राग दरबारी: हारते नीतीश, पिछड़ता राजद, जीतती भाजपा?


कोरोना महामारी ने पूरे देश में गैर-बीजेपी विपक्षी दलों की पोल खोलकर रख दी है. किसी भी गैर-बीजेपी दल को समझ में नहीं आ रहा है कि केन्द्र में सत्ताधारी बीजेपी से कैसे मुकाबला किया जाय.

कारण जो भी हो, राजनीतिक रूप से विपक्षी दल अपने सारे संसाधन या तो लुटा चुके हैं या फिर विपक्षी दलों की अदूरदर्शिता का सारा लाभ बीजेपी लेकर चली जा रही है. इसलिए ऐसा बहुत दिनों के बाद हुआ है कि बिहार की राजनीति एक बार फिर चौराहे पर नज़र आ रही है. कहने के लिए तो बीजेपी नीतीश कुमार के साथ मिलकर सरकार चला रही है लेकिन जिस रूप में कोरोना संकट से निपटा जा रहा है, उसमें मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का ग्राफ लगातार नीचे जा रहा है और बीजेपी का ग्राफ ऊपर जा रहा है.

कहने के लिए तो यह भी कहा जा सकता है कि नीतीश के ग्राफ को नीचे ले जाने में खुद के अलावा नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव की भूमिका भी काफी महत्वपूर्ण रही है. अगर इसी बात को उलटा कर के कहा जाय तो यह भी कहा जा सकता है कि जिस रूप में तेजस्वी यादव राजनीति कर रहे हैं वह बीजेपी के लिए अभयदान का काम कर रहा है.

पिछले दो वर्षों से भी अधिक समय से, जब से महागठबंधन टूटा है, तेजस्वी यादव के निशाने पर सिर्फ और सिर्फ नीतीश कुमार रहे हैं जबकि नीतीश कुमार ने राजद से गठबंधन तोड़कर बीजेपी के साथ सरकार बनायी थी. कायदे से तेजस्वी यादव या विपक्ष के दूसरे नेताओं को सरकार की असफलता का ठीकरा जेडीयू-बीजेपी दोनों पर फोड़ना चाहिए था न कि सिर्फ नीतीश कुमार पर, लेकिन आरजेडी की पूरी रणनीति को देखें तो ऐसा लगता है कि आरजेडी का एकमात्र दुश्मन जनता दल (यू) है. अगर राजद के विरोध व विरोध प्रदर्शन को देखें तो आप पाएंगे कि अगर गुंजाइश हो तो उन्हें बीजेपी या प्रधानमंत्री मोदी का समर्थन करने में कोई परेशानी नहीं होगी.

पिछले साल संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी, जेडीयू के अलावा रामविलास पासवान वाली लोक जनशक्ति पार्टी के साथ गठबंधन में उतरी थी. अगर पिछले लोकसभा चुनाव की सारी रैलियों को देखें तो हम पाते हैं कि मुख्य विपक्षी दल राजद के पूरे चुनावी प्रचार में निशाने पर सिर्फ नीतीश कुमार थे जबकि होना यह चाहिए था कि उसे केन्द्र सरकार में मौजूद बीजेपी की सरकार के खिलाफ लड़ाई तेज करनी चाहिए थी. इसका परिणाम यह हुआ कि उसके चारों सहयोगी दल गठबंधन होने के बावजूद सिर्फ एक सीट पर चुनाव जीत पाये. राजद को एक भी सीट नहीं मिली थी. बस एक सीट कांग्रेस को किशनगंज की मिली थी.

लोकसभा चुनाव में भीषण हार के बाद एकाएक ऐसा लगा कि नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव कहीं गायब हो गये हैं. इसके पीछे उड़ रही अफवाहों पर गौर करें तो कह सकते हैं कि पारिवारिक मतभिन्नता के कारण शायद तेजस्वी यादव गायब रहे होंगे, लेकिन कोरोना के बाद जब तेजस्वी सक्रिय हुए हैं तो उनके निशाने पर सिर्फ और सिर्फ नीतीश कुमार हैं. तेजस्वी के पिछले आठ महीने के ट्वीट को गौर से देखा जाय तो हम पाते हैं कि उन्होंने एक भी ट्वीट में प्रधानमंत्री को निशाने पर नहीं लिया है, जबकि कोई ऐसा ट्वीट नहीं है जब उन्होंने नीतीश को निशाने पर नहीं लिया हो.  

यह पता नहीं कि किसी का सुझाव है या क्या, लेकिन वर्तमान समय में कोई भी विपक्षी दल (राहुल गांधी या फिर ममता बनर्जी को छोड़कर) मोदी या बीजेपी के खिलाफ खुलकर कोई पोजीशन नहीं ले रहा है. सलाहकारों की योजना के अनुसार या खुद की रणनीति के अनुसार उन्हें लगता है कि राज्यस्तरीय चुनाव में प्रधानमंत्री को निशाने पर नहीं लिया जाना चाहिए. उन्हें शायद समझा दिया गया है कि मोदी की लोकप्रियता इतनी अधिक है कि ऐसा न हो कि जो लोग उनके साथ होना चाहते हैं, वे मोदी के खिलाफ बात सुनकर उनसे छिटक जाएं.

