पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के बीच राजनीति की कुछ महत्वपूर्ण खबरों पर लोगों का ध्यान उस रूप में नहीं जाता है जिस रूप में जाना चाहिए। पिछले पांच दिनों के भीतर बिहार में कुछ बड़ी राजनैतिक घटनाएं घटी लेकिन उसे मीडिया में या फिर विश्लेषकों ने उस रूप में तवज्जो नहीं दी जिस रूप में दी जानी चाहिए थी।
राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष उपेन्द्र कुशवाहा ने अपनी पार्टी का विलय जनता दल (यू) में कर लिया। कुशवाहा की पार्टी का जनता दल (यू) में शामिल होने की घोषणा करते हुए नीतीश कुमार ने कहा कि पार्टी अध्यक्ष आरसीपीसिंह ने उपेन्द्र कुशवाहा को पार्टी के संसदीय दल का अध्यक्ष भी नियुक्त किया है। उपेन्द्र कुशवाहा के जनता दल (यू) में ज्वाइन करने से एक दिन पहले ही उनकी पार्टी के तीस से अधिक जिला अध्यक्ष व अन्य पदाधिकारी राजद में शामिल हो चुके थे।
वैसे उपेन्द्र कुशवाहा ने दो बार नीतीश कुमार से अलग होकर अपनी पार्टी बनाई है और दोनों बार नीतीश की पार्टी के साथ ही अपनी पार्टी का विलय भी किया है। पहली बार कुशवाहा का नीतीश से मोहभंग 2007 में हुआ था जब दो साल पहले ही नीतीश कुमार राज्य के मुख्यमंत्री बने थे। राष्ट्रीय समता पार्टी बनाते समय उन्होंने नीतीश कुमार पर आरोप लगाया था कि न सिर्फ वह तानाशाह हैं बल्कि उनके द्वारा कोइरी समुदाय की लगातार उपेक्षा भी की जा रही है। थोड़े दिनों के बाद ही 2009 में उन्होंने अपनी पार्टी का विलय जेडीयू में कर लिया और पार्टी ने उन्हें राज्यसभा भेज दिया।
दूसरी बार 2013 में कुशवाहा ने एक बार फिर नीतीश कुमार का साथ यह कहते हुए छोड़ दिया कि बिहार को गति देने में उनकी सरकार पूरी तरह असफल रही है। बाद में वह बीजेपी के सहयोग से लोकसभा पहुंचे और मोदी की कैबिनेट में राज्यमंत्री भी रहे। 2019 के शुरू में उन्होंने बीजेपी से नाता तोड़ लिया और राजद-कांग्रेस के गठबंधन में शामिल होकर लोकसभा चुनाव हार गए। थोड़े दिन पहले हुए बिहार विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली।
फिर सवाल यह है कि जिस उपेन्द्र कुशवाहा की राजनैतिक हैसियत एक विधायक जीतने तक की नहीं है, उसे अपनी पार्टी में नीतीश कुमार ने क्यों शामिल किया? दूसरी बात, जिस नीतीश कुमार के कारण कुशवाहा दो बार पार्टी छोड़ चुके हैं उसी नीतीश कुमार के साथ तीसरी बार क्यों पार्टी में आए हैं और यही सवाल उलट के नीतीश कुमार के लिए भी है।
बिहार के जातीय गणित में कुर्मी समुदाय की संख्या ढाई से तीन फीसदी है जबकि कोइरी की संख्या लगभग 11 फीसदी है। बिहार में लंबे समय से कुर्मी-कोइरी एकता की बात चलती रही है और कमोबेश दोनों ही जातियों ने अपनी-अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को संवारने में एक दूसरे के पूरक के रूप में काम किया है। फिर भी राज्य के कोइरी समाज में इस बात का मलाल है कि पिछड़ी जातियों के बीच संख्याबल में यादवों के बाद सबसे अधिक होने के बावजूद इस समाज के नेता को राज्य का मुखिया बनने का अवसर नहीं दिया गया है।
अगर पिछले चुनाव में विधानसभा में जीते हुए उम्मीदवारों को देखें तो कोइरी समाज से सभी दलों में विधायक चुने गए हैं, ऐसे में फिर वही सवाल उठता है कि नीतीश कुमार को उपेन्द्र कुशवाहा की जरूरत क्यों पड़ी? इसी तरह, जब उपेन्द्र कुशवाहा लगभग कोइरियों के सर्वमान्य नेता के रूप में अपनी जगह बनाने में जब सफल हो चुके थे तो क्या कारण है कि उन्हें नीतीश कुमार के साथ आना पड़ा?
