आज बीपी मंडल का जन्मदिन है. उन्हीं बीपी मंडल का, जिनकी अनुशंसा को लागू करने के बाद 1990 में वीपी सिंह को प्रधानमंत्री का पद गंवा देना पड़ा था. उस बीपी मंडल का, जिसकी एक रिपोर्ट ने आरएसएस-बीजेपी को लगभग 25 वर्षों तक केन्द्रीय सत्ता में आने के बावजूद अपने एजेंडा को लागू करने से दूर रखा. वही बीपी मंडल, जिसकी एक रिपोर्ट से पहली बार ओबीसी के नाम से पिछड़ों की गोलबंदी शुरू हुई, उन्हीं की उस रिपोर्ट के चलते पिछड़ों की राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित कर दी गयी. मंडल के तीस साल बाद देश का पिछड़ा नेतृत्व आजादी के बाद सबसे कमजोर हालत में है जबकि तीस साल पहले की तुलना में पिछड़े समाज के एक तबके के पास अधिक शिक्षा है, अधिक पैसे हैं लेकिन हैसियत नहीं के बराबर रह गयी है.
1990 में मंडल लगने से पहले पिछड़ा नेतृत्व का एक रुतबा था. मंडल लागू होने के बाद सवर्ण सत्ता को पिछड़ों से डर लगने लगा था, लेकिन 25 साल के भीतर पूरा का पूरा पिछड़ा नेतृत्व दीन-हीन अवस्था में पहुंच गया है. सत्ता पर उसकी कोई पकड़ नहीं रह गयी है. भारतीय राजसत्ता ज्यादा सवर्णवादी हो गयी है. सत्तर साल में लड़कर ली गयी हिस्सेदारी धीरे-धीरे छीनी जा रही है लेकिन पिछड़ा नेतृत्व मृतप्राय सा हो गया है. पिछड़े नेतृत्व की एकमात्र कोशिश किसी भी तरह एमपी या एमएलए बन जाने की है न कि अपने समाज के लिए कुछ गुणात्मक कर पाने की है.
बी.पी. मण्डल: एक मुसहर को सांसद बनाने वाला ओबीसी समाज का मसीहा
अभी कुछ दिन पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक डॉक्टर लक्ष्मण यादव ने एक आरटीआइ लगाकर सूचना एकत्र की है कि देश के 40 केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में कुल 9 ओबीसी कैटेगरी से प्रोफेसर हैं जबकि कुल आवंटित सीट 269 है. मतलब 97 फीसदी सीटें खाली हैं. इसी तरह एससी के लिए कुल 297 सीटें आवंटित हैं और 83 फीसदी सीटें खाली हैं जबकि एसटी के लिए आवंटित 133 सीटों में से 94 फीसदी सीटें खाली हैं.
कुछ दिन पहले राज्य सरकार के मेडिकल कॉलेजों से पिछड़ों के लिए आरक्षण व्यवस्था को खत्म कर दिया गया, लेकिन पिछड़ा नेतृत्व की तरफ से कोई पहलकदमी नहीं हुई. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने इसके लिए एक चिट्ठी जरूर प्रधानमंत्री को लिखी. इसी तरह पिछले साल कुल 15 फीसदी सवर्णों में से गरीब सवर्णों के लिए हर जगह 10 फीसदी आरक्षण लागू कर दिया गया जिसका समर्थन सपा-बसपा ने जोरदार तरीके से किया.
सवाल है कि जो पिछड़ी या दलित जाति का नेतृत्व लगभग 25 वर्षों तक अनवरत सत्ता पर काबिज रहा, वह एकाएक इतना निष्प्रभावी क्यों हो गया कि अपने समुदाय या सहयोगी के हित की रक्षा भी नहीं कर पा रहा है? क्या इसके पीछे पिछड़े व दलित नेतृत्व का भ्रष्टाचार है या और भी कोई कारण है कि सत्ता से बाहर होने के बाद वह कोई सवाल ही नहीं उठा पाता है?
दूसरा सवाल यह है कि वर्तमान राजनीति इतनी सवर्ण केंद्रित हो गयी है कि दलित-पिछड़ा नेतृत्व के लिए सचमुच कोई जगह नहीं रह गयी है कि वे अपने समुदाय के हित की बात कर सकें? मोटे तौर पर इन्हीं दोनों सवालों के बीच दलित-पिछड़ा नेतृत्व की असफलता का जवाब छुपा हुआ है.
