्रीतम कुमार
पश्चिम के प्रभाव को तोड़ने का एक अस्त्र है।आदिकाल, गांव , कस्बों , लोक मानस के छिपे हुए या अप्रचलित शब्दो को स्वीकार करने का सामर्थ्य दिखाना होगा। हम निर्धन रहेंगे, लेकिन हिंग्रेजी के ऋणी नही रहेंगे।पश्चिम के प्रभाव को रोका जा सकता है, आत्म गर्व बढ़ा कर।
संतोष कुमार पांडेय
बिलकुल ठीक कह रहे हैं । यहाँ अकादमिक जगत के मेरे जापानी , चीनी , इंडोनेशियाई या कंबोडियाई मित्र अक्सर ये पूछते हैं कि आपके इतिहास या व्याख्या में हमारे यहाँ के ट्रैवेलेर्स द्वारा दर्ज किया आख्यान या मेमोयार का ज़िक्र कहाँ हैं ? वे अक्सर कहते हैं कि पूरब के होने के बावजूद आप वेस्ट या अपने कॉलोनियजर इंग्लैंड की मानसिक ग़ुलामी आज तक कर रहे हैं । शायद सिर्फ़ इसलिए कि अंग्रेज़ी में आप ज़्यादा सहज हैं ।
महेंद्र सिंह
सारी समस्या की जड़ यही है। मूल बात यह है कि हिंदी वालों को हिंदी से प्यार नहीं है। बाकी रही बात विज्ञान लेखन की, समस्या इस बात की है कि विज्ञान लेखन कोई क्यों हिंदी में करेगा जब उसके पढ़ने वाले नहीं है। मैंने कई बार कोशिश की कि हिंदी में विज्ञान की आधुनिक खोजों को हिंदी भाषा में कम से कम अपने जानने वालों तक पहुँचाऊँ, पर उस पर पाठक नहीं मिलते। सो हिंदी में विज्ञान लेखन की कमी हिंदी की नहीं हिंदी पाठकों की समस्या है। केवल हिंदी जानने वाले कोर्स में चलने वाली किताबो को छोड़कर सामान्य विज्ञान में कोई रूचि नहीं रखते। फिर कोई क्यों उनके लिए अपना समय ख़राब करेगा।
अकेले प्रिन्ट मीडिया जिम्मेदार नहीं है
समीर रंजन, हिन्दी सलाहकार
हिन्दी की मौजूदा हालत के लिए केवल प्रिंट मीडिया ही ज़िम्मेदार नहीं है. बॉलिवुड की फ़िल्मों-गीतों, नई वाली हिन्दी के नाम पर लिखा गया अशुद्धियों, हिंगलिश शब्दों-वाक्यों, और ट्रांसलिटरेट किए गए शब्दों की बहुलता वाला साहित्य, न्यूज़ चैनलों के ऐंकर या ग्राफ़िक बनाने वाले लोगों की जाने-अनजाने में की गई भाषाई ग़लतियों वग़ैरह को भी इसके लिए बराबर का ज़िम्मेदार माना जाना चाहिए. सरकार और उसके आला अधिकारियों का दोष भी कम नहीं है. जैसे कि उच्च शिक्षा या सरकारी कामकाज के लिए तकनीकी शब्दों को गढ़ने के लिए सरकार के पास पूरा एक विभाग है, लेकिन उसकी सुस्ती के सबूत सरकारी दस्तावेज़ों के हिन्दी रूपों में हर जगह दिख जाते हैं. अग्रेज़ीदां अधिकारियों से भी यह नहीं हुआ कि वे हिन्दी के कठिन शब्दों को आम बोलचाल की वाले शब्दों में बदल सकें. कुछ समय तक बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का सारा ज़ोर अनुवाद की Readability पर रहा. इससे हिन्दी का कुछ भला भी हुआ. हालाँकि, बड़ी चालाकी से अब ट्रांसलिटरेशन को ही सरल रूप का नाम दे दिया जा रहा है. क़ायदे से तो लोगों के बीच सर्वे करवाकर उन शब्दों का पता लगाया जाना चाहिए था जो लोक ख़ुद गढ़ रहा है. जैसे कि हम कहते हैं कि मेरा फ़ोन ‘हैंग’ हो जाता है. हम बोलचाल में ‘क्रैश’ का इस्तेमाल नहीं करते.