अगर इन दोनों पहलुओं पर विचार करें तो पता चलता है कि यह राजनीति पिछड़ों की राजनीति को एक अलग दिशा में जारी रखने का तैयारी है।
मंडल की राजनीति के 30 साल के बाद पिछड़ों की राजनीति के दो ध्रुव हैं- एक लालू-राबड़ी के नेतृत्व वाली राजद और दूसरा नीतीश कुमार के नेतृत्व वाला जनता दल (यू)। लालू-राबड़ी के सत्ता से बाहर होने के 15 साल बाद लालू यादव ने अपनी विरासत तेजस्वी यादव को सौंप दी है। जिस रूप में बीते विधानसभा में तेजस्वी यादव ने पार्टी व गठबंधन का नेतृत्व किया, उसको देखते हुए यह कहा जा सकता है कि आने वाले वक्त में वही राजद का नेतृत्व संभालेंगे। वैसे भी उनकी उम्र इतनी कम है कि वह कई झंझावत अभी झेल सकते हैं।
यही हाल हालांकि जनता दल (यू) का नहीं है। पार्टी के सबसे बड़े लीडर नीतीश कुमार की उम्र सत्तर के करीब है और भविष्य में नेतृत्व की कोई योजना उनको लेकर नहीं बनायी जा सकती जबकि उपेन्द्र कुशवाहा की उम्र साठ साल है और उनके सक्रिय राजनीतिक जीवन में कम से कम दस साल और शेष हैं। शायद दोनों नेताओं की यह समझदारी रही होगी कि अगर पिछड़ों के नेतृत्व को बचाकर रखना है तो पार्टी का नेतृत्व देर-सवेर उपेन्द्र कुशवाहा के हाथ में सौंपा जा सकता है। इसका एक और कयास इससे भी लगाया जा सकता है कि कुशवाहा जब आठ साल पहले नीतीश कुमार से अलग हुए थे तब नीतीश के पास साफ राजनैतिक नक्शा रहा होगा। उन्हें भविष्य में एक बड़ी संभावना भी दिख रही होगी, यही कारण था कि 2014 का लोकसभा चुनाव वह बीजेपी से अलग होकर लड़े थे जबकि कुशवाहा बीजेपी के सहयोगी के रूप में लड़े।
वक्त ने पाला बदला और उपेन्द्र कुशवाहा को अगला लोकसभा चुनाव बीजेपी से अलग होकर लड़ना पड़ा जबकि नीतीश कुमार एक बार फिर से बीजेपी के सहयोगी हुए। आज के हालात में विधानसभा में आए परिणाम के बाद नीतीश व कुशवाहा दोनों को लग गया है कि गैर-राजद पिछड़ों का पूरा का पूरा जनाधार कहीं बीजेपी में शिफ्ट न हो जाए।
नीतीश कुमार को यह भी पता है कि उम्र के इस पड़ाव पर उनकी पूछ तभी रह पाएगी जब वह अपने छिटकते हुए जनाधार को हर तरह से बचाकर रख पाएंगे क्योंकि अतिपिछड़ों का विश्वास आज भी नीतीश पर सबसे अधिक है। नीतीश यह भी जानते हैं कि 11 फीसदी कोइरी अगर उपेन्द्र कुशवाहा के बहाने उनके साथ चट्टान की तरह खड़ा हो जाता है तो बीजेपी को उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी से झटके में उतार देना इतना आसान नहीं होगा।
उसी तरह उपेन्द्र कुशवाहा भी जानते हैं कि नीतीश कुमार से उम्र में दस साल छोटा होने के कारण जेडी(यू) में वे सर्वमान्य नेता भले ही न बन पाएं लेकिन जातिगत संख्याबल की बदौलत वह पार्टी के सबसे बड़े लीडर बन सकते हैं। तीसरी बात, उपेन्द्र कुशवाहा की छवि एक शालीन व पढ़े-लिखे इंसान की है, जो कभी किसी विवादों में नहीं रहे हैं (बार-बार दल व गठबंधन बदलने को छोड़कर, हालांकि आज के दिन भारतीय राजनीति से दलबदलू शब्द गायब हो गया है)। साथ ही उपेन्द्र कुशवाहा बिहार के कुछ गिने-चुने पिछड़े नेताओं में शुमार किए जाते हैं जिनकी पढ़ाई देश से सबसे बेहतरीन साइंस कॉलेज से हुई है। विवादों में न रहने व पिछड़ों के हितों को लगातार उठाते रहने के कारण वह नीतीश कुमार के राजनीतिक वारिस हो सकते हैं (अगर नीतीश मदद कर दें तो) अन्यथा कुशवाहा के जद(यू) में शामिल होने से न तो नीतीश को लाभ होगा और न ही कुशवाहा को।
वैसे एक संभावना पांचों राज्यों से आने वाले चुनाव परिणाम से भी तय होगी कि बिहार में नीतीश-कुशवाहा एक दूसरे का पूरक होंगे या यह मिलन भी पुराने प्रयोगों की तरह ही असफल साबित होगा!