कुशाभाऊ ठाकरे भारतीय जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी के अग्रणी विचारक थे। वे पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे। पार्टी और उसके विचारों के प्रसार में उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया। भाजपा के पितृ पुरुषों में उनका नाम बहुत आदर के साथ लिया जाता है। आज अगर भाजपा देश में इतना विस्तार पा सकी है और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में प्रचंड बहुमत के साथ सरकार चला रही है तो इसमें उनके जैसे लोगों की बड़ी भूमिका रही है।
कल सुना कि कुशाभाऊ के दो सगे भतीजे कोरोना संक्रमित होकर उचित इलाज के अभाव में अकाल कवलित हो गए। इंदौर के एक अस्पताल में उनके एक भतीजे की दर्दनाक मौत ऑक्सीजन सिलेंडर के अभाव में हो गई जबकि दूसरे की मौत इंजेक्शन के अभाव में हुई।
इंदौर मध्य प्रदेश में है जहाँ कुशाभाऊ के चेले कहे जाते रहे शिवराज सिंह चौहान का राज है। देश में तो मोदी के नेतृत्व में भाजपा की एकछत्रता है ही। फिर भी, भाजपा के पितृपुरुष के परिवारीजन सही इलाज के बिना तड़प-तड़प कर मर गए। पता नहीं, बैकुंठ में बैठे कुशाभाऊ ठाकरे क्या सोच रहे होंगे इस पर। उन्होंने अपने जीवन और चिंतन का बेहद महत्वपूर्ण हिस्सा राम मंदिर आंदोलन में लगाया था। क्या उनके मन में आ रहा होगा कि जितनी ऊर्जा मन्दिर के लिये लगायी, अगर उतनी ऊर्जा देश और राज्य के अस्पतालों की दशा सुधारने के लिए लगाते तो आज उनके भतीजे अकाल मौत न मरते…?
स्वर्गीय ठाकरे का संगठन चिंतन की जिस दिशा में आगे बढ़ता रहा उसके अपने तर्क हो सकते हैं। संस्कृति की उनकी अपनी परिभाषा थी, जिसके खिलाफ कोई हो सकता है लेकिन इस पथ पर चलते हुए उस संगठन के मनीषियों ने जितने संघर्ष और त्याग किये, उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। वे सत्ता में आए, बार-बार आए, लेकिन उन्होंने इस तथ्य को नजरअंदाज किया कि मनुष्य का जीवन जिन सवालों से जूझता है वे एकायामी नहीं हैं। वाया सामन्जस्यवादी वाजपेयी, मोदी तक की भाजपा की यात्रा राजनीतिक सफलताओं के नए-नए आख्यान रचती रही। केंद्र पर कब्जे के बाद एक-एक कर कई महत्वपूर्ण राज्य उसकी चुनावी सफलताओं की परिधि में आते रहे, लेकिन सांस्कृतिक सवालों पर कोलाहल का माहौल खड़ा कर और अपने विशिष्ट किस्म के राष्ट्रवाद की अतिरंजना में उन्माद पैदा कर अपनी सत्ता को उन्होंने मजबूती तो दी, किन्तु मनुष्यता से जुड़े सवालों को पीछे धकेल दिया।
जब कोई नेता ‘बिजनेस-बिजनेस’ की ही रट अधिक लगाए तो यह पहला संकेत है कि वह कारपोरेट के हितों की खातिर अपनी राजनीतिक शक्ति का इस्तेमाल करने में कोई कसर बाकी नहीं रखने वाला। मोदी जी ने तो “खून में ही व्यापार” होने की बात कर देश को स्पष्ट संदेश दे दिया था कि मनुष्य उनके चिंतन की परिधि में हाशिये पर है। बिजनेस और मनुष्यता का सामंजस्य बिठाना बेहद कठिन है। इसके लिए सजग और कठोर नियामक तंत्र चाहिए, जो भारत जैसे भेड़बहुल देश में आसान नहीं है।
नतीजा, मोदी जी ने अस्पतालों की दशा सुधारने में अपनी ऊर्जा लगाने के बजाय ‘आयुष्मान योजना’ के नाम से 50 करोड़ अतिनिर्धन लोगों के लिए बीमा पॉलिसी जारी करने की घोषणा कर दी। बाकी 90 करोड़ लोगों के लिए उन्होंने सोचा कि वे पेट काट कर भी खुद की हेल्थ बीमा पॉलिसी खरीद ही लेंगे। मतलब…इसे ही कहते हैं ‘बिजनेस’। प्राइवेट अस्पतालों को ग्राहक मिलेंगे, बीमा कंपनियों को झोली भर-भर कर ग्राहक मिलेंगे। सबका बिजनेस दौड़ेगा। लेकिन, हेल्थ बीमा कार्ड अपनी जेब में लिए एम्बुलेंस में ही मर जाने को विवश लोग अब हमारे देश को समझा रहे हैं कि प्राथमिक जरूरत तो अस्पतालों के निर्माण की है, उनकी क्षमता सुधारने की है, डॉक्टरों और सपोर्ट स्टाफ की नियुक्ति की है।
भाजपा और उसके मातृ संगठन के अपने सांस्कृतिक चिंतन होंगे, उनकी अपनी विशिष्ट दिशा होगी, लेकिन जब भी और जहां भी वे सत्ता में आए, उन्होंने सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य के सवालों पर कभी कोई अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया।
कोई राजनीतिक दल इतने एकांगी तरीके से कैसे सोच सकता है, कैसे राज कर सकता है?
गुजरात मॉडल आज गुजरात में ही भू-लुंठित है। उस मॉडल के प्रतीक बड़े-बड़े मॉल आज अंधेरे में खोये हैं, बिजनेस घरानों के मुख्यालयों के चमकते शिखर कुम्हलाए हुए हैं और कोरोना संक्रमित गुजराती भाई आज किसी अस्पताल में एक बेड हासिल करने के लिए तड़प रहे हैं, बेड पर भर्त्ती लोग ऑक्सीजन और इंजेक्शन के लिए तड़प रहे हैं। महामारी ने बता दिया कि गुजरात मॉडल और कुछ नहीं, कारपोरेट लफ्फाजी के चमकते कंगूरों के नीचे पसर चुके अंधेरों का ही नाम है। उसी तरह, जिस तरह नरेंद्र मोदी अपनी काबिलियत से अधिक कारपोरेट के सुनियोजित और सुशृंखलित प्रचार की उपज हैं।
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने राजनीतिक सफलताओं के जिस शिखर का स्पर्श किया, वह प्रशंसायोग्य है, लेकिन इसी के साथ भाजपा ने अपने राजनीतिक चिंतन की सीमाएं भी स्पष्ट कर दी हैं। वे आपको कश्मीर में प्लॉट खरीदने का अवसर मुहैया करवा सकते हैं, किसी मंदिर का भव्य निर्माण कर उसका क्रेडिट लिए देश भर में घूम-घूम कर राजनीतिक फसल काट सकते हैं, लेकिन विशाल निर्धन आबादी की चिकित्सा के लिए अस्पतालों की श्रृंखलाएं स्थापित कर कोई अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत नहीं कर सकते। न ही सार्वजनिक शिक्षा के लिए कोई क्रांतिकारी कार्यक्रम ला सकते हैं।
कारपोरेट प्रेरित सत्ताधीशों के बांझ चिंतन से इस देश के तीन-चौथाई निर्धन आबादी के लिए कोई क्रांतिकारी कार्यक्रम जन्म ले भी कैसे सकता है। “राष्ट्रभक्ति ले हृदय में, हो खड़ा यदि देश सारा…” के प्रेरक गान से शुरू होकर ‘गैंगस्टर कैपिटलिज्म’ के शिकंजे में राष्ट्र को जकड़े जाते देखना बहुत दारुण अनुभव है। पता नहीं, इस चिंतनधारा के पितृपुरुषों के मन पर क्या गुजरती होगी जब वे स्वर्ग से इस धरा धाम पर देखते होंगे कि जिस पथ को उन्होंने अपनी तपस्या से सींचा उस पर चलते हुए उनकी राजनीतिक धारा के साथ कैपिटलिज्म पहले क्रोनी कैपिटलिज्म बना, फिर गैंगस्टर कैपिटलिज्म का रूप धर कर पूरे राष्ट्र को आक्रांत कर रहा है।
जीवन के मौलिक सवाल जब सामने आ कर घेरते हैं तो सारा उन्माद हवा हो जाता है। आज देश की वही स्थिति है। आज बिहार और यूपी के लोगों को अहसास हो रहा है कि अखबारों में डॉक्टर और नर्सों की कमी की खबरें पढ़ कर अनदेखा कर देने का कितना खौफनाक हश्र हो सकता है।
बीबीसी की हालिया रिपोर्ट बताती है कि बिहार में 69 प्रतिशत डॉक्टरों की और 92 प्रतिशत नर्सों की कमी है, अन्य सपोर्ट स्टाफ की भी कमी इसी अनुपात में है। यूपी में भी कमोबेश ऐसे ही हालात होंगे। एम्बुलेंस की कमी से घर पर मरते लोग, बेड की कमी से एम्बुलेंस में मरते लोग, ऑक्सीजन और इंजेक्शन की कमी से बेड पर मरते लोग बता रहे हैं कि बीते कई दशकों से राजनीतिक और आर्थिक चिंतन की जिस धारा में देश बहता जा रहा है, उस पर गम्भीरता से विचार-पुनर्विचार करने की जरूरत है। राजनीतिक दलों को आज के मर्मान्तक दौर से सबक लेना होगा। उनसे भी पहले मतदाताओं को सबक लेना होगा।
कोरोना संकट ने हमें स्पष्ट संदेश दिया है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की दशा सुधारने का कोई विकल्प नहीं है। अंध निजीकरण की ओर देश को ले जा रहा नेता या तो वैचारिक भ्रम का शिकार है या उसकी वैचारिकता किन्हीं अदृश्य शक्तियों के हितों की बंधक है।
हेमन्त कुमार झा के फेसबुक से साभार प्रकाशित