भारत में कोरोनावायरस संक्रमण की दूसरी लहर ने देश की स्वास्थ्य व्यवस्था, राजनीति, नेताओं, सिस्टम सबको नंगा करके रख दिया है। पूरे देश में ऑक्सीजन एवं उपचार के बिना तड़प-तड़प कर मर रहे आम लोगों एवं बीमारों के उपचार में लगे डाक्टरों की हो रही मौतें तथा श्मशानों में रात-दिन जलती चिताओं ने स्पष्ट बता दिया है कि कोरोना संक्रमण के बीते एक वर्ष में सरकार और सरकारी तंत्र ने भारी रकम लूटकर भी जनता की जान बचाने के लिए कोई अतिरिक्त इंतजाम नहीं किया। एक तरह से सरकार और प्रशासन ने जनता से गद्दारी की और उन्हें अपने हाल पर ही छोड़ दिया।
बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था में सुधार के नाम पर निजीकरण को बढ़ावा देकर सरकार ने यह बताने की कोशिश की कि भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था विश्वस्तरीय है। मुनाफे के लालच में देश में गोबरछत्ते की तरह उगे पांच सितारा अस्पतालों की हकीकत को देश ने इस बार देख लिया। वैश्विक आपदा की इस विषम परिस्थिति में भी आखिरकार सरकारी अस्पतालों के चिकित्सक एवं चिकित्साकर्मियों ने ही अपनी जान जोखिम में डालकर पीड़ितों की सेवा की और हजारों जानें बचायीं। प्रधानमंत्री के जुमले ‘‘आपदा में अवसर’’ का भरपूर लाभ लेते हुए निजी क्षेत्र के पांचसितारा या हर बड़े-छोटे अस्पतालों ने मजबूर पीड़ितों से लाखों वसूले और सत्ता में बैठा निजाम और इसका सिस्टम सब चुपचाप देखता रहा। लोग मरते रहे, सियासत चलती रही, मीडिया जनता को ही दोषी ठहराता रहा और देश श्मशान में तब्दील होता रहा।
2020 की इस वैश्विक महामारी से देश के स्वास्थ्य व्यवस्था की हकीकत को समझना बेहद आसान है। व्यापक जनशिक्षण के अभाव में देश की आम जनता क्या, पढ़ा-लिखा समझदार तबका भी प्राथमिक स्वास्थ्य प्रबंधन एवं आपदा प्रबंधन से वाकिफ नहीं है। कोरोनावायरस संक्रमण के इस काल में न तो सरकार, न समाज और न व्यक्ति ही कुछ सीख पाया- नतीजा सामने है। अस्पतालों के आकस्मिक वार्ड में आम मरीजों के बगल में लेटे संक्रमित प्रशिक्षित चिकित्सकों की दशा देखकर कलेजा मुंह को आ जाता है। वही अस्पताल जहां वह चिकित्सक कार्यरत था इस महामारी में अपने लिए एक बेड भी जुगाड़ नहीं कर पा रहा। ऑक्सीजन की बात तो क्या ही करें, सबकी स्थिति तूफान में घिरे निरीह व्यक्ति की तरह है। इस महामारी के इलाज में प्रयुक्त कथित दवा को काले बाजार से महंगे दर पर खरीद कर उपयोग करने की उसकी मजबूरी से यह समझना मुश्किल नहीं है कि देश में स्वास्थ्य सेवाओं का हाल क्या है। अस्पतालों से सम्बन्धित विभिन्न राज्य सरकारों के दावों के बावजूद हालात इतने दयनीय हैं कि आपात स्थिति में मरीजों को प्राथमिक उपचार देना भी मुश्किल सिद्ध हो रहा है।
