किसी भी व्यक्ति का जीवन केवल व्यक्तिगत अनुभवों का संग्रह नहीं होता, बल्कि उसके समय के विचारों, मूल्यों और सामाजिक परिस्थितियों का गहन चित्रण भी होता है। इतिहास गवाह है कि मनुष्य के अनुभव यानी उसके जीवन-संघर्ष, दर्द और पीड़ा के जो व्यक्तिगत अफसाने होते हैं वे ही सबसे पहले सामूहिक बदलाव की यात्रा पर उसे ले जाने का बायस बनते हैं। निजी और सामूहिक की इस अंतरक्रिया में मानवीय कार्रवाइयां पुल का काम करती हैं।
इटली के मानवविज्ञानी लियोनार्डो वेर्जारो का ताजा शोध प्रबंध निजी जीवन अनुभवों और सामाजिक परिवर्तन के बीच एक नक्शानवीसी है, जिसके एक सिरे पर मेरा जीवन है तो दूसरे सिरे पर बनारस के दलितों का सामूहिक जीवन। इस शोध पर उन्होंने हाल ही में मिलान विश्वविद्यालय से मानवशास्त्र में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की है।
इटली के वोघेरा में जन्मे लियोनार्डो की थीसिस का विषय है ‘’कंस्ट्रक्शन एंड ट्रांसफॉर्मेशन्स ऑफ द सेल्फ इन वाराणसी: एथनोग्राफी ऑफ ए ह्यूमनिटेरियन एक्सपीरिएंस’’। इस शोध के लिए लियोनार्डो 2023 में अक्टूबर से दिसंबर के बीच बनारस में रहे और उन्होंने बहुत सघन फील्डवर्क किया।
निजी प्रसंग, सामूहिक नियति
लियोनार्डो के किए एथनोग्राफिक अध्ययन की जड़ें बनारस के दलित समुदायों के दैनंदिन अनुभवों में निहित हैं। पुलिस बर्बरता, उत्पीड़न, सामाजिक बहिष्करण पर दलितों की गवाहियों और संवादों के सहारे वे एक ऐसा आख्यान रचते हैं कि ये गवाहियां खुद-ब-खुद एक रूपांतरकारी प्रक्रिया में तब्दील हो जाती हैं। यह प्रक्रिया अपनी जीवन-कथा सुनाने वाले को एक ओर सशक्त करती है, तो दूसरी ओर उसके दुख-दर्द को निजी व सामूहिक बदलाव के उत्प्रेरक में ढाल देती है।
संयोग से लियोनार्डो के अध्ययन में मानवाधिकार जन निगरानी समिति हमराह रही है, जिसने अपने लोक विद्यालय (फोक स्कूल), टेस्टीमोनियल थेरपी, स्टोरीटेलिंग के माध्यम से बरसों यही काम किया है। इसलिए लियोनार्डो के शोध और पीवीसीएचआर के तजुर्बे का एक स्वाभाविक रिश्ता बनता था।
दूसरा संयोग यह था कि लियोनार्डो की कहानी के केंद्र में मैं खुद एक केंद्रीय किरदार की तरह हूं। लियोनार्डो का शोध मेरे निजी और सार्वजनिक जीवन के बीच रिश्ते को समझने का एक प्रामाणिक दस्तावेज बन चुका है। वे मेरी जीवन-कथा के बहाने ‘’रेजिस्टेंट वाइटलिटी’’ की अवधारणा को रखते हैं। इसका अर्थ है प्रतिरोधी प्राणशक्ति, यानी वह प्रतिरोध जो निजी दुख को सार्वजनिक मानवीय कार्रवाई में तब्दील कर दे।
मेरे जीवन के निजी प्रसंगों को लियोनार्डो ने एक लेन्स की तरह इस्तेमाल कर के यह जानने की कोशिश की है कि कैसे व्यक्ति अपनी प्रतिकूलताओं के पार जाकर बदलाव का वाहक बन सकता है। उनके शोध में शामिल कुछ प्रसंग इस लिहाज से चर्चा के योग्य हैं।
निजी अनुभवों से मूल्यों तक सफर
लियोनार्डो के शोध प्रबंध में मेरे जीवन की कहानी के कुछ ज्ञात और अज्ञात पहलू हैं। उन्हीं पहलुओं से मिलकर मेरा जीवन बना।