यूपीए सरकार के दौर में ज़्यादातर नेता-मंत्री अंग्रेज़ी में ही प्रेस से रू-ब-रू होते थे. मौजूदा सरकार के हिन्दी प्रेम पर उत्तर भारत और यहाँ के लोगों की धार्मिक भावनाओं के दोहन का एजेंडा हावी है. ज़्यादातर सरकारी स्कूलों के शिक्षकों की शिक्षा का स्तर किसी से छिपा नहीं है. कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावक की दिली इच्छा है कि बच्चा अंग्रेज़ी सीखे. हिन्दी या कोई भी अन्य प्रादेशिक भाषा वहाँ बस नाम के लिए पढ़ाई जा रही है. दिलचस्प है कि वहाँ अन्य विदेशी भाषाएँ (जैसे कि जापानी, फ़्रेंच वगैरह) पढ़ाने वाले ज़्यादा काबिल शिक्षक उपलब्ध हैं.
अंत में बाज़ार भी कम दोषी नहीं है. लिंकडिन से लेकर नौकरी डॉट कॉम पर हिन्दी को कीवर्ड के तौर पर डालकर जॉब सर्च कर लीजिए. आपको गिने-चुने नतीजे ही मिलेंगे. जिस स्कूल को हिन्दी टीचर की ज़रूरत है, वह भी चाहता है कि उम्मीदवार अंग्रेज़ी में फ़्लूएंट हो. अनुवाद की नौकरियाँ बढ़ी हैं, लेकिन वहाँ तो अंग्रेज़ी के बिना काम ही नहीं चल सकता. मीडिया में कॉन्टेंट राइटर की नौकरी मिलेगी, तो वहाँ भी अंग्रेज़ी आने की शर्त लागू रहेगी.
यूट्यूब और टिक-टॉक जैसे प्लैटफ़ॉर्म पर कॉन्टेंट क्रिएट करने वाले लोगों से आप चाहकर भी भाषाई शुद्धता की उम्मीद नहीं कर सकते. वहाँ यह बहस ही बेमानी है.
एक मज़ेदार तथ्य और है. टीवी पर प्रसारित होने वाले हिन्दी धारावाहिकों में पौराणिक कथाओं पर बने सीरियल की भरमार है. कमोबेश सभी काफ़ी लोकप्रिय भी हैं. जो सिलसिला रामानंद सागर ने रामायण और महाभारत से शुरू किया था वह अब भी थमा नहीं है. इनके किरदारों की भाषा तो आपने सुनी ही होगी. संस्कृत के शब्दों की भरमार वाली यह भाषा कहानी के समयकाल के लिहाज़ से बिलकुल उपयुक्त होती है. इनकी भाषाई कठिनता को लेकर कहीं कोई हाय-तौबा नहीं है. यहाँ तक कि कार्टून चैनलों पर छोटा भीम, राधा और बाल कृष्ण की भाषा भी उतनी सरल नहीं है. मतलब, धर्म का मामला आने पर हर उम्र का टार्गेट ऑडियंस कठिन भाषा समझ सकता है! या फिर भाषाई कठिन का सारा ड्रामा ही फ़र्ज़ी है.