पिछले लगभग पंद्रह साल से बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार चल रही है. (कुछ महीने जीतनराम मांझी के कार्यकाल को हटा दिया जाए तो) इन पंद्रह वर्षों में डेढ़ साल को छोड़ दिया जाय तो लगभग तेरह वर्षों से स्वास्थ्य विभाग भारतीय जनता पार्टी के पास रहा है. पहले अश्विनी चौबे बिहार के स्वास्थ्य मंत्री थे और जब वह चुनाव जीतकर दिल्ली आ गये तो यह मंत्रालय बीजेपी के मंगल पांडे को मिला. बिहार में स्वास्थ्य विभाग का हाल जितना खराब है उससे ज्यादा खराब शायद ही किसी राज्य का हो, लेकिन कोरोना महामारी के इस दौर में भी मुख्य विपक्षी दल राजद ने एक बार भी बीजेपी का नाम लेकर उसकी नाकामी को चिह्नित नहीं किया है.

तेजस्वी यादव ने बिहार की राजनीति को पूरी तरह व्यक्ति केन्द्रित बना दिया है

विपक्ष, खासकर तेजस्वी यादव ने बिहार की राजनीति को पूरी तरह व्यक्ति केन्द्रित बना दिया है. वह बार-बार सिर्फ नीतीश कुमार के ऊपर निशाना साधते हैं जिससे बेशक नीतीश के खिलाफ माहौल बनाने में मदद मिलती है  लेकिन जिस स्तर पर राजनीति व्यक्ति केन्द्रित हुई है वह यहां बीजेपी को एडवांटेज दे देती है.  उदाहरण के लिए, बिहार में राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस, रालोसपा, हम, वीआइपी पार्टी का अभी तक गठबंधन मौजूद है, लेकिन उस गठबंधन के नेताओं का चाल, चेहरा व चरित्र ठीक से पहचानने की कोशिश करें तो हम पाते हैं कि वे किसी के साथ इसलिए हैं क्योंकि वे किसी के खिलाफ हैं.

उदाहरण के लिए, रालोसपा के उपेन्द्र कुशवाहा को ले लिया जाये. वह राजद के साथ इसलिए हैं क्योंकि उन्हें नीतीश से चिढ़ है, इतना ही नहीं, वह बीजेपी के भी इसलिए खिलाफ हैं क्योंकि बीजेपी उनसे अधिक तरजीह नीतीश कुमार को दे रही थी. इसी तरह जीतनराम मांझी 2015 में नीतीश के चलते बीजेपी के साथ गठबंधन में शामिल हुए थे न कि वैचारिक धरातल पर उनका किसी से कोई परहेज था. यही हाल वीआइपी के मुकेश साहनी का है. 2014-15 में वह बीजेपी की तरफ से स्टार प्रचारक रहे हैं लेकिन बाद में निजी हित नहीं पूरा होने के कारण वह नीतीश-बीजेपी से अलग हुए.

कुल मिलाकर बिहार की राजनीतिक स्थिति बीजेपी को मदद करती नजर आ रही है, जिसके लिए नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव अकेले जिम्मेदार हैं. कल्पना करें कि विधानसभा चुनाव में बीजेपी नीतीश कुमार को डंप कर दे और तय करे कि वह अकेले चुनाव लड़ेगी उस वक्त तेजस्वी के पास बीजेपी का कौन सा काट होगा? क्योंकि तेजस्वी ने तो पिछले ढाई वर्षों में सिर्फ नीतीश को बेपर्द किया है और उनके सारे कुकर्म में शामिल बीजेपी का कहीं नाम ही नहीं लिया है. फिर राजद किस रणनीति के तहत जनता के बीच जाएगी? इतने दिनों में उन्होंने नीतीश के खिलाफ जिस तरह का अभियान चलाया है उस स्थिति में उनके साथ गठबंधन करके खुद का बंटाधार करना होगा. और दूसरी बात, जब नीतीश बीजेपी से अलग हो जाते हैं तो उपेन्द्र कुशवाहा या जीतनराम मांझी को बीजेपी के साथ गठबंधन करने में कोई परेशानी नहीं होगी.

यही कारण है कि बिना नीति के एकतरफा नीतीश कुमार के खिलाफ मोर्चा खोलने का लाभ सिर्फ भाजपा उठाएगी, न कि नेता प्रतिपक्ष या कोई विपक्षी दल.

इसलिए हमें बिहार के सवर्णों के एक बहुत ही लोकप्रिय नारे को नहीं भूलना चाहिए- “नीतीश तो मजबूरी है, बीजेपी बहुत जरूरी है”! पूरा सवर्ण आज भी बीजेपी के साथ है, बीजेपी ने इतने वर्षों में पिछड़ों व दलितों के वोट बैंक में बड़ी सेंध लगायी है. चुनाव से पहले रणनीतिक तौर पर बीजेपी दबे स्वर में यह प्रचारित कर दे कि नित्यानंद राय मुख्यमंत्री बन सकते हैं तो यादवों का बड़ा वोट वैंक बीजेपी में शिफ्ट हो जा सकता है, इसका एक कारण यह भी है कि वोटरों का एक बड़ा तबका अराजनैतिक भी हुआ है.


लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं


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