यह महामारियों/बीमारियों का दौर है। पूरी दुनिया में विकास की रफ्तार लगभग थम सी गयी है। कोरोना वायरस संक्रमण ने दुनिया अरबों की आबादी को वैश्विक महामारी के आतंक से परिचित करा दिया है। यों तो महामारियों/रोगों का संग्राम आदिकाल से ही मानव और मानवता के साथ जारी है, लेकिन अलग-अलग भूभाग पर काबिज विभिन्न राजनीतिक गिरोहों की सरकारों ने इस संघर्ष में अपनी हिस्सेदारी तलाश ली और इन्सान तथा इन्सानियत को बरबादी की तरफ धकेलने में जाने-अनजाने अपनी भूमिका निभाने लगे। इस लेख में मैं हजारों साल पुरानी महामारी मलेरिया की चर्चा करूंगा। 50,000 साल पुरानी यह महामारी अब अपने खौफनाक दौर में है।
इसकी भयावहता का अन्दाजा आप इस आंकड़े से लगा सकते हैं कि वर्ष 2018 में मलेरिया के 22.8 करोड़ मामले सामने आये थे और इसमें से 4.05 लाख लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) द्वारा जारी इस आंकड़े में लगभग 67 फीसद (2,72,000) मौतें 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की हैं। हैरानी की बात यह है कि दुनिया में मलेरिया के 93 फीसद मामले अब तक तो अफ्रीका से हैं लेकिन धीरे-धीरे यह मलेरिया अब एशिया में अपने पैर पसार रहा है। ऐसा नहीं है कि भारत मलेरिया के प्रभाव से अब तक बचा रहा है, लेकिन मलेरिया के घातक रूप में हो रहे वैश्विक प्रसार में भारत और एशिया के दूसरे देश अब अफ्रीका की तरह ही बढ़ते देखे जा रहे हैं।
दुनिया में बायोमेडिकल रिसर्च के लिए मशहूर फ्रांसिस क्रिक इन्स्टीच्यूट के नये शोध में पता चला है कि मलेरिया परजीवी अब अपने जैविक संरचना में इतना बदलाव कर चुका है कि वह मानव रक्त में बेखौफ सुरक्षित जीवित रहता है। यह अब इतना सक्षम हो चुका है कि रक्त में उपस्थित जहरीले प्रोटीन जो घातक सूक्ष्मजीवों से शरीर की रक्षा करते हैं, उनको भी झेल लेता है और जीवित रहता है। ‘‘प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस’’ नामक पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन में कहा गया है कि मलेरिया परजीवी (प्लाज़्मोडियम) अपने एक खास प्रोटीन के सहारे मनुष्य की लाल रक्त कोशिकाओं में जीवित रहता है। इस प्लाज़्मोडियम परजीवी द्वारा उपयोग में लाये जाने वाले प्रोटीन को पीवी-5 के नाम से जाना जाता है। शोधकर्ताओं ने पाया कि मलेरिया परजीवी द्वारा उपयुक्त प्रोटीन पीवी-5 मनुष्य के खून में उपस्थित हैम के साथ मिल जाते हैं और कोई प्रतिक्रिया नहीं करते, मसलन परजीवी को नुकसान नहीं होता।
क्रिक इन्स्टीच्यूट में मलेरिया बायोकेमिस्ट्री लेबोरेटरी में प्रमुख तथा पोस्ट डॉक्टरल रिसर्च फेलो जोकिम माट्ज के अनुसार मलेरिया के लिए हेम क्रिस्टलीकरण के महत्व को थोड़ी देर के लिए समझा गया है, लेकिन यह प्रक्रिया परजीवी द्वारा कैसे नियंत्रित होती है, इसे समझना जरूरी है। अध्ययन में दावा किया जा रहा है कि इस प्रोटीन की पहचान करके सम्भावित नये उपचार के दरवाजे खुल गये हैं। उल्लेखनीय है कि अब तक उपलब्ध मलेरियारोधी दवाओं के प्रति परजीवी का प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेना अब तक की बड़ी चुनौती रही है। इस दावे के अनुसार मच्छरों के जीन में बदलाव करके मलेरिया से निबटने का रास्ता ढूंढा जा सकता है।
प्लाज़्मोडियम नामक मलेरिया के परजीवी के वाहक एनोफेलिज नामक मच्छरों पर हुए शोध में यह जानने का प्रयास किया गया है कि मलेरिया के लिए एनोफेलिज की मादा मच्छर ही जिम्मेवार क्यों हैं? यह शोध लंदन के इंपीरियल कॉलेज के वैज्ञानिकों द्वारा किया गया है जो अन्तरराष्ट्रीय जर्नल ‘‘नेचर बायोटेक्नोलॉजी’’ में प्रकाशित हुआ है। वैज्ञानिकों ने ‘‘जीन ड्राइव’’ नामक तकनीक का उपयोग कर एनोफेलीज गाम्बिया मच्छरों की जीन में ऐसे परिवर्तन कर दिये कि इससे उनमें मादा मच्छरों की उत्पत्ति हो ही नहीं। यह सम्भवतः पहला मौका है जब जीन ड्राइव तकनीक की मदद से किसी एक लिंग के जीव को पैदा होने से रोकने में सफलता हासिल हुई है।
उल्लेखनीय है कि दुनिया भर में मच्छरों की करीब 3,500 से ज्यादा प्रजातियां पायी जाती हैं जिनमें से 40 ऐसी हैं जो मलेरिया फैला सकती हैं। शोध के अनुसार आमतौर पर मच्छर की उम्र 20-22 दिनों की होती है। ऐसे में आपकी जिज्ञासा जरूर होगी यह जानने की कि इसमें मादा मच्छर ही मलेरिया क्यों फैलाती है? दरअसल, सामान्यतया मच्छर शाकाहारी होते हैं। वे पेड़ पौधे का रस पीकर जिन्दा रहते हैं परन्तु मादा मच्छर को रक्त की जरूरत होती है क्योंकि वे अंडे देती हैं। रक्त की जरूरत के लिए वे मनुष्यों का खून चूसती हैं। इसी क्रम में इन मादा एनोफेलिज मच्छरों के द्वारा मलेरिया परजीवी मानव शरीर में प्रवेश कर जाता है। यह परजीवी शरीर में जाकर रक्त को जमा देता है। इससे मानव अंग काम करना बंद कर देते हैं और मनुष्य की मृत्यु हो जाती है।
मलेरिया अब तक का सबसे प्रचलित और पुराना संक्रामक रोग है। कोई 50,000 वर्ष पुराना। इस परजीवी के नजदीकी रिश्तेदार मनुष्यों के निकटवर्ती पूर्वज चिम्पाजी में रहते हैं। यह एक ऐतिहासिक रोग है। इस रोग की उत्पत्ति के लिए चिकित्सा के कई टेक्स्ट बुक में मध्यकालीन इटालियन भाषा का शब्द ‘‘माला एरिया’’ का जिक्र आता है जिसका अर्थ है- ‘‘बुरी हवा’’। इसे मार्श फीवर या एग्यू भी कहते हैं। मलेरिया पर पहला गम्भीर वैज्ञानिक अध्ययन सन् 1880 में किया गया जब एक फ्रांसीसी सैन्य चिकित्सक चार्ल्स लुठ अल्फोंस लैबरेन ने अल्जीरिया में काम करते हुए पहली बार मनुष्य की लाल रक्त कोशिका के अन्दर मलेरिया परजीवी को देखा था। उन्होंने ही यह प्रतिपादित किया कि मलेरिया रोग का कारण एक प्रोटोजोआ परजीवी है। उन्हें इसके लिए 1907 का चिकित्सा नोबेल पुरस्कार भी दिया गया था। मलेरिया के लिए जिम्मेवार इस परजीवी का नामकरण इटली के वैज्ञानिकों एत्तोरे मार्चियाफावा तथा आंजेलो सेली ने रखा था, लेकिन ब्रिटेन के मशहूर चिकित्सक रोनाल्ड रोस ने यह बताया था कि मच्छर इस मलेरिया परजीवी को एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में ले जाते हैं और यह एक संक्रामक स्थिति है। इन्हें भी इस कार्य के लिए 1902 में चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार मिल चुका है।
मलेरिया के खिलाफ पहला प्रभावशाली उपचार सिन्कोना वृक्ष की छाल से किया गया जिसमें कुनैन पायी जाती है। इस छाल का प्रयोग पेरू की एन्डीज पर्वतमाला की ढलान पर रहने वाले लोग काफी पहले से मलेरिया बुखार के उपचार के लिए करते थे लेकिन फ्रांसीसी रसायन वैज्ञानिक पियरे जोसेफ पेलेतियो तथा जोसेफ कैवैतु ने इस सिन्कोना की छाल से तैयार दवा को कुनैन का नाम दिया। सन 1790 में होमियोपैथी के जनक तथा अपने जमाने के मशहूर जर्मन एलोपैथिक चिकित्सक डॉ. सैमुएल हैनिमैन ने भी सिन्कोना दवा की होमियोपैथिक प्रूविंग की थी। इस प्रकार सिन्कोना दवा मलेरिया के साथ-साथ कई अन्य महामारियों में प्रभावी दवा की तरह उपयोग की जाने लगी। आज जब दुनिया कोविड-19 के जानलेवा आतंक में डूबी है तब सिन्कोना तथा कुनिन या एचसीक्यू दवा ही काम आ रही है। बहरहाल, मलेरिया के बहाने मैं चाहता हूं कि मित्र पाठक रोगों के सूक्ष्म जीवाणुओं/विषाणुओं की ताकत को समझें और इससे निबटने के मुकम्मल तथा टिकाऊ उपायों की सोचें।