हिंदी को बचाना, पूरे हिंदी समाज को बचाना होगा
प्रेमपाल शर्मा, कथाकार और शिक्षाशास्त्री
अच्छा लग रहा है कि इस मुद्दे पर लोगों का ध्यान आ रहा है ।पिछले दिनों ओम थानवी जी ने भी वैक्सीन उर्फ टीका, वाइल और सीसी… के बहाने ध्यान खींचा था। कोई नई बात नहीं है यहां दोहराने की लेकिन फिर भी…. आपको पता है आजादी के तुरंत बाद प्रधानमंत्री अंग्रेजीदा थे तो कई शिक्षा मंत्री उर्दू के ।उर्दू हिंदी की तलवार टकराती रही और अंग्रेजी बहुत तेजी से आगे बढ़ता रही। जो एलिट विदेशों में पढ़ा था या यहां के दून, सिंधिया,मेयो.. स्कूलों में पढ़ा था वे सत्ता के करीब होते गए। देश को संदेश जाता रहा कि ताकत और सत्ता पानी है तो सिर्फ अंग्रेजी से मिलेगी। कोठारी कमीशन हो या लोहिया सब की आवाज धीमी होती गई। देशभर में डीपीएस और इन पब्लिक स्कूलों की संख्या उत्तर भारत में इतनी बढ़ती गई कि अपनी भाषा में पढ़ाने वाले सरकारी स्कूल लगभग खत्म होने को आ गए हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय से लेकर उत्तर भारत के सभी विश्व विद्यालय स्कूल पढ़ाने के नाम पर अंग्रेजी अंग्रेजी करते हैं ।भाषा प्रयोग से आती है प्रयोग नहीं करेंगे तो हर शब्द कठिन लगेगा। हाल ही में कुछ अनुभव और। पुस्तकालयों के लिए बुजुर्ग साहित्यकारों से जरूर कुछ किताबें हिंदी की मिलती है नई पीढ़ी अंग्रेजी की किताबों का ढेर लेकर ही आते हैं। उसमें एक भी किताब हिंदी की नहीं होती। सचमुच दुनिया भर में अंग्रेजी की किताब छापने में हम नंबर एक की हैसियत पर कई सालों से बने हुए हैं। और हिंदी का संस्करण अब 300 भी पैसे देकर छप रहा है। हिंदी प्रांत के अमीर खाए पिए वर्ग में अपनी भाषा के लिए इतना अंधेरा! सिविल सेवा परीक्षा के इंटरव्यू बोर्ड में हजार में मुश्किल से एक किसी हिंदी की किताब का नाम लेता है जबकि उसकी हॉबीज में लिखा होता है रीडिंग बुक्स, राइटिंग हिंदी पोएट्री, राइटिंग स्टोरी! कितना बड़ा सांस्कृतिक संकट है ?और हिंदी का लेखक अमरता की आकांक्षा में ही पीला पड़ता जा रहा है. समस्या मुश्किल है ही नहीं .हम एक कदम तो बढ़ाएं. देश के दूसरे प्रांतों में स्कूली शिक्षा ज्यादातर अपनी भाषाओं में है. कर्नाटक केरल तमिलनाडु में उनकी भाषा बारहवीं तक है। राजस्थान में भी मैंने 12वीं के सब्जेक्ट में बहुत सारे बच्चों की मार्कशीट में हिंदी देखी है ।लेकिन दिल्ली को ही देख लीजिए आठवीं तक मुश्किल से हिंदी। केजरीवाल सरकार भी उसी रंग में रंग गई। शिक्षा के कोई भी कदम उठाए हो सब हवाई हैं यदि आपने भाषा के मसले को ही छोड़ दिया। कोठारी समिति की रिपोर्ट कहती है कि 70 के दशक में दिल्ली विश्वविद्यालय मैं 20 से 30% स्नातकोत्तर हिंदी भाषा में माध्यम में होता था अब जीरो जीरो जीरो। दिल्ली विश्वविद्यालय में कौन से संगठन हावी हैं उनकी राजनीतिक मंशा क्या है सब जानते हैं। उनकी पार्टी हिंदी को जन संघ की भाषा मानती है। इसी का असर पूरी नौकरशाही, पूरी न्याय व्यवस्था, जर्रे जर्रे पर पड़ रहा है ।हिंदी को बचाना पूरे हिंदी समाज को बचाना होगा और इस काम में राजनीतिक दुराग्रह को छोड़कर हर कदम की तारीफ करनी चाहिए। मोदी सरकार से आपकी चीड़ वाजिब हो सकती है,मगर भाषा के प्रति दुराग्रह क्यों?
