हर्फ़-ओ-हिकायत: सौ साल में गाँधी के आदर्शों का अंतर और उनके नये बंदर


नौ जनवरी 1915 को जब मोहनदास करमचंद गांधी ने मुंबई के अपोलो बंदरगाह पर कदम रखा तब उनकी उम्र 45 साल थी। पिछले दस साल से ज्यादा समय से वे दक्षिण अफ्रीका में नटाल इंडियन कांग्रेस के जरिये भारतीयों के अधिकार की लड़ाई लड़ रहे थे। तब वहां भारतीयों को काला कुली कहा जाता था। उस जमाने में सिर्फ ब्रिटिश सरकार के खास आदमियों और राजा महाराजाओं को ही अपोलो बंदरगाह पर उतरने की अनुमति दी जाती थी। गांधी को ये सम्मान सर फिरोजशाह मेहता, बीजी हॉर्निमेन और गोपाल कृष्ण गोखले की सिफारिश पर दिया गया था। गांधी का स्वागत करने तब गोपाल कृष्ण गोखले पूना से  बंबई आए थे। एक स्वागत समारोह की अध्यक्षता फिरोज शाह मेहता ने की थी तो दूसरे समारोह में बाल गंगाधर तिलक मौजूद थे।

गांधी जब भारत आए उससे पहले वह अफ्रीका में अंग्रेजों के कई कानून खत्म करा चुके थे। 1894 में अफ्रीका के नटाल प्रदेश की विधानसभा में भारतीयों के वोटिंग के अधिकार वापस लिए जाने का बिल आया। गांधी ने पहली बार इस बिल के विरोध में हस्ताक्षर अभियान चलाया। अपने अधिकार के लिए आंदोलन करने की पहली घटना थी। इससे पहले लोग हथियारों से सत्ता परिवर्तन करते थे। अफ्रीका में अंग्रेजों के कई कानून बदलवा कर 1915 में गांधी भारत पहुंचे थे। तब उनकी उम्र 45 साल थी। नटाल कांग्रेस के जरिये उन्होंने एकता और अनुशासन के साथ भारतीयों में स्वच्छता अभियान चलाया था।

आइए, अब 2014 के भारत में चलते हैं। उस साल प्रचंड बहुमत से जीतकर सरकार बनाने वाली बीजेपी के नरेन्द्र मोदी ने सबसे पहले अपने समर्थकों को जो काम सौंपा था वह कुछ और नहीं, स्वच्छ भारत मिशन ही था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस एक सूत्र से न सिर्फ जनता के मिजाज को दुरूस्त करने का काम किया बल्कि ‘सब चलता है’ की मानसिकता वाले सिस्टम को टाइट करने का काम भी शुरू किया। देखते देखते स्वच्छता भारत की जनता की दिनचर्या और सिस्टम का अंग बन गया। मुझे नहीं लगता है कि सरकार के सातवें साल में ऐसा कोई भाजपाई या मोदी भक्त होगा जिसे इस बात से इंकार होगा।

भारत के लुंजपुंज लोगों को स्वच्छता के प्रति गंभीर करने वाले इस आंदोलन का प्रतीक गांधी जी का ऐनक है। यहीं से सवाल उठता है कि जो प्रतीक आजादी के 70 साल बाद भी जनमानस को दुरूस्त करने में कारगर साबित होता है; जिस स्वच्छता और खादी आंदोलन के जरिये एक शख्सियत ने आज से सौ साल पहले भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना पैदा की थी, उस शख्सियत के उसी आंदोलन को 100 साल बाद राष्ट्रवाद के नये नारे के साथ जनता को पुन: मंत्रमुग्ध कर दिया जाना अपने आप में दुर्लभ है।

आश्चर्य इस बात का है कि कुछ दुर्लभ प्राणियों को गांधी जी का यह प्रभाव इस कदर खलता है कि वे किसी भी स्तर की बात लिख-पढ़ सकते हैं। सि‍र्फ यह साबित करने के लिए कि गांधीजी की वजह से ही भारत का बंटवारा हुआ था या उनकी वजह से ही भगत सिंह को फांसी हुई थी, आदि इत्यादि।

खादी और स्वच्छता भारत की वह कड़ी है जिसके बल पर सौ साल पहले गांधीजी ने भारतीयों को आत्मनिर्भरता और अनुशासन का पहला पाठ पढ़ाया था। अनुशासन इसलिए क्योंकि पिछले सात सौ साल से विदेशी शासकों के शासन में भारतीय लोगों में एकता का कोई सूत्र नहीं था। खादी इसलिए क्योंकि आय के साधन के साथ आत्मनिर्भरता और वस्त्र की एकरूपता से अनुशासन और संगठन का स्वरूप स्थापित होता है। अब ये कोई अनपढ़ भी समझ सकता है कि जