राग दरबारी: विकास दूबे की कथा में भारतीय सवर्ण मध्यवर्ग के वर्चस्व और पतन का अक्स


कानपुर के विकास दूबे की कहानी को अगर भारतीय सवर्ण समाज पढ़ पाये, तो वह अपने वर्चस्व को कई और वर्षों तक आगे भी कायम रख सकता है। अन्यथा, इसे अपने पतन की शुरुआत भी मान सकता है।

विकास दूबे के ऊपर कम से 65 मुकदमे चल रहे थे, लेकिन वह जेल से बाहर था। फिरौती लेता था, दूसरों की ज़मीन पर कब्ज़ा करता था, उसके इलाके में वही होता था जो वह चाहता था। कुल मिलाकर, एक अपराधी ने वैसा तंत्र खड़ा कर लिया था जिसमें अंतिम फैसला वह लेता था न कि कानून की रक्षा करने के लिए बना पूरा सरकारी तंत्र। और परिणाम देखिए! जब उसे चुनौती दी गयी तो उसने एक डीएसपी समेत आठ पुलिसकर्मियों को मौत के घाट उतार दिया।

पचीस हजार रुपये के घोषित ईनाम वाले इस भगोड़े अपराधी पर अब ढाई लाख का ईनाम घोषित कर दिया गया है, लेकिन अब भी वह पुलिस की पहुंच से काफी दूर है। कहा जा रहा है कि विकास दूबे को बचाने में ब्राह्मणों का एक पावरफुल तबका हाथ-पांव मार रहा है। जिन 65 मुकदमों में पुलिस को उसकी तलाश है, उसमें से अधिकांश वे मुकदमे हैं जिसमें उसने ब्राह्मण समाज को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया है। दूबे ने सबसे ज्यादा ब्राह्मणों की हत्या की है, लेकिन बहुसंख्य ब्राह्मण समाज को विकास दूबे से कोई परेशानी नहीं हो रही होगी, बल्कि उसमें समाज के मसीहा का अक्स देख रहा होगा!

दुनिया में जहां कहीं भी कानून का राज है उसका सबसे अधिक लाभ वहां के मध्यम वर्ग को होता है। इसका सीधा कारण यह है कि हर एक कानून मध्यम वर्ग अपने हित को ध्यान में रखकर बनाता है जिसका सीधा लाभ उसे मिलता है। भारत जैसे देश में जाति व वर्ग का मसला बहुत हद तक कनफ्यूज़न पैदा करता है। इस पर एक अर्थशास्त्री या समाजशास्त्री की अलग-अलग राय हो सकती है, लेकिन भारतीय समाज के वृहद ढांचे को देखें तो हम पाते हैं कि इतना होने के बावजूद तंत्र पर पूरी तरह से मध्यम वर्ग का ही कब्जा है और अब भी हमारे देश में अधिकांश सवर्ण ही मध्यम वर्ग को गढ़ता है। चूंकि भारत का तंत्र पूरी तरह मध्यम वर्ग के हित को लाभ पहुंचाने के लिए खड़ा किया गया है इसलिए इसका लाभार्थी भी मध्यम वर्ग और उसके भीतर बैठा सवर्ण है।  

कानपुर के बकरू गाँव में विकास दूबे के मकान के बाहर पुलिस फोर्स, तस्वीर साभार इंडियन एक्स्प्रेस

इसे कुछ उदाहरणों द्वारा समझा जा सकता है। देश में आरक्षण की मांग इसलिए उठायी गयी क्योंकि मांग उठाने वालों को लगता था कि जब तक दलितों-पिछड़ों को सत्ता-व्यवस्था में भागीदारी नहीं दी जाएगी तब तक समाज का लोकतांत्रीकरण नहीं हो पाएगा। इसी को ध्यान में रखकर आरक्षण का प्रावधान किया गया। आरक्षण का प्रावधान होने से दलितों-पिछड़ों को नौकरी में प्रतिनिधित्व मिलना शुरू हुआ। जब आरक्षण प्राप्त अधिकारी सरकार के कुछ महत्वपूर्ण महकमों में दिखने शुरू हुए, तब एक साजिश के तहत आरक्षण व्यवस्था के खिलाफ मुहिम शुरू करायी गयी. हम जानते हैं कि आरक्षण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है बल्कि यह सत्ता में भागीदारी का सवाल है. चूंकि आरक्षण व्यवस्था ठीक से लागू नहीं हुई और उसे किसी भी तरह खत्म कर देने की साजिश की जाने लगी, इसलिए सरकारी सेवा में दलित-पिछड़ों की भागीदारी ही नहीं हो पायी. इसका परिणाम यह हुआ कि आज भी अधिकांश सरकारी पदों पर वे बैठे हुए हैं जो मध्यमवर्ग के सवर्ण हैं। मध्यमवर्ग वह है जिनके पास पैसे हैं, जो सवर्ण हैं। हो सकता है कि इसमें कुछ पिछड़े, दलित व अल्पसंख्यक भी मध्यमवर्ग हों लेकिन सत्ता को निर्धारित करने में उनकी कोई भूमिका नहीं बन पायी है।  

इसे अगर दूसरे शब्दों में कहना चाहें तो कह सकते हैं कि मध्यम वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा सवर्ण है जो सरकारी ऑफिस, निजी दफ्तर या फैक्ट्री में काम करता है। उसके पास दुपहिया से लेकर चारपहिया वाहन हैं, वह अधिकांश कंज्यूमर गुड्स का प्रयोग करता हैं, अधिक से अधिक बिजली की खपत करता है और रियायत या पूरी कीमत पर सरकार से मिली सुविधा का इस्तेमाल करता है। अगर किसी तरह की परेशानी हो तो सबसे ज्यादा आह उसके मुंह से ही निकलती है। कहने के लिए कानून व्यवस्था तो सबके हित के लिए होती है लेकिन इसका लाभ उन्हें ही मिलता है. उदाहरण के लिए, अपवादों को छोड़ दिया जाए तो रिक्शावाले या गरीबों को आपने बहुत ही कम देखा होगा जो थाने में जाकर अपनी शिकायत दर्ज करवाते हों।  

यही हाल कोर्ट-कचहरी का है। बड़ी अदालतों में जाने वाले अधिकांश मध्यमवर्गीय लोग हैं जो अपनी समस्या को लेकर वहां पहुंचते हैं। हां, छोटी अदालतों का हाल कुछ हद तक अलग है जहां ज़मीन व मारपीट के मामले अधिक होते हैं, जिसमें बहुसंख्य गरीब व पिछड़ी जातियों के लोग होते हैं। यह दूसरा पहलू भी इतना ही महत्वपूर्ण है क्योंकि छोटी अदालतों में गरीब लोगों को सजा ज्यादा होती है। इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि आर्थिक संसाधन न होने की वजह से न वह अच्छा वकील कर पाता है और न ही शुरूआती दौर में जांच को ‘प्रभावित’ कर पाता है। कमोबेश यही स्थिति हर विकसित देश में है, खासकर अमेरिका में, जहां रंगभेद के चलते अधिकांश काले लोगों को सजा दे दी जाती है क्योंकि जांच अधिकारी गोरा होता है।  

इसलिए जब कानून व्यवस्था को खत्म किया जाता है तो इसका सबसे ज्यादा नुकसान सवर्णों को ही होता है। एक दूसरा उदाहरण दिल्ली पुलिस की डीसीपी मोनिका भारद्वाज का है। जब वकीलों का हिंसक प्रदर्शन चल रहा था तो वकीलों ने इस युवा अधिकारी के साथ मारपीट व बदतमीजी की थी, लेकिन पुलिस महकमे का बड़ा पदाधिकारी होने के बावजूद वे मुकदमा तक दर्ज नहीं करवा पायी थीं।  बहुत दिन नहीं हुए जब लखनऊ में एप्पल कंपनी में मैनेजर के पद पर काम करने वाले विवेक तिवारी की रात में गश्त कर रही पुलिस ने गोली मारकर हत्या कर दी। उत्तर प्रदेश में पिछले तीन साल में अब तक दो हज़ार से अधिक तथाकथित पुलिस एनकाउंटर हुए हैं, जिनमें दो सौ के करीब लोग मारे गये हैं।