पढ़ने पढ़ाने की भाषा की तरफ यदि कदम बढ़ गए तो शिक्षा भी बचेगी और भाषा, साहित्य, मीडिया बौद्धिक विमर्श सभी कुछ हासिल हो जाएगा। क्या इतने से सुझाव के लिए भी हमें अमेरिका इंग्लैंड से कंसलटेंट बुलाने होंगे? याद रखिए मौजूदा प्रधानमंत्री कुछ कुछ हिंदी के बूते ही चक्रवर्ती बना हुआ है।
विज्ञान विषयक सारी समस्या शब्दावली की है
शोभित जायसवाल, पत्रकार
शिक्षा नीति में तय किया गया कि 12वीं तक पढ़ाई मातृभाषा में होगी और उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होगी। तो बारहवीं तक तो किताबें लिखीं गईं और उसके आगे की किताबों को अंग्रेजी के हवाले कर दिया गया। हालांकि बाद में व्यावहारिकता को देखते हुए स्नातक तक की किताबें भी बाजार में आ गईं लेकिन वो बाजार की देन थी न कि नीति की।
इससे मुश्किल यह हुई कि जो बच्चे बीते चार सालों से ‘विभव’, ‘आवेश’ और ‘धारा’ पढ़ रहे थे वो अचानक से पोटेंशियकल, चार्ज और करंट बोलने को विवश हुए। उससे ज्यादा मुश्किल जीव विज्ञान और वनस्पति विज्ञान के छात्रों की थी। वे बेचारे पुष्पांग, जायांग, आवृतजीवी, समझे ही थे कि पूरी तरह से नई शब्दावली सामने आ गई।
सर, मुझे लगता है कि खेल का एक बड़ा पहलू शब्दावली का है। जो शब्द विज्ञान में संस्कृतनिष्ठ तरीके से अनुवाद किए गए उनका वास्ता जिंदगी से नहीं था। त्वरण और गुणनखंड जैसे शब्द क्यों ठेले गए। जब स्नातक स्तर पर भाषा बदल ही देनी थी तो बारहवीं तक जो शब्दावली याद की उसका क्या। वो तो बेकार ही हो गई। करना यह था कि जो शब्दावली अंग्रेजी की है और उसे देवानागरी में ही लिखा जाता। जब आगे जाकर लीवर पढ़ना है तो पहले यकृत क्यों रटें।
विज्ञान को पढ़ाने के तरीके में झोल ही झोल हैं। जब कक्षा में अनुनाद पढ़ाया जा रहा होता है तो बच्चे लैब में अवतल और उत्तल लेंस से जूझ रहे होते हैं। क्यों। बच्चे हैं सौ और रेजोनेंस अपरेटस तो एक है। तो पांच बच्चे तो रेजोनेंस नाप तौल रहे हैं लेकिन बाकी के 95 बच्चे सरल लोलक झुला रहे होते हैं।
यह विमर्श बहुत आवश्यक है
अर्चना झा, वरिष्ठ पत्रकार
जब हम दिल्ली आये, ‘चौथी दुनिया’ में काम करने के लिए, तो वहां धर्मयुग वाली वर्तनी में काम हो रहा था, जो भारती जी के समय में तैयार की गयी थी. मेरे ख्याल से टाइम्स की सभी पत्रिका में यही वर्तनी इस्तेमाल होती थी. एस पी सिंह इसे रविवार ले कर गए और वहां से निकले लोगों ने आगे भी इसे ही अपनाया. रविवार से निकले संतोष भारतीय जी, राम कृपाल जी और नक़वी जी ने चौथी दुनिया यही वर्तिनी चलायी और उदयन शर्मा जी ने आब्जर्वर में.
मैंने यही सीखा और इसी में लिखती हूँ कलम से, डिज़िटल में तो अब तक कोशिश ही हो रही है.
प्रभाष जी ने जनसत्ता में बोलचाल की भाषा पर जोर दिया और उसके अनुसार वर्तनी में बदलाव किया और फिर एक नयी वर्तनी चल पड़ी.
हैदराबाद में एक बार पत्रकारों को पढ़ाया था मैंने, वर्तनी और भाषा के बारे में सिखाने की कोशिश की थी, पता नहीं किसने क्या सीखा. टीवी पत्रकारिता में खबर लिखने पर कोई ध्यान नहीं देते, जिसका असर बोलने पर पड़ता है. मैंने टी वी में काम करते हुए भी इस बात का ध्यान रखा तये, ताकि बोलने में असरदार हो. ये बात अपने मित्र जीतेन्द्र रामप्रकाश Jitendra Ramprakash से सीखी है, जो देश के सबसे बेहतर एंकर होते, अगर ये पेशा अपनाया होता उन्होंने. हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में गज़ब पकड़ है और आवाज़ तो माशाअल्लाह कमाल है.
एस पी सिंह जब आजतक आये, तो नक़वी जी, अजय चौधरी वगैरह के साथ मिलकर हिंदी में ख़बर पढ़ने के लिए बोलचाल की नयी भाषा अपनाई, जो बहुत लोकप्रिय हुई. वही भाषा बहुत ही बिगड़े अंदाज़ में अभी भी बोली जाती है, लेकिन कोई तथ्य नहीं होता.
फेसबुक पर मित्र अविनाश मिश्रा का हिंदी भाषा के प्रति जो आग्रह है, वह मुझे अच्छा लगता है, बावजूद कि वे कभी अति कर जाते है.
यह विमर्श बहुत आवश्यक है, जो आपने शुरू किया
हिंदी लिखने वालों के पास गूगल का इस्तेमाल करना आसान है देवनागरी लिखने के लिए
महेंद्र सिंह
“आज के बच्चे गूगल टाइपिस्ट हो गए हैं। वे रोमन में टाइप करते हैं और गूगल उसको देवनागरी यानी हिंदी में परोस देता है।” इस बात से आंशिक सहमति।
इसमें “आज के बच्चे” से क्या मतलब? वे तो फिर भी गूगल का इस्तेमाल करके रोमन में टाइप करके उसे देवनागरी में बदल लेते हैं। पुराने वाले तो वह भी नहीं कर पाते और रोमन स्क्रिप्ट में ही हिंदी लिखते हैं।
दरअसल हिंदी टाइपिंग आज के बच्चे और कल के बच्चे के बीच का मसला नहीं है। हिंदी पढ़ने वाले बच्चों को अनिवार्यतः स्कूलों में हिंदी की टाइपिंग नहीं सिखाई जाती थी, शायद अब भी नहीं सिखाई जाती होगी। अंग्रेजी माध्यम वाले भी टाइपिंग नहीं सीखते थे, केवल क्लर्क की परीक्षा देने वाले टाइपिंग सीखते थे या फिर लेखन या पत्रकारिता करने वाले टाइपिंग सीखते रहे होंगे।
सोशल मीडिया के लोकप्रिय होने और कम्प्यूटरों के सर्वसुलभ होने के बाद भारत में लगभग सभी ने खुद ही टाइपिंग सीखी है। और यह सही है कि अंग्रेजी की टाइपिंग सरल है बनिस्पत हिंदी के। इसलिए हिंदी लिखने वालों के पास गूगल का इस्तेमाल करना आसान है देवनागरी लिखने के लिए। यही पोस्ट अगर मैं देवनागरी की लिपि इस्तेमाल करके टाइप करने बैठूंगा तो इसका दोगुना समय लगेगा।