कोरोना वायरस संक्रमण एक कहर की तरह आया और संकट की तरह अब भी चल रहा है, हालांकि दहशत में थोड़ी कमी है लेकिन अनिश्चय और आशंका यथावत है। मेरे जैसे कुछ लोग बेशक उतने नहीं डरे हों लेकिन औसत आबादी का डर तो लगातार कायम है। देश-दुनिया की सारी बड़ी एजेन्सियां इस डर के प्रभाव को कम होने देना भी नहीं चाहतीं, खासकर तब तक जब तक कि कथित वैक्सीन बाजार में न आ जाए। इस वायरल संक्रमण का असर दुनिया की लगभग सभी आबादी पर पड़ा है लेकिन बच्चों पर जो इसका असर है वह खौफ़नाक है। बच्चे अमूमन इस कहर को बड़ों से ज्यादा झेल रहे हैं, लेकिन वे बता नहीं पाते। बस वे समय के प्रवाह में कहर के साथ ही बहते रहते हैं। कोरोना वायरस संक्रमण का सर्वाधिक मुनाफेदार बाजार चुपचाप अपने धंधे में मगन है। धंधा यानि मुनाफा। इस मुनाफे का मजमून भले ही खौफ़नाक हो मगर बाजार और इसके संचालक इतने बेरहम हैं कि उनके सामने क्या बड़े और क्या बच्चे!
कोरोना वायरस संक्रमण को लेकर अकसर नये-नये चौंकाने वाले अध्ययन सामने आ रहे हैं। अभी हाल ही में बच्चों को लेकर एक नया शोध सामने आया है। अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन के जर्नल जेएएमए पीडियाट्रिक्स में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है कि बच्चे बड़े पैमाने पर वायरस के कैरियर हैं। इस अध्ययन के प्रमुख तथा शिकागो में एन एण्ड राबर्ट एच लॉरी चिल्ड्रेन्स हास्पिटल के संक्रामक रोग विशेषज्ञ डॉ. टेलर हेल्ड-सार्जेन्ट कहती हैं कि 5 वर्ष से कम उम्र के संक्रमित बच्चों के शरीर में 100 गुना ज्यादा वायरस होता है। इस नये शोध में कहा गया है कि कोरोना वायरस से संक्रमित बच्चों के नाक या गले में उतने ही वायरस होते हैं जितने कि एक युवा में। इसलिए चिकित्सा विशेषज्ञ काफी चिंतित हैं कि बच्चे कोरोना वायरस के एक बड़े और महत्त्वपूर्ण कैरियर हो सकते हैं। यह अध्ययन कई देशों में वहां के प्रशासन को हैरान किये हुए है कि अब जब अगले महीने से स्कूल खोलने की तैयारी की जा रही है तो बच्चों में संक्रमण की क्या स्थिति होगी, समझना मुश्किल है।
मैं शुरू से ही कोरोना वायरस संक्रमण से बच्चों के जीवन पर छाये संकट के बारे में लिख रहा हूं। मैंने अप्रैल के पहले हफ्ते में लिखे अपने लेख में कहा था कि कोरोना वायरस संक्रमण बच्चों में अलग तरीके से परेशानी पैदा करेगा। और अब संयुक्त राष्ट्र संघ की नयी रिपोर्ट में भी यही कहा गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने चेतावनी दी है कि कोरोना वायरस संक्रमण के कारण स्वास्थ्य सेवाओं में भारी गिरावट की वजह से बच्चों और महिलाओं में स्वास्थ्य की स्थिति खराब हो रही है। इसकी वजह से 20-24 प्रतिशत बच्चे समय पर स्वास्थ्य सहायता नहीं मिलने की वजह से गम्भीर बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। यूएनओ का अनुमान है कि कोरोना वायरस संक्रमण के कारण नवजात शिशुओं के स्वास्थ्य की विगत चार महीने में जो उपेक्षा हुई है उससे इन बच्चों में कई गम्भीर रोगों का खतरा बढ़ गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार केवल इस महामारी के कारण 5 वर्ष से कम उम्र के लगभग 4 लाख बच्चों की दुनिया भर में जान गयी है। यदि हम 2018 का आंकड़ा देखें तो जन्म के पहले महीने में ही दुनिया में लगभग 25 लाख नवजात बच्चों ने दम तोड़ दिया था। अब इस साल यह आंकड़ा 27 लाख को भी पार कर जाएगा।
संयुक्त राष्ट्र संघ से जुड़ी एलिजाबेथ मेसन के अनुसार इस महामारी के कारण विकसित और विकासशील दोनों ही देशों में स्वास्थ्य सेवाएं बुरी तरह प्रभावित हुई हैं। ऐसे में नवजात शिशुओं, बच्चों और किशोरों को मिलने वाली नियमित स्वास्थ्य सेवाएं चरमरा चुकी हैं। आंकड़ों के अनुसार लगभग डेढ़ करोड़ बच्चे जरूरी जीवनरक्षक टीकों से वंचित रह गये हैं। महामारी की वजह से जो लॉकडाउन किया गया था उस दौरान इन टीके का कार्यक्रम लगभग स्थगित है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के पूर्व सहायक महानिदेशक जॉय फुमापी जो संयुक्त राष्ट्र संघ के एक पैनल के सह-अध्यक्ष भी हैं, उनका कहना है कि वर्ष 2030 तक जो बच्चों के स्वास्थ्य का लक्ष्य निर्धारित किया गया था उस लक्ष्य को पाना अब मुश्किल हो गया है। युनिसेफ (युनाइटेड नेशन्स चिल्ड्रेन फंड) कहता है कि दक्षिण एशिया में सालाना 8.81 लाख बच्चों की असमय मौत हो जाती है। अभी 23 जून को जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि कोरोना वायरस संक्रमण के कारण दक्षिण एशिया में अगले छह महीने में लगभग 36 करोड़ बच्चे गरीबी और भूख का शिकार होंगे।
कोरोना वायरस संक्रमण के दौरान लगभग पूरी दुनिया में ही बच्चों के स्वास्थ्य की जबर्दस्त अनदेखी हुई है। विभिन्न समाचार माध्यमों की छिटपुट खबरों का अध्ययन करें तो भारत में ही कोरोना काल में कोरोना वायरस संक्रमण से मरने वाले लोगों की तुलना में इसी दौरान देश में ज्यादा बच्चों की मौते हुई हैं। राष्ट्रीय कहे जाने वाले चैनलों और उनके ज्यादातर पत्रकारों के बिकाऊ हो जाने के कारण समाज और व्यक्तियों के असली सवालों पर न तो रिपोर्टिंग हो रही है और न ही सच सामने आ पा रहा है। ऐसे में यह पता करना कि कोरोना वायरस संक्रमण की आड़ में कितने बच्चों की जानें चली गईं आसान नहीं है। फिर भी इस सच को झुठलाया नहीं जा सकता कि कोरोना वायरस संक्रमण की आड़ में हमने अपने बुनियादी स्वास्थ्य से खिलवाड़ किया है, खासकर छोटे बच्चों की जिन्दगी की मुश्किलें बढ़ा दी हैं।
इसी बीच अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आइएलओ) की भी एक रिपोर्ट आयी है। आइएलओ तथा युनिसेफ द्वारा जारी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि कोरोना वायरस लाखों बच्चों को बाल मजदूरी के दलदल में धकेल देगा। कोविड-19 एण्ड चाइल्ड लेबर नामक यह रिपोर्ट विश्व बाल श्रम निषेध दिवस (12 जून) को जारी की गयी है। रिपोर्ट के अनुसार सन् 2000 के बाद यह पहला मौका है कि बाल मजदूरों की संख्या में इजाफा हो रहा है। पिछले 20 वर्षों में दुनिया भर में जो प्रयास किये गये उससे बाल-मजदूरों की संख्या में लगातार कमी आ रही थी परन्तु कोरोना वायरस संक्रमण की वजह से जो अव्यावहारिक लॉकडाउन किया गया उसके कारण यह संकट आया। सन् 2000 में वैश्विक स्तर पर कोई 24.6 करोड़ बच्चे बाल मजदूरी करते थे। सन् 2017 तक यह संख्या घटकर 15.2 करोड़ रह गयी थी। 17 साल की इस लम्बी अवधि में करीब 9.4 करोड़ बच्चे बाल मजदूरी से मुक्त हो गये थे, परन्तु इस ताजा रिपोर्ट में यह आशंका व्यक्त की गयी है कि एशिया और अफ्रीका में बाल मजदूरों की संख्या में काफी इजाफा होगा।