जैसे, मेरे दादा श्री शांति कुमार सिंह गांधीवादी विचारधारा के सच्चे अनुयायी थे। उन्होंने 1941 में ब्रिटिश सरकार की नौकरी छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कदम रखा। उनका जीवन सत्य, अहिंसा और समाज सेवा के मूल्यों का प्रतीक था। दूसरी ओर मेरे पिता श्री सुरेंद्र नाथ सिंह साम्यवाद से प्रेरित थे। उन्होंने स्टालिन और माओ की विचारधाराओं को अपनाया और समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने की दिशा में प्रयासरत रहे।
बचपन में मैंने दादा से प्रेम, करुणा और अहिंसा सीखी, जबकि पिता से कठोरता, अनुशासन और समाज की संरचनात्मक चुनौतियों का सामना करने की प्रेरणा मिली। इन दो विचारधाराओं के बीच का द्वंद्व मेरे जीवन का अभिन्न हिस्सा कैसे बना, लियोनार्डो की एथनोग्राफी इसे तफ़सील से बताती है।
इस रूपांतरकारी जीवन-कथा में पिता और दादा के साथ कई और किरदार हैं, जैसे मेरी मां, दादी और चाचा। दादी यशोदा देवी की यह शिक्षा, कि “स्थानीय ही सार्वभौमिक है,” मेरे जीवन का आधार बनी। मेरे पेशेवर और सामाजिक कार्यों के केंद्र में बनारस का होना संयोग नहीं, दादी की शिक्षा से आया है।
मेरी मां ने 2002 में एक वसीयत तैयार की। उसमें मेरा और मेरी पत्नी का नाम शामिल नहीं था। यह निर्णय परिवार में मतभेदों को गहराई तक ले गया। अंततः मां ने वसीयत में संशोधन कर मेरे पुत्र को शामिल किया। इस संघर्ष ने मुझे यह सिखाया कि परिवार और समाज के प्रति हमारी जिम्मेदारी निभाने में गरिमा और धैर्य को बनाए रखना कितना महत्वपूर्ण है। संस्था चलाने में यह शिक्षा अब भी काम आ रही है, जहां का एक-एक सदस्य परिवार के अंग जैसा है।
युद्ध और संघर्ष के सबक
मेरे जीवन का सबसे पहला संघर्ष तब सामने आया जब 1985 में हाई स्कूल में उत्कृष्ट प्रदर्शन के बावजूद, मुझे मेरे पिता के घर से निकाल दिया गया। यह केवल आर्थिक कठिनाई का परिणाम नहीं था, बल्कि वैचारिक मतभेदों का भी प्रतिबिंब था। यह घटना मेरे जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ थी, जिसने मुझे स्वावलंबन की ओर प्रेरित किया।
आयुर्वेदाचार्य के दौरान, मुझे साइकिल से वाराणसी से भदोही आना-जाना पड़ता था। यह यात्रा कठिन थी। फिर इंटर्नशिप के दौरान मैंने सरकारी अस्पताल में काम किया जहां आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद मैंने अपनी शिक्षा पूरी की। इस अवधि ने मुझे यह सिखाया कि संघर्ष के समय भी अपने आदर्शों और लक्ष्यों से समझौता नहीं करना चाहिए।
युद्ध कभी समाधान नहीं होता, फिर भी युद्ध युद्ध ही है। जो इसे छूता है, उस पर अमिट निशान छोड़ जाता है। युद्ध शहीदों के परिवारों के लिए अपार पीड़ा लेकर आता है, जिनके बलिदान से वे स्वतंत्रताएं सुरक्षित होती हैं, जिन्हें हम अक्सर हल्के में ले लेते हैं।