विवेक तिवारी के शव के इर्द गिर्द बैठे परिजन और समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता, फोटो पीटीआई

पहले के इन तथाकथित एनकाउंटरों को देखें तो जिन लोगों की पुलिस ने हत्या की है उसमें सारे के सारे मुसलमान, दलित और पिछड़े हैं जिनका उपनाम यादव, राजभर, पासी, सोनकर, मौर्या, कुशवाहा आदि हैं। कानपुर की ताज़ा घटना इस मामले में अलग है कि इसमें एक ब्राह्मण के घर पर जब पुलिस दबिश देने जाती है तो कम से कम आठ पुलिसकर्मियों की उस बदमाश के गैंग द्वारा हत्या कर दी जाती है। वैसे, विवेक तिवारी की पत्नी का कहना था कि हम इतने भरोसे के साथ उत्तर प्रदेश में बीजेपी की सरकार को लाये थे और हमारे साथ ही इतना बुरा हो रहा है। अर्थात कल्पना तिवारी का कहना है कि अब तक चुन-चुन तक जब दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों की मुठभेड़ के नाम पर फर्जी हत्याएं हो रही थीं तब योगी जी की सरकार से उन्हें कोई परेशानी नहीं थी क्योंकि उन्हें लगता था कि वे सारे अपराधी हैं, आतंकवादी हैं, देशद्रोही हैं क्योंकि वे सब पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक समुदाय से आते थे। जब पुलिस ने ब्राह्मण की हत्या की तो उसे लगने लगा कि पुलिस ने ‘पहली बार’ एक निरपराध की हत्या कर दी है!

आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री बनते ही कहा था, ‘अपराधी या तो जेल में डाल दिये जाएंगे या फिर ठोंक दिए जाएंगे.’ मुख्यमंत्री के इस बयान पर सुप्रीम कोर्ट में पीयूसीएल के वकील संजय पारिख ने तब कहा भी था, ‘ऐसी भाषा अपराध को कम करने के बजाय पुलिस को किसी की जान ले लेने की खुली छूट देना होता है’ और अब हालात देखिए, कि तीन थानों की पुलिस टीम की हत्या एक अपराधी गिरोह हत्या कर देता है लेकिन एक जाति समूह को लगता है कि वह उसका नायक है। वह समाज तब भी सोचता रहता है कि यह अपवाद है, सवर्णों को नुकसान तो हो ही नहीं सकता है!

अगर हर हत्या का विरोध नहीं होगा तो थोड़े दिनों के बाद कौन बचेगा और कौन मारा जाएगा वह हम-आप पर नहीं बल्कि जिसके हाथ में बंदूक है, वह तय करेगा और फिर हम में से कोई नहीं बचेगा। जब कानून-व्यवस्था नेताओं की दासी बन जाती है तो रोजमर्रा की जिंदगी में सबसे ज्यादा नुकसान सवर्णों व मध्यम वर्ग का होता है। हां, यह अलग बात है कि सवर्ण अराजकता से नुकसान को इस रूप में पेश करता है जिससे लगता है कि इसका सबसे अधिक नुकसान दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यक व गरीबों का हो रहा है।

इसीलिए कीड़े-मकोड़े में तब्दील होने से बेहतर है कि न्याय के साथ खड़े हों। हर समय, हर गलत का विरोध करें! हत्या किसी की भी हो और जिस भी परिस्थिति में हो, गलत ही है।



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