मलेरिया ऐसी महामारी है जो गरीबी और अनियोजित विकास से जुड़ी है। यह ऐसा रोग है जो जहां भी फैलता है वहां के आर्थिक विकास को प्रभावित करता है। प्रति व्यक्ति जीडीपी के आधार पर यदि आकलन करें तो मलेरियाग्रस्त और मलेरियामुक्त क्षेत्रों में आर्थिक विकास में 5 गुणा का अन्तर दिखता है। पिछले एक दशक में मलेरियाग्रस्त क्षेत्रों में आर्थिक विकास की दर 0.4 फीसद रही जबकि मलेरियामुक्त क्षेत्र में यह विकास दर 2.4 फीसद देखी गयी। केवल अफ्रीका में ही प्रति वर्ष 12 अरब डॉलर का आर्थिक नुकसान मलेरिया की वजह से होता है। कई देशों में तो मलेरिया अकेले जन स्वास्थ्य का 40 फीसद बजट खा जाता है।
भारत में छत्तीसगढ़ का बस्तर हर बार मलेरिया की वजह से चर्चा में रहता है। हाल ही में बस्तर से खबर आयी है कि मलेरिया के लिए इस्तेमाल की जाने वाली दवा क्लोरोक्विन अब प्रभावी नहीं रही। बस्तर के नारायणपुर स्थित प्रभारी जिला मलेरिया अधिकारी डाॉ. टी. एस. नाथ के अनुसार विगत 5-6 वर्षों से क्लोरोक्विन नामक मलेरिया की दवा असर नहीं कर रही। अब वहां के नागरिकों को सलाह दी जा रही है कि वे मलेरिया के उपचार में क्लोरोक्विन का प्रयोग ना करें। ऐसी ही खबर अन्य मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों से आ रही है। मलेरिया में इसकी फेल्सीफेरम जाति सबसे ज्यादा घातक है और देखा यह जा रहा है कि क्लोरोक्विन दवा फेल्सीफेरम मलेरिया के उपचार में अब कारगर नहीं है। मलेरिया की दवा का प्रभावहीन होना कोई नयी जानकारी नहीं है, लेकिन इससे यह चिंता जरूर बढ़ी है कि यदि मलेरिया परजीवी पहले से कहीं ज्यादा घातक और लाइलाज हो गये तो इसे दुनिया में फैलने से रोकना मुश्किल होगा और एक बहुसंख्य आबादी को इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी।
मलेरिया के उन्मूलन में केवल मच्छरों को मारने या नियंत्रित करने तथा बुखार की दवा को आजमाने के परिणाम दुनिया ने देख लिए हैं, लेकिन मलेरिया उन्मूलन से जुड़े दूसरे सामाजिक, सांस्कृतिक राजनीतिक व आर्थिक पहलुओं पर सरकारों व योजनाकारों ने कभी गौर करना भी उचित नहीं समझा। अभी भी वैज्ञानिक मच्छरों के जीन परिवर्तन जेसे उपायों में ही सिर खपा रहे हैं। अमरीका के नेशनल इन्स्टीच्यूट ऑफ एलर्जी एण्ड इन्फेक्शस डिज़ीज़ेज़ के लुई मिलर कहते हैं कि मच्छरों को मारने से मलेरिया खत्म नहीं होगा क्योंकि सभी मच्छर मलेरिया नहीं फैलाते। आण्विक जीव वैज्ञानिक भी नये ढंग की दवाएं ढूंढ रहे हैं। कहा जा रहा हे कि परजीवी को लाल रक्त कोशिकाओं से हिमोग्लोबिन सोखने से रोक कर यदि भूखा मार दिया जाये तो बात बन सकती है, लेकिन इन्सानी दिमाग से भी तेज इन परजीवियों का दिमाग है जो उसे पलटकर रख देता है। बहरहाल, मलेरिया परजीवी के खिलाफ विगत एक शताब्दी से जारी मुहिम ढाक के तीन पात ही सिद्ध हुई हैं। परजीवी अपनी आनुवंशिक संरचना में इतनी तेजी से बदलाव कर रहा है कि धीमे शोध का कोई फायदा नहीं मिल रहा।
भारत में मलेरिया उन्मूलन, नियंत्रण तथा कैम्पेन कार्यक्रमों का सन् 1953 से लगातार बड़ा बजट अभियान चल रहा है मगर मलेरिया खत्म होना तो दूर, घट भी नहीं रहा। उल्टे मलेरिया की जानलेवा घातक प्रजाति साल दर साल दुनिया की बड़ी आबादी को दहलाती रहती है। भारत के लिए मलेरिया अब भी एक जानलेवा चुनौती है। महामारियों के दौर में अब हम एक साथ कई रोगों (कोमार्विडिटी) की चुनौतियों को झेल रहे हैं। स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण ने अब यह साफ कर दिया है कि महामारियों से निबटना सरकारों की प्राथमिकता में नहीं है और हम इन महामारियों का शिकार बनने के लिए अभिशप्त हैं।