हाल ही में श्रुति और मैंने अपने चाचा श्री राम औतार सिंह को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की, जो 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान अपनी जान न्योछावर करने वाले सच्चे नायक थे। उनके सर्वोच्च बलिदान को याद करना अत्यंत भावुक कर देने वाला अनुभव है, विशेष रूप से यह जानकर कि मेरा जन्म 1970 में हुआ था, यानी उनकी शहादत से मात्र एक वर्ष पहले। सेना संख्या 13916154 के धारक चाचा राम औतार सिंह ने ग्राम धौरहरा, वाराणसी से आते हुए सेना में SEP/SKT राम औतार सिंह के रूप में सम्मानपूर्वक सेवा की। उन्होंने 18 फरवरी 1969 को सेना में प्रवेश किया और 1971 के युद्ध में भाग लेते हुए अदम्य साहस और निष्ठा के साथ अपने कर्तव्य को निभाया।
4 जनवरी 1972 को 92 बेस अस्पताल में गंभीर गोला-बारूद के घावों के कारण उनका निधन हो गया। फिर भी, उनकी अडिग भावना ने देशभक्ति की एक अमिट विरासत छोड़ी। उनकी कहानी युद्ध की व्यक्तिगत लागत का मार्मिक स्मरण है, जो हमें शांति के लिए प्रयास करने और उन वीरों को सम्मानित करने के लिए प्रेरित करती है जिन्होंने सर्वोच्च बलिदान दिया।
इसी तरह मेरे दादा के छोटे भाई कैप्टन भानु प्रताप सिंह ने 1962, 1965 और 1971 के युद्धों में देश की सेवा की। उनका जीवन अनुशासन, देशभक्ति और नेतृत्व का प्रतीक है। उनके आदर्श मेरे जीवन में प्रेरणा का स्रोत रहे हैं।
खासकर, मेरे पिता और दादा के बीच के वैचारिक मतभेद ने मेरे दृष्टिकोण को गहराई से प्रभावित किया।
- पिता की कठोरता: उन्होंने मुझे समाज की संरचना को समझने और चुनौती देने की प्रेरणा दी।
- दादा की करुणा: उन्होंने यह दिखाया कि सच्चा परिवर्तन संवाद और सहानुभूति से आता है।
इन दोनों के बीच संघर्ष ने मुझे यह समझने में मदद की कि विचारधारा का संघर्ष हमें विचारशील और न्यायप्रिय बनाता है। गांधीवादी सिद्धांतों और साम्यवाद की संरचनात्मक चुनौतियों के बीच मेरी यात्रा यह सिखाती है कि युद्ध और संघर्ष हमें कमजोर नहीं, बल्कि मजबूत बनाते हैं।
बदलाव की विचारधारा
विचारधारा का अनुसरण केवल एक पक्ष है। सही और गलत के बीच का अंतर करना और इसे अपने दृष्टिकोण में शामिल करना ही वास्तविक बदलाव का आधार है। इसलिए मेरे जीवन की यात्रा, संघर्ष और सीख केवल मेरे अनुभवों का विवरण नहीं है। यह समाज में परिवर्तन लाने की प्रतिबद्धता का स्रोत है।
लियोनार्डो वेर्जारो द्वारा किया गया शोध इसी का प्रमाण है कि व्यक्तिगत संघर्ष और सामाजिक प्रतिबद्धता का संगम वैश्विक प्रेरणा का स्रोत कैसे बन सकता है। वे मेरे निजी जीवन के साथ दलितों की जीवन कथाओं को बहुत महीन ढंग से बुनकर एक ऐसा आख्यान रचते हैं जहां एक-दूसरे के अनुभव साझा करना करुणा को जन्म देता है और मानवीय कार्रवाइयों में एकजुटता को उभारता है।
निजी दुख-दर्द और सामूहिक कार्य को एक सेतु की तरह जोड़ने का जो काम लियोनार्डो ने अपने शोध में किया है, वह अस्मिताओं को गढ़ने और बदलाव के लिए एकजुटताएं कायम करने में स्टोरीटेलिंग की जबरदस्त भूमिका को रेखांकित करता है।
लियोनार्डो का वाराणसी के दलितों पर काम एक चमकदार उदाहरण है कि मानवविज्ञान की जड़ें यदि निजी करुणा और सामूहिक कार्रवाई में हों तो वह कहीं ज्यादा न्यायपूर्ण और करुणामय जगत की राह रोशन कर सकता है। लियोनार्डो का बनारस में किया फील्डवर्क पूरी दुनिया के लिए निजी और सार्वजनिक के बीच संबंध को समझने का एक दस्तावेज है।