आजादी के बाद देश में जन स्वास्थ्य एवं स्वास्थ्य व्यवस्था की यह हालत क्यों और कैसे बनी इसे हम सभी को समझ लेना जरूरी है। वैश्वीकरण के दौर में निजीकरण, प्राइवेट-पब्लिक पार्टनरशिप आदि लुभावने जुमलों की बदौलत देश के कथित पढ़े-लिखे मध्यम वर्ग के भरे पेट वाले बुद्धिजीवियों को लुभाकर जो स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण किया गया उसकी फसल अब देश में लहलहा रही है। विकास के नाम पर जनता के धन से लगभग मुफ्त में सैकड़ों एकड़ जमीन और हजारों करोड़ों के अनुदान/कर्ज की बदौलत खड़े पांचसितारा अस्पतालों की हकीकत इस वैश्विक महामारी में आप सबको समझ आ गई होगी! कोरोना संक्रमण के प्राथमिक उपचार में महज ऑक्सीजन एवं बिस्तरे के लिए लोगों ने 12 लाख रुपये से 25 लाख रुपए की रकम चुकायी है। सब जानते हैं कि इस वैश्विक वायरल संक्रमण का कोई इलाज उपलब्ध नहीं है फिर भी महज जान बचाने के नाम पर इन कथित कारपोरेट अस्पतालों ने अमानवीयता के सारे रिकार्ड तोड़कर करोड़ों रुपये की अनैतिक कमाई की है। इसे ही ‘‘आपदा में अवसर’’ बताया गया। कोरोना संक्रमण में महज जान बचाने के लिए प्रयुक्त संदिग्ध दवाइयां भी काले बाजार में बिकती नजर आयीं। ऑक्सीजन के सिलेंडर के लिए मजबूर लोगों ने 20 से 40 हजार रुपये चुकाए मगर फिर भी अपने लोगों को बचा नहीं पाए।
इस वैश्विक आपदा में जहां सरकारों को संकटमोचक की भूमिका में रहना था वहां वह दलाल की भूमिका में देखी गयीं। कई राज्यों में रसूखदार राजनीति पार्टी के नेता जीवनरक्षक दवाओं की कालाबाजारी में लिप्त देखे गए। ऑक्सीजन सिलेंडर के लिए मची अफरा-तफरी में सत्ताधारी नेता सिलेंडर वेंडर से मिलकर अवैध कमाई करने में भी नहीं हिचके। कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर में जहां केन्द्र सरकार को जनता के लिए ऑक्सीजन और जरूरी जीवनरक्षक दवाओं का इंतजाम करना था वहां पूरी कैबिनेट पश्चिम बंगाल में चुनाव में व्यस्त थी। न प्रधानमंत्री, न गृहमंत्री और न ही स्वास्थ्य मंत्री, कोई भी कोरोना संक्रमण की दूसरी तेज लहर में जनता के साथ खड़ा नहीं दिखा। वे जनता को असहाय छोड़कर चुनाव मैनेज करने में लगे थे। हद तो जब हो गई जब स्वास्थ्य वैज्ञानिकों के स्पष्ट अलर्ट के बावजूद देश से बड़ी मात्रा में महज कुछ ही हफ्ते पहले ऑक्सीजन एवं वैक्सीन विदेशों को निर्यात कर दिया गया। जब देश में लोग ऑक्सीजन के अभाव में दम तोड़ने लगे तब भी बेशर्म सरकार महज दोषारोपण ही कर रही थी।
कारपोरेट स्वास्थ्य व्यवस्था को समझने के लिए यह सच जान लीजिए- मेरे एक वरिष्ठ चिकित्सक मित्र कोरोना संक्रमण से ग्रस्त थे और उन्हें तत्काल हास्पिटल सेवा की जरूरत थी। उनके घर के सभी सदस्य कोरोनाग्रस्त होने की वजह से उनकी मदद के लिए कोई जिम्मेवार व्यक्ति उपलब्ध नहीं था। मुझे जब पता चला तो सभी सरकारी अस्प्तालों में विशेष प्रयास के बावजूद भी उनके लिए बिस्तर का इंतजाम नहीं कर पाया। मुझे एक मशहूर पांचसितारा अस्पताल के बारे में बताया गया। वहां भी बिस्तर उपलब्ध नहीं था। मेरे मित्र चिकित्सक की हालत बहुत नाजुक थी। उनका ऑक्सीजन स्तर 80 से नीचे जा चुका था। मैंने पुनः कुछ अस्पतालों के रिसेप्शन से पता किया। करीब छह घंटे के बाद मुझे एक लाख प्रतिदिन के दर पर ऑक्सीजन वार्ड में एक बिस्तर की पेशकश की गयी। दो लाख एडवांस मांगे गए। खैर, जान बचाने के लिए कुछ भी करना मजबूरी थी। चार लाख रुपए खर्च करने के बावजूद मैं दूसरे दिन मेरे डॉक्टर मित्र को नहीं बचा पाया। बाद में पता चला कि सरकार को झांसा देने के लिए कई निजी अस्पताल कागज पर गरीब व्यक्ति को बतौर मरीज भर्ती दिखाकर उसकी सीट पर लाखों का धंधा कर रहे हैं।
