दिल्ली की विभिन्न सीमाओं पर किसानों के धरने को तीन महीना या फिर ठीक-ठीक दिन में गिनें तो 96 दिन से अधिक हो गया है। संसद के बजट सत्र का पहला खंड भी पूरा हो गया है लेकिन किसान जिन मांगों को लेकर धरने पर बैठे थे, उस पर मोदी सरकार ने जरा सा भी ध्यान नहीं दिया है। हां, कहने व दिखाने के लिए मंत्रिसमूह की किसानों के साथ 11 दौर की बैठक जरूर हुई, लेकिन सरकार जिस रूप में अपनी बातों पर अड़ी हुई थी उसमें बातचीत का कोई समाधान निकलना भी नहीं था। इसके अलावा मोदी सरकार के मंत्री ही नहीं, बल्कि संसद भवन में जिस रूप में प्रधानमंत्री मोदी किसानों व किसानों के समर्थन में आए लोगों के ऊपर हमलावर थे वह इस बात को साबित करता है कि सरकार किसानों को किसी तरह की छूट देने के मूड में नहीं है।
यह पहली बार नहीं है कि सरकार आंदोलनकारियों की बातों के प्रति इतनी बेरूखी से पेश आ रही है। पिछले तीस वर्षों के भारतीय राजनीतिक इतिहास पर गौर करें, तो हम पाते हैं कि सरकार चाहे जो भी हो एक बार जब कोई बिल पास करवा लेती है या फिर वैसा कोई निर्णय ले लेती है तो उससे पीछे नहीं हटती है, भले ही जनता जो भी मांग करती हो या फिर विपक्षी दल उसका जिस रूप में भी विरोध कर रहे हों।
सरकार के इस रवैये को समझने के लिए हमें इतिहास के दो उदाहरणों पर नजर दौड़ाने की जरूरत है। इसका एक उदाहरण गुजरात का है जब वर्ष 1990 में वहां चिमनभाई पटेल जनता दल के मुख्यमंत्री थे। मध्य प्रदेश की नर्मदा घाटी में बांध बनाए जाने का फैसला हो चुका था और सरकार के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी। इस बांध के खिलाफ मेधा पाटकर स्थानीय जनता के अलावा देश की सिविल सोसाइटी को तैयार कर रही थीं जिसमें विकास के तथाकथित मॉडल को चुनौती दी जा रही थी। उस समय के तमाम बड़े पर्यावरणवादी व सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर से सहमत थे और वे भी इस बांध से होने वाले विनाश के बारे में नर्मदा बचाओ आंदोलन को यथासंभव मदद कर रहे थे। तथाकथित ढंग से इस बांध का सबसे अधिक लाभ गुजरात को मिलना था और हकीकत में सबसे अधिक नुकसान मध्यप्रदेश को होना था। इसलिए सामाजिक कार्यकर्ता चाहते थे कि अगर गुजरात सरकार पहलकदमी करे तो इस बांध को बनने से रोका जा सकता है।
इसी बात को लेकर नर्मदा जन विकास संघर्ष यात्रा के बैनर तले पांच हजार से अधिक आंदोलनकारियों ने सौ किलोमीटर की लंबी यात्रा तय की, जिसका नेतृत्व बाबा आम्टे कर रहे थे। उन आंदोलनकारियों को गुजरात के बॉर्डर पर रोक दिया गया। गुजरात सरकार ने बांध समर्थकों की ओर से समानांतर रैली-प्रदर्शन शुरू करवा दिया और पुलिस प्रशासन की मदद से वे नर्मदा आंदोलन के सत्याग्रहियों के खिलाफ़ हिंसा पर उतर आए। सरकार उन अहिंसक आंदोलनकारियों को परेशान करने के लिए ट्रकों में बैठाकर धरनास्थल से कई किलोमीटर दूर जंगल में छोड़ देती थी।
सरकार हर उस बेज़ा तरीके का इस्तेमाल कर रही थी जो पूरी तरह गैरकानूनी था। मेधा पाटकर के साथ-साथ सात अन्य आंदोलनकारियों ने 7 जनवरी 1991 को भूख हड़ताल शुरू कर दी। वैसे सरकार जो भी चाहे, लेकिन देशी मीडिया आज की तरह बंधक नहीं बनी थी, इसलिए इस आंदोलन की देश-विदेश में बहुत ज्यादा पब्लिसिटी हुई और 28 जनवरी को विश्व बैंक ने नर्मदा घाटी परियोजना को फंड मुहैया कराने से मना कर दिया। फिर भी गुजरात की सरकार टस से मस नहीं हुई। मध्य प्रदेश, गुजरात व महाराष्ट्र में कई सरकारें आईं और गईं, लेकिन परिणाम कुछ नहीं निकला।
इसी से मिलता जुलता उदाहरण पश्चिम बंगाल के सिंगुर व नन्दीग्राम का है। राज्य सरकार ने राज्य की सबसे बेहतर जमीन का अधिग्रहण टाटा को फैक्ट्री लगाने के लिए कर लिया। पश्चिम बंगाल में सरकार तो वामपंथी दलों की थी लेकिन एक उद्योगपति को जमीन मुहैया कराने के लिए गरीबों और किसानों की जमीन पर कब्जा जमाने का फैसला कर लिया। पूरे राज्य में सरकार के इस फैसले के खिलाफ आंदोलन शुरू हुआ। आंदोलन छोटा से बड़ा होता चला गया, लेकिन बुद्धदेव भट्टाचार्य की सरकार ने अपना फैसला वापस नहीं लिया।
इस विरोध प्रदर्शन का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि सरकार के इस फैसले का विरोध सीपीएम के एकाध बुद्धिजीवी को छोड़कर अधिकांश नामी-गिरामी वामपंथी बुद्धिजीवी कर रहे थे, फिर भी सरकार ने अपना फैसला वापस नहीं लिया। इस फैसले को तब बदला गया जब सीपीएम को हराकर ममता बनर्जी सत्ता पर काबिज हुईं। ठीक इसी तरह नर्मदा पर बांध के मामले में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पांच दिन के धरने के बाद खुद कहा था कि वे इस मामले पर विचार करेंगे, इसके बावजूद उन्हीं की पार्टी के चिमनभाई पटेल ने उनकी बात नहीं मानी। मौजूदा किसान आंदोलन को देखें तो इस बार केंद्रीय सत्ता को संचालित कर रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भीतर से किसानों के समर्थन की एक आवाज़ तक नहीं आयी है। गोंविदाचार्य इस मामले में अपवाद हैं, हालांकि वे संघ की सक्रिय राजनीति से दो दशक पहले ही अवकाश ले चुके हैं।
ऐसे में किसानों के साथ जिस बेअदबी से मोदी सरकार पेश आ रही है, इसका कारण सिर्फ यही रह जाता है कि किसी भी चुनी हुई सरकार के लिए जनता या जनता का हित कई वर्षों से सर्वोपरि नहीं रह गया है। सरकार की पहली प्राथमिकता हर हाल में कॉरपोरेट घरानों के हितों की सुरक्षा करना रह गया है। हां, जब वही पार्टियां सत्ता से बाहर होती हैं तो उनका टोन अलग होता है, लेकिन सत्ता में आते ही वे वही फैसले लेती हैं जिसके खिलाफ वे पहले रही थीं। या फिर जब कोई पार्टी सत्ता में आती है तो अपने संघर्ष के अतीत से मुक्त होती है और विश्व बैंक, आईएमएफ और कॉरपोरेट घरानों के हितों की रक्षा में लग जाती है।
अन्यथा क्या कारण है कि गुजरात में जनता दल की सरकार के मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल बड़े-बड़े बांध का समर्थन करते हैं और बाबा आम्टे व मेधा पाटकर जैसे बड़े समाजसेवियों को अपने राज्य की सीमा में घुसने नहीं देते हैं! इसी तरह गरीबों, किसानों व छोटे-मोटे बटाईदारों का हित देखने वाली वामपंथी पार्टी सीपीएम उन्हीं गरीब किसानों व मजदूरों की जमीन हड़पकर टाटा जैसे बड़े कॉरपोरेट को कार की फैक्ट्री लगाने के लिए दे देती है!
फिर सवाल उठता है कि किसान आंदोलन से हमें क्या सीख मिलती है? और दूसरा, क्या किसानों को इसी तरह वर्षों दिल्ली की सीमाओं पर बैठकर अपनी जिंदगी गुजारनी होगी जिसमें अभी तक ढाई सौ से ज्यादा लोग आज तक मारे जा चुके हैं?
इसका जवाब खोजना इतना भी आसान नहीं है, लेकिन दीवार पर लिखी इबारत यह बता रही है कि किसानों के इस आंदोलन ने विपक्षी दलों को यह सुनहरा अवसर दे दिया है कि वे सत्ताधारी दलों के खिलाफ पूरे देश में जनजागरण अभियान चलाएं और जिन चार राज्यों में अगले दो महीने चुनाव हो रहे हैं उसे केन्द्र सरकार बनाम किसान की ही नहीं बल्कि केन्द्र बनाम जनता की लड़ाई बना दें!
वैसे यह तो तय है कि मोदी सरकार किसी भी परिस्थिति में इन तीनों कानूनों को वापस नहीं लेने जा रही है। ऐसा क्यों न हो कि सभी विपक्षी दल मोदी सरकार के खिलाफ व्यापक गोलबंदी करके उसे सत्ताच्युत कर दें। विपक्षी दलों के लिए पंजाब व हरियाणा के किसानों ने तो यह अवसर मुहैया करा ही दिया है।