wcms_747421अचानक लॉकडाउन ने भारत में जो आर्थिक तबाही की है उसका सीधा असर देश के 40 करोड़ आबादी पर पड़ रहा है। एशियन डेवलपमेन्ट बैंक (एडीबी) के अनुमान के अनुसार दुनिया के 55 फीसद कोई 400 करोड़़ लोगों के पास इस आर्थिक संकट से निपटने का कोई विकल्प नहीं है। यह संकट लम्बे समय तक चलने वाला है। अनुमान है कि कोई 24.2 करोड़ नौकरियां खत्म हो जाएंगी। यदि नुकसान को मुद्रा में देखें तो दैनिक मजदूरी करने वाले कामगारों और छोटे कारोबारियों का आर्थिक नुकसान 90,79,800 करोड़ से 1,36,19,700 करोड़ रुपये तक जा सकता है। इस वजह से बड़े पैमाने पर पुनः पलायन होगा। लोग महंगे घरों को बेचकर कम खर्च में गुजारा करने के लिए सस्ते विकल्प की तलाश करेंगे। निर्माण उद्योग एवं कई अन्य उद्योगों की स्थिति बिगड़ेगी। रियल स्टेट के निर्माणाधीन प्रोजेक्ट पर पूरे नहीं हो पाएंगे। कुल मिलाकर विकास की गति थमेगी और समाज में व्यापक असंतोष बढ़ेगा।
बच्चों को लेकर एक अन्य अन्तर्राष्ट्रीय संस्था ‘‘सेव द चिल्ड्रेन’’ एवं युनिसेफ का एक और अध्ययन इसी दौरान प्रकाशित हुआ है। इसमें कहा गया है कि वर्ष 2020 के अन्त तक करीब 8.6 करोड़ बच्चे कोरोना वायरस के चलते गरीबी के हालात में ढकेल दिये जाएंगे। ऐसे में पहले से ही गरीबी में जी रहे बच्चों की संख्या बढ़कर 67.2 करोड़ तक पहुंच जाएगी। इन बच्चों के पास मजदूरी करने के अलावा कोई और विकल्प तो दिखता नहीं। अध्ययन बता रहे हैं कि यदि गरीबी में 1 फीसदी की वृद्धि होती है तो उसमें बाल श्रम में करीब 0.7 फीसद की वृद्धि हो जाएगी। युनिसेफ ने अपनी रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया है कि लॉकडाउन के कारण सभी स्कूल बंद हैं जिसके कारण गांवों में बाल मजदूरी बढ़ रही है। बच्चे अपने मां-पिता के काम में हाथ बढ़ाने के लिए अलग-अलग कामों में लग गये हैं। छोटी लड़कियां घरेलू काम में मां का हाथ बंटा रही हैं। कामकाजी औरतों के साथ उनकी बच्चियां भी काम पर जा रही हैं। अध्ययन यह कह रहा है कि लॉकडाउन खुलने के बाद भी मां-पिता की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं होगी कि वे अपने बच्चों को दोबारा स्कूल भेज सकें।
लॉकडाउन से बच्चों के पोषण पर बहुत कुछ असर पड़ा है। मध्य प्रदेश के 6 जिलों में 33 परिवारों पर 45 दिन चले गहन शोध से सामने आया है कि लॉकडाउन ने किस तरह महिलाओं के पोषण और परिवार की आर्थिक स्थिति को प्रभावित किया है। इस अध्ययन को करने वाली संस्था ‘विकास संवाद’ ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि गर्भवती माताओं की प्रतिदिन शुद्ध कैलोरी में 67 फीसद (2157 कैलोरी), स्तनपान कराने वाली