पंचतत्व: गंगा मैया की सवारी को मारने का दोष पूरे समाज के सिर पर है


आज सुबह अखबार पढ़ते हुए मेरी निगाह सिंगल कॉलम की एक खबर पर अटक गई. यह खबर कल ही ट्विटर पर निगाहों से गुजरी थी और इसका वीडियो विचलित करने वाला था. इस वीभत्स वीडियो में उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ में लड़कों ने एक डॉल्फिन को लाठी-डंडों और कुल्हाड़ी के वार से मार डाला था.

मुझे अपना बचपन याद आया कि जब हम झारखंड के अपने गृहनगर से मिथिला के अपने पैतृक गांव जाया करते थे, तो सिमरिया घाट के पास ट्रेन राजेंद्र पुल के जरिये गंगा नदी को पार करती थी और मां हाथ में रेजगारी देकर कहती थी कि पैसे नदी में फेंककर गंगा मैया का स्मरण करो, तो गंगा मैया सूंस के दर्शन करवाएंगी.

मेरी मां और दादी ने हमेशा हम लोगों को बताया कि गंगा मैया की सवारी गंगा की सूंस है (हालांकि बाद में संस्कृत श्लोकों में यह सवारी घड़ियाल है यह पता चला. पर कोई बात नहीं, घड़ियाल पर भी विलुप्ति की वैसी ही विपदा आई हुई है). लोकमानस में गंगा की सवारी सूंस ही थी, जिसको अंग्रेजी में हम डॉल्फिन कहा करते हैं.

बहहाल, प्रतापगढ़ वाला वीडियो सोशल मीडिया के इस दौर में फटाकदेनी से वायरल हुआ और तीनों युवक गिरफ्तार करके जेल भेज दिए गए. एनडीटीवी की वेबसाइट के मुताबिक, यह घटना 31 दिसंबर की है.

दरअसल, प्रतापगढ़ जिले में नवाबगंज इलाके के कोथरिया गांव की शारदा नहर में गंगा की एक डॉल्फिन बहती हुई आ गयी थी और उसे कोई भयानक मछली समझकर गांव वालों ने बेरहमी से पीटकर मार डाला.

मेरे मन में एक सवाल यह भी उठा कि आखिर उन युवकों का क्या दोष है? क्या किसी भी अनजान जीव को अचानक देखकर आप सिहर नहीं जाते? क्या सदियों से चली आ रही परिपाटी के लिहाज से गंगा की सूंस के बारे में उनको किसी ने बताया था? क्या कोई आज के जमाने में गाय को खुलेआम लाठी मारने की हिम्मत करता है? आप लुप्त होते जा रहे सूंस को पवित्र क्यों नहीं बताते? मुझे लगता है कि जागरूकता की कमी थी, वरना गांव के वह युवक ऐसी हिमाकत नहीं करते.

असल में, गंगा की सूंस का यह कत्ल समाज के तौर पर हमारी नाकामी की निशानी भी है. गांववालों ने उसे भयानक मछली समझ लिया, सचाई यह है कि वह मछली है ही नहीं. हम कई दफा इस तरह से उन चीजों पर प्रतिक्रिया जाहिर करते हैं जो असल में कुछ और होती हैं और हम उसे समझ कुछ और लेते हैं. हमने समाज के तौर पर रियलिटी चेक करना ही छोड़ दिया है. तो साहब, मकतूल जीव मछली नहीं, स्तनधारी था जो अपने बच्चों को जन्म देती है. और फोकट में मारी गई.

दो करोड़ साल पहले धरती पर आ चुके इस प्राणी ने खुद को बदलने की भी कोशिश की, पानी से बाहर निकल कर जमीन पर रहने की आदत डालनी चाही. पर लाख अभ्यास कर लें, हर चीज हर किसी को भा नहीं सकती. आप मुझे लाख प्रैक्टिस करा लो, मैं किशोर कुमार की तरह नहीं गा सकूंगा. तो धरती का वातावरण डॉल्फिन को रास नहीं आया और फिर गईल डॉल्फिन पानी में.

किशोर कुमार का जिक्र आया तो बताते चलें कि डॉल्फिन का गला गजब का है, जो 600 अलग किस्मों की आवाजें निकाल सकता है. समझिए कि किशोर कुमार नहीं तो डॉल्फिन जलीय जीवों का जॉनी लीवर जरूर है. परफेक्ट मिमिक्री आर्टिस्ट.

डॉल्फिनें सीटी बजा सकती हैं, बिल्ली की तरह म्याऊं-म्याऊं भी कर सकती हैं और मुरगे की बांग की नकल भी कर सकती हैं.

2009 में गंगा की डॉल्फिन (सूंस) को राष्ट्रीय जलीय जीव घोषित किया गया और भारत सरकार ने डॉल्फिन की शख्सियत को मान्यता दी है. इस तरह हिंदुस्तान दुनिया का ऐसा पहला देश रहा, जिसने डॉल्फिन की बुदि्धमत्‍ता और आत्मचेतना को मान्यता दी. 

वैसे पर्यावरणविद कहते हैं कि किसी नदी में डॉल्फिन का होना उसके पारिस्थितिकी तंत्र के स्वस्थ होने की ओर इशारा करता है.

मई, 2018 में गंगा संरक्षण मंत्री नितिन गडकरी ने एक रिपोर्ट जारी की थी. यह रिपोर्ट गंगा नदी के जलीय जीवों की स्थिति पर थी. स्टेटस ऑफ कन्जर्वेशन ऑफ सेलेक्ट एक्वैटिक स्पीशीज़ नामक इस रिपोर्ट में लिखा है कि 19वीं सदी में जिस डॉल्फिन की संख्या करीबन 10,000 थी, वह 2014 में घटकर 3,526 रह गई. रिपोर्ट में इशारा किया गया कि 2012 से 2015 के बीच स्थिति नियंत्रण में आई है.

यह रिपोर्ट एक चिंताजनक बात की ओर भी इशारा करती है कि डॉल्फिनें अब गंगा और इसकी बड़ी सहायक नदियों में ही सीमित रह गई हैं और हरिद्वार-बिजनौर बैराज, जो हरिद्वार से करीब 100 किलोमीटर नीचे है, से पूरी तरह गायब हो गई हैं.

सूंस या कहें डॉल्फिनों को लेकर सरकारी मशीनरी का दुचित्तापन भी अद्भुत ही है. एक तरफ डॉल्फिन राष्ट्रीय जलीय जीव है, दूसरी तरफ लोकमन में गंगा मैया की सवारी है, तीसरी तरफ पर्यावरणवादियों का रुख है कि जैसे जंगल में शेर का ओहदा है वैसा ही गंगा में डॉल्फिन का है. अब डॉल्फिनों की दिक्कत ये है कि रहें तो रहें कहां. गंगा नदी में पानी कम हो रहा है, प्रदूषण की मार अलग है. इतना काफी नहीं था तो गंगा नदी में बनारस से हल्दिया तक सस्ते जलमार्ग के विकास पर भी काम हो रहा है.

देश में राष्ट्रीय जलमार्गों के लिए 111 अंतरदेशीय जलमार्गों की निशानदेही हुई थी. अपने एक लेख में पंकज रामेंदु ने लिखा है, “इनमें से 38 जलमार्ग डॉल्फिनों के घर से गुजरते हैं. जलमार्ग विकास परियोजना का लक्ष्य गंगा के वाराणसी और हल्दिया के बीच ऐसे जहाज चलाना है जो 1500 से 2000 टन माल ढो सके. इन मालवाहक जहाजों से निकलने वाला तेल, धुआं गंगा को प्रदूषित करेगा, ड्रेजिंग की समस्या और बढ जाएगी और साफ है कि इसका असर गंगा में रहने वाले जीवों पर पड़ेगा.”

अब, बताइए जरा, सरकार टुच्चे से सूंस के लिए जलमार्ग का काम तो नहीं रोक सकती है न! और विकास के काम में हम सरकार की मंशा पर भी शक नहीं कर सकते. ऐसे में प्रतापगढ़ के उन नौजवानों पर मुकदमा चलाकर क्या होगा? उनके गांव कोई पोस्टर थोड़े ही लगा था कि यह जीव लुप्तप्राय है और इसको न मारें… और क्या गंगा की डॉल्फिन पर आपने उनकी किताबों में कुछ पढ़ाया था?

प्रतापगढ़ के उन नौजवानों पर मुकदमा चलाना हमारे समाज के परिपाटी से, परंपराओं से और लोककथाओं से कटने की मिसाल है. गलती लड़कों की नहीं, इस समाज की है. एक समाज के तौर पर हमने गंगा मैया की सवारी को पीटकर मार डाला है, गंगा मैया हमें कभी माफ नहीं करेगी.



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