साल 2017 की बात है जब कर्नाटक के गुंदुलुपेट-ऊटी मार्ग पर बांदीपुर नेशनल पार्क में करीब 715 वर्ग किलोमीटर जंगल जलकर स्वाहा हो गया था. वजह थी लैंटाना झाड़ी, जो समूचे जंगल में छा गयी थी. लैंटाना नाम शायद आपके लिए अपरिचित हो, पर इसकी झाड़ी से अपरिचित नहीं होंगे. झारखंड में हम लोग इसको पुटुस कहते हैं.
लैंटाना अमूमन गर्मियों में सूख जाती है और बरसात में इसकी नयी पौध लहलहाने लगती है. यह देश भर के शहरों-गांवों में बेहद आम है. विदेशी मूल की लैंटाना हमलावर नस्ल की झाड़ी है जो अपने आसपास की स्थानीय वनस्पतियों को खत्म कर देती है.
असल में लैंटाना सन् 1805 या 1807 में ईस्ट इंडिया कंपनी के कलकत्ते के बॉटनिकल गार्डन में एक सजावटी पौधे के तौर पर लायी गयी थी. यह मूलतः दक्षिण अमेरिकी पौधा है. महज 200 साल में खूबसूरत फूलों वाली यह झाड़ी आज की तारीख में अंडमान-निकोबार, केरल से लेकर पूर्वोत्तर हो या गुजरात या हिमालयी ऊंचाइयां, देश के सभी राज्यों और भौगोलिक क्षेत्रों में न सिर्फ विद्यमान है बल्कि जंगलों पर कब्जा जमा रही है.
हाल ही में अखबारों में खबर आयी कि राजाजी नेशनल पार्क के 55 फीसद भूभाग में लैंटाना की झाड़ियां फैली हुई हैं. यही नहीं, न्यूज़ वेबसाइट द वायर ने एक अध्ययन के हवाले से खबर प्रकाशित की कि लैंटाना ने देश के बाघ अभयारण्यों में 40 फीसद भूभाग पर कब्जा कर रखा है.
लैंटाना की जद में सबसे अधिक आने वाले इलाकों में शिवालिक पहाड़ियां, मध्य भारत और दक्षिण- पश्चिमी घाट की पहाड़ियां हैं.
आपके मन में सवाल उठ रहा होगा कि आखिर एक झाड़ी से डरने की जरूरत क्या है. जरूरत इसलिए है क्योंकि तेजी से पांव पसार रहे लैंटाना के चलते पारिस्थितिकी तंत्र के लिए अनुकूल घास खत्म होती जा रही है. इसका सीधा असर वन्यजीवों के भोजन चक्र और प्रवास पर पड़ रहा है.
लैंटाना बदलती जलवायु के साथ खुद को बहुत तेजी के साथ अनुकूलित कर लेती है इसलिए यह ऊंचे तापमान (यह आपको राजस्थान में भी दिखेगी, यह कांटेदार झाड़ी है) और यह अधिक नमी को भी सहन कर सकती है. अब इस नस्ल ने देश के 3 लाख वर्ग किमी जंगलों के लिए खतरा खड़ा कर दिया है.
यही नहीं, इस झाड़ी को दुनिया के दस सबसे खतरनाक हमलावर नस्लों (इनवेसिव स्पीशीज़) में शामिल किया गया है और खासकर भारत के लिए इसका खतरा बहुत अधिक है. यह न सिर्फ जल और संसाधनों के लिए स्थानीय पौधों के साथ मुकाबला करती है बल्कि यह मिट्टी के पोषक तत्वों के चक्र को भी बदल देती है. इसकी पत्तियां कोई जानवर खा ले तो उसे डायरिया हो सकता है, उसका लिवर फेल हो सकता है और यहां तक कि उस जानवर की मौत का कारण भी बन सकता है.
दिलचस्प चीज यह है इस झाड़ी की वजह से भी अपने देश में हरित क्षेत्र ज्यादा दिखने लगा है. उपग्रह से लिए चित्रों में लैंटाना की मौजूदगी वाले इलाके को भी वन क्षेत्र मान लिया जाता है, पर असली मुसीबत यह नहीं है.
असली मुसीबत है कि लैंटाना को रोकना बहुत मुश्किल है. इसके बॉल बियरिंग की गोलियों जैसे फलों का चिड़ियों द्वारा प्रकीर्णन होता है, लेकिन लैंटाना जड़ों से भी फैलती है. ऐसे में जड़ से उखाड़कर ही इसका विस्तार रोका जा सकता है, लेकिन इसकी कीमत ज्यादा बैठती है.
1808.03160एक शोध में किए गए एक अनुमान के मुताबिक एक वर्ग किलोमीटर में फैले जंगल में लैंटाना का विस्तार रोकने की लागत बैठती है करीब 14 लाख रूपये.
लैंटाना में आग लगाना दूसरा विकल्प है पर ऐसी आग अनियंत्रित भी हो जाती है और उसके साथ बहुत सारी जैव-विविधता भी स्वाहा हो जाती है. बात वहीं अटक जाती है- लैंटाना को रोकने की लागत.
देश में गाजर घास, जलकुंभी और हजार तरह की दूसरी हमलावर नस्लें फल-फूल रही हैं. कुछेक पर्यावरणविदों को छोड़कर न तो किसी को इसकी जानकारी है, न परवाह. सरकार को तो बिल्कुल भी नहीं. दिल्ली के फ्लाइओवरों के नीचे जिस तरह इसको सजावट की तरह उद्यान विभाग लगा रहा है, उससे तो लगता है कि जंगलों को साफ करने वाली इस खलनायक किस्म की हरियाली से सरकार अंदर ही अंदर मुदित मन होगी.