जिस मंडल आयोग की रिपोर्ट के बीच पिछड़ा नेतृत्व इतना शक्तिशाली दिखने लगा था, आखिर वह इतनी आसानी से बिखर क्यों गया? इस बिखराव के कारण को समझने के लिए हमें मंडल आयोग की अनुशंसा को देखना पड़ेगा. मंडल आयोग को संवैधानिक प्रावधानों के तहत जो काम सौंपे गये थे, वे हैं-
1. सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग की परिभाषा और पहचान के लिए कसौटी तय करना
2. पहचाने गये समूह के विकास के लिए कारगर उपाय सुझाना
3. केंद्र और राज्य की नौकरियों में समुचित प्रतिनिधित्व से वंचित पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण की आवश्यकता की जांच करना और
4. आयोग द्वारा खोजे गये तथ्यों को उचित संस्तुतियों के साथ भारत के राष्ट्रपति को एक प्रतिवेदन सौंपना
बीपी मंडल ने अपनी रिपोर्ट प्रतिवेदन राष्ट्रपति को सौंपी जिसमें उन्होंने सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए कुछ प्रमुख सिफारिशें की, जैसे-
1. केन्द्र और राज्य सरकारों की सेवाओं में पिछड़ा वर्ग के 27% सीटें आरक्षित की जाएं
2. जमींदारी प्रथा को खत्म करने के लिए भूमि सुधार कानून लागू किया जाए
3. सरकार द्वारा अनुबंधित जमीन को न केवल एससी व एसटी को दिया जाए बल्कि उसमें ओबीसी को भी शामिल किया जाए
4. केंद्र और राज्य सरकारों में ओबीसी के हितों की सुरक्षा के लिए अलग मंत्रालय/विभाग बनाये जाएं
5. केंद्र और राज्य सरकारों के अधीन चलने वाले वैज्ञानिक, तकनीकी, प्रोफेशनल तथा उच्च शिक्षण संस्थानों में दाखिले के लिए ओबीसी वर्गों के छात्र-छात्राओं के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू किया जाए, और
6. पिछड़े वर्ग की आबादी वाले क्षेत्रों में वयस्क शिक्षा केंद्र तथा पिछड़े वर्गों के छात्र-छात्राओं के लिए आवासीय विद्यालय खोले जाएं. पिछड़ा वर्ग के छात्रों को रोजगारपरक शिक्षा भी दी जाए.
बिहार और उत्तर प्रदेश में जब तक लालू, मुलायम, मायावती या अखिलेश मुख्यमंत्री रहे, नौकरी और सरकारी शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण लागू करने के अलावा कोई काम नहीं हुआ. न ही भूमि सुधार की तरफ कदम उठाया गया, न ही दलित-पिछड़े छात्र-छात्राओं के लिए हॉस्टल तैयार किया गया, न ही उनके लिए एक भी स्कूल-कॉलेज खोला गया. नये स्कूल कॉलेज खोलने की बात तो छोड़िए, जो सरकारी स्कूल-कॉलेज पहले थे भी उसकी सबसे ज्यादा बर्बादी इन्हीं सामाजिक न्यायवादियों के सत्ता में रहने के दौरान हुई. पहले हर जिला में हरिजन छात्रावास हुआ करता था, जिसमें प्रतिभाशाली दलित रहकर अध्ययन करते थे. ऐसा नहीं है कि पहले ये छात्रावास बहुत आबाद थे लेकिन बिहार में लालू-राबड़ी के शासनकाल में भी उसमें कोई सुधार नहीं हो पाया. नीतीश कुमार के समय तो वे छात्रावास पूरी तरह बर्बाद ही हो गये.
शिक्षा और स्वास्थ्य को पूरी तरह निजी हाथों में दे दिया गया जबकि दलित-पिछड़ा नेतृत्व को उसे न सिर्फ बचाना चाहिए था बल्कि बेहतरी की दिशा के काम करना था. ऐसा कुछ भी नहीं हुआ.
इसलिए वर्तमान दलित-पिछड़ा नेतृत्व के लिए सबसे बड़ा संकट अपने सपोर्टर को खोजने का है क्योंकि उसकी जिंदगी में शुरूआती दौर में मिले लाभ के बाद कुछ मिला ही नहीं है. जिसे कुछ बाद के दिनों में मिल भी गया है तो उसे पता नहीं चल रहा है कि आखिर यह मिला तो क्यों मिला.
पिछड़ा नेतृत्व को चाहिए कि सबसे पहले अपने गिरेबां में झांके कि उसने समाज से जितना लिया उसके बदले में क्या उसे वापस किया. भाई-भतीजावाद और परिवारवाद तो जो किया उसके लिए तो तब भी उसे माफी दी जा सकती है, लेकिन पूरे समाज के साथ जो धोखा किया, उसके चलते पूरा नेतृत्व कोमा में चला गया है.