माताओं में 68 फीसद (2334 कैलोरी) और बच्चों में 51 फीसद (693 कैलोरी) प्रतिदिन की कमी दर्ज की गयी है। इस अध्ययन में शामिल 91 फीसद परिवारों के पास फिलहाल रोजगार के स्थायी साधन नहीं हैं। इनमें 79 फीसद अनुसूचित जनजाति, 12 फीसद अन्य पिछड़ा वर्ग तथा 9 फीसद अनुसूचित जाति से सम्बन्ध रखते हैं। इनमें 64 प्रतिशत परिवारों में से कोई-न-कोई सदस्य अकसर काम के लिए गांव से बाहर रहता है। कोविड-19 के चलते लोग कर्ज में भी फंस रहे हैं। 24 फीसद परिवारों पर कुल 21,250 रुपये का कर्ज है। 12 फीसद परिवार 4000 रु. के कर्ज में हैं जबकि 9 फीसद परिवारों पर 1000 रुपये का कर्ज है। यह कर्ज रोजमर्रा की जरूरतों जैसे अनाज और सब्जियों के साथ-साथ तेल, मसाले खरीदने के लिए लिया गया है।
कोरोना के बीच बिहार से बच्चों के लिए जानलेवा चमकी बुखार के कहर की खबर फिर आनी शुरू हो गयी है। इस साल अब तक संक्रमण के कुल 56 केस आ चुके हैं जिनमें 6 बच्चों की मौत हो चुकी है। पिछले वर्ष इस बुखार ने अन्तर्राष्ट्रीय सुर्खियां बटोरी थीं। आज तक वैज्ञानिक और चिकित्सक यह नहीं पता लगा पाये कि बच्चों की जान लेने वाला यह बुखार कोई वायरल संक्रमण है या वहां की सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों का परिणाम है। मुजफ्फरपुर के जाने माने आर्थोपेडिक सर्जन डॉ. प्रवीण चन्द्रा बताते हैं कि मीडिया में चर्चित यह बुखार दरअसल वहां की गरीबी और अज्ञानता के कारण उत्पन्न बीमारी है जो हर साल अप्रैल-मई महीने में हजारों बच्चों को प्रभावित करती हैं। गरीबी के कारण बच्चे नंगे बदन गर्मी में लीची के बगीचे में जाकर पेड़ से गिरी सड़ी लीची खाकर बीमार पड़ते हैं और ग्लूकोज़ की कमी तथा शरीर में पानी की कमी से उनकी मौत हो जाती थी। तमाम वायरोलॉजिस्ट आज तक इस वायरस को नहीं ढूंढ पाये जिसे इस बुखार के लिए जिम्मेवार बताया जा रहा था।
बहरहाल दुनिया में कुल 1.9 बिलियन (190 करोड़) बच्चे वैसी भी कई मामलों में उपेक्षित हैं लेकिन इस कोरोना वायरस संक्रमण ने बच्चों की हालत को और खराब कर दिया है। अमीर परिवारों के बच्चों की समस्या है कि लॉकडाउन में घर बैठकर कम्प्यूटर व मोबाइल गेम के साथ-साथ फास्ट फूड के अत्यधिक सेवन से जहां उनमें चिड़़चिड़ापन और जीवनशैली के रोग जैसे मोटापा, तनाव आदि ने घर बनाया है। वैसे ही निम्न आय वाले परिवारों के बच्चों में कुपोषण, चिड़चिड़ापन एवं तनाव ने उन्हें प्रभावित किया है।
स्थिति स्पष्ट है कि यदि परिपक्व और संवेदनशील तरीके से मामले को संभाला नहीं गया तो स्थिति विस्फोटक है और देश दुनिया का भविष्य कहे जाने वाले हमारे बच्चे ताउम्र एक अभिशप्त जिन्दगी जीने को मजबूर होंगे। सरकार और बाजार तो ‘‘आपदा में अवसर’’ मानकर अपना रेवेन्यू क्लेक्शन ठीक करने में लगे हैं। मध्य वर्ग के कामकाजी लोग जैसे-तैसे अपनी आजीविका सुनिश्चित कर रहे हैं। देश में स्कूल बन्द हैं। नेताओं ने खुद को खरीद बिक्री के लिए मंडी में सजा रखा है। सरकार मंदिर बनाने में लगी है लेकिन इस काल में पल रहे बच्चे हर तरह से उपेक्षित हैं। है कोई जो इनकी सुध लेगा?