कारपोरेट स्वास्थ्य व्यवस्था में मुनाफा निजी कंपनी या अस्पताल का होता है और जिम्मेदारी सरकार की होती है। इसे ऐसे समझिए कि गाय की दुलत्ती जनता और सरकार झेले जबकि दूध कारपोरेट का। निजीकरण के बाद कारपोरेट और पूंजीपतियों ने अकूत मुनाफा कमाकर स्वास्थ्य क्षेत्र को एक बड़े व्यवसाय में बदल दिया है। जिसे भी देखिए वह अस्पताल के व्यवसाय में छद्म रूप से प्रवेश कर धंधा चला रहा है। प्लास्टिक के टैंक बनाने वाले, मसाला बेचने वाले, जूता चप्पल के व्यवसायी, शराब के कारोबारी सब अस्पताल के व्यवसाय में बड़े धुरंधर बन चुके है। कोविड संकट में जब देश में सरकार की अदूरदर्शिता और लापरवाही से ऑक्सीजन का संकट खड़ा हुआ तो ये व्यवसायी एकदम असहाय और परेशान दिख रहे थे। गरीबों के इलाज का हक मारकर रोजाना हजारों प्रतिशत मुनाफा लूटने वाले निजी क्षेत्र के ये पांचसितारा अस्पताल मरीजों के हर सांस की कीमत वसूल रहे थे। अब तक निजी क्षेत्र के अस्पतालों में यह विचार चल रहा है कि क्रिटिकल मरीजों के इलाज से दाह संस्कार तक का पैकेज लांच कर दिया जाए। हैरान मत होइयेगा जब यह पैकेज आपको बताया जाए कि आप केवल पैसों का इंतजाम कर दें बाकी सब हो जाएगा।
मौजूदा परिस्थितियों में आम लोगों की चिंताओं में महत्वपूर्ण है – अपने ‘भविष्य के प्रति आशंका’। इसके अलावा बढ़ते रोग, दवाओं का बेअसर होना, रोगाणुओं-विषाणुओं का और घातक होना, बढ़ती आबादी और गरीबी गंभीर समस्याएं खड़ी कर रही हैं। समाधान के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ‘स्वास्थ्य के लिए ज्यादा निवेश’ की बात कर रहा है। वह मानता है कि कई देशों में स्वास्थ्य पर सरकारी बजट नाकाफी है। दूसरी ओर, दुनिया के स्तर पर बढ़ी विषमता ने स्थिति को और ज्यादा जटिल बना दिया है। डब्लूएचओ की लगभग सभी रपटों पर गौर करें तो पाएंगे कि अमीर देशों में जो स्वास्थ्य-समस्याएं हैं, वे अधिकतर अमीरी से उत्पन्न हुई हैं। इसके उलट तीसरी दुनिया के देशों की स्वास्थ्य समस्याएं आमतौर पर संसाधनों की कमी, गंदगी और कुपोषण की वजह से हैं। वर्ष 1995 में जारी एक रिपोर्ट में डब्लूएचओ ने ‘अत्यधिक गरीबी को‘ अंतरराष्ट्रीय वर्गीकरण में एक रोग माना है। इसे जेड 59.5 का नाम दिया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि गरीबी तेजी से बढ़ रही है और इसके कारण विभिन्न देशों में और एक ही देश के लोगों के बीच की दूरियां बढ़ती जा रही हैं। इससे स्वास्थ्य समस्या और गंभीर हुई है। एक आकलन के अनुसार भारत में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में प्रत्येक तीन में से दो बच्चे कुपोषित हैं और दुनिया भर के कुपोषित बच्चों में से चालीस प्रतिशत बच्चे भारतीय हैं।
InternationalPolicyNetworkअब जरा देश के स्वास्थ्य संकेतकों पर भी गौर करें। भारत में स्त्री/पुरुष सेक्स अनुपात अभी भी 940: 1000 है। वर्ष 2011 में यह 933: 1000 था। देश में 42 प्रतिशत बच्चे (5 वर्ष तक या इससे कम उम्र के) कुपोषित हैं। देश में शिशु मृत्यु दर 47 है यानि प्रत्येक 1000 बच्चों में 47 बच्चों की मौत हो जाती है। एचआइवी/एड्स का हालांकि विश्वसनीय आंकड़ा मौजूद नहीं है फिर भी यहां 24 लाख एड्स रोगी बताए जा रहे हैं। मलेरिया, कालाजार, ट्यूबरकुलोसिस जैसे पुराने जनसंचारी रोग अब बढ़ने लगे हैं। हम देश के विकास के भ्रम में भूल जाते हैं कि गहराते अन्तरर्विरोधों की वजह से देश की लगभग 80 फीसद आबादी जैसे तैसे जीवनयापन कर रही है। इसी केन्द्र सरकार की नियुक्त डॉ. सेनगुप्ता कमेटी की रिपोर्ट गौरतलब है जिसमें 76 प्रतिशत लोगों के बारे में कहा गया है कि वे प्रतिदिन 20 रुपये या इससे भी कम में अपना गुजारा कर रहे हैं। स्थिति अब तो और भी बदतर हो गई है।
एक बात और महत्त्वपूर्ण है। वह है स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में निजीकरण को बढ़ावा देना। वैसे तो स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजीकरण का निर्णय सरकार पहले ही ले चुकी है। सरकारी संस्थाओं में भी आम आदमी को इलाज की महंगी कीमत चुकानी पड़ रही है। स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचों को मजबूत करने की बजाय मौजूदा सरकारें तात्कालिक उपायों पर ज्यादा ध्यान केन्द्रित कर रही है। अब तक के सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण को देखें तो स्वास्थ्य पर कुल बजट का 1.3 से 1.8 फीसद ही खर्च हो रहा है और इसमें भी सरकार कुल स्वास्थ्य खर्च का मात्र 22 प्रतिशत ही खर्च करती है। करीब 78 प्रतिशत खर्च तो मरीज स्वयं वहन कर रहा है। प्रसिद्ध चिकित्सा पत्रिका लैन्सेट में प्रकाशित एक आलेख ‘‘फाइनेन्सिंग हेल्थ केयर फॉर ऑल: चैलेन्जेज़ एण्ड अपॉरचुनिटी’’ के लेखक डॉ. ए. के. शिवकुमार के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष 3.9 करोड़ लोग मात्र खराब सेहत के कारण गरीबी के गर्त में धकेले जा रहे हैं। वर्ष 2004 के आंकड़े के अनुसार गांव के 30 प्रतिशत लोग आर्थिक स्थिति के कारण अपना इलाज नहीं कर सके। इस अध्ययन में परेशान करने वाला एक तथ्य यह भी है कि अस्पताल में इलाज कराने वाले लोगों में 47 प्रतिशत ग्रामीण-शहरी लोगों ने कर्ज लेकर या सम्पत्ति बेचकर उपचार का खर्च जुटाया। उल्लेखनीय है कि डॉ. शिव कुमार प्रधानमंत्री द्वारा गठित उस उच्चस्तरीय कमेटी के भी सदस्य हैं जो सर्वजन के लिए स्वास्थ्य सुलभ कराने के लिये गठित की गई है। यह समिति भी मानती है कि स्वास्थ्य के क्षेत्र को कर आधारित बनाने की जरूरत है।
यह मौजूदा भूमण्डलीकरण और अन्तर्राष्ट्रीय पूंजीवादी व्यवस्था का ही प्रभाव है जो स्वास्थ्य सम्बन्धी सरकार की नीति सेवा से विचलित होकर रेवेन्यू पैदा करने के मॉडल की ओर जा रही है। इसी नीति के तहत एम्स जैसी अतिविशिष्ट स्वास्थ्य व चिकित्सा प्रदान करने वाली संस्थाओं से भी मुनाफा कमाने का लालच सरकार में दिख रहा है। एम्स को लेकर वेलियाथन की अध्यक्षता में बनी समिति की अनुशंसा भी इसी कड़ी का हिस्सा है। यह बात और है कि एम्स के प्रोग्रेसिव डॉक्टर्स फोरम के दबाव से यह रिपोर्ट अभी तक लागू नहीं हो पा रही है। मेडिकल शिक्षा के क्षेत्र में सरकार की मौजूदा नीति साफ तौर पर निजीकरण और वैश्वीकरण की पक्षधर है। सरकार स्वयं स्वास्थ्य क्षेत्र को तेजी से निजी क्षेत्र में धकेल रही है। जाहिर है, सरकार का यह दृष्टिकोण संविधान के संकल्प ’’सबको मुफ्त स्वास्थ्य‘‘ सेवा उपलब्ध कराने की भावना के एकदम प्रतिकूल है। सरकार के ‘शहर प्रेम’ से हमारे डॉक्टर भी प्रभावित हैं और वे ‘मुनाफे’ के इस धंधे को और विकसित करने में लगे हुए हैं।
reportआधुनिक नीति की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि इसमें पहले समस्या उत्पन्न की जाती है फिर उसका समाधान ढूंढा जाता है। व्यवसाय की दृष्टि से यह अच्छा है क्योंकि समाधान के नाम पर कम्पनियों, वित्तीय संस्थाओं को अच्छा मुनाफा कमाने एवं धन्धा चमकाने का अधिकारिक एवं सम्मानजनक मौका मिल जाता है। भारत में जीवन से जुड़ी विभिन्न सरकारी योजनाओं व नीतियों की यह विडम्बना है कि नारे तो जनकल्याण के होते हैं लेकिन अमल ब्यवसायिक या निहित स्वार्थो का होता है। वैश्वीकरण के दौर में सेवा का लगभग प्रत्येक क्षेत्र मुनाफा कमाने की इकाई के रूप में देखा जाने लगा है। जाहिर है जनस्वास्थ्य के सभी जरूरी मानदण्डों की उपेक्षा कर जोर तथाकथित वैज्ञानिक खानापूर्ति एवं दवा वितरण, टीकाकरण, टॉनिकों के व्यापार आदि पर है और यह बाजार की बड़ी कम्पनियों के व्यावसायिक हित में है। एक उदाहरण देखें। खसरा बच्चों में होने वाली एक आम महामारी है और यह महामारी कुपोषित बच्चों में ज्यादा होती है। मशहूर जनस्वास्थ्य वैज्ञानिक डेविड मोर्ले ने कहा था कि ‘‘खसरा से बचाव के लिये टीका से ज्यादा जरूरी बच्चों का पोषण सुधारने से है। यदि सरकारी नीतियों में गरीबी उन्मूलन और लोगों की क्रय क्षमता बढ़ाने पर जोर नहीं है तो खसरा को जड़ से खत्म करना सम्भव नहीं है।‘‘
यही बात दूसरे सभी महामारियों पर भी लागू होती है, जैसे पोलियो का खात्मा पोलियो ड्रॉप के साथ-साथ सामुदायिक सफाई के निर्धारण से ही सम्भव है। वैसे ही नीतियों में दवा एवं टीका के साथ-साथ आम आदमी की आर्थिक स्थिति सुधारने पर जोर दिये बगैर देश के स्वास्थ्य को सुधारना सम्भव नहीं है। कोरोना के इस त्रासद दौर में यदि हम इस वास्तविकता को नहीं समझे तो अपना जीवन नहीं बचा पाएंगे। अपनी सरकारों से जनस्वास्थ्य की उपेक्षा पर सवाल पूछिए, उसे मुद्दा बनाइए और सरकार से अपने जीवन और स्वास्थ्य का हिसाब मांगिए, यह आपका संवैधानिक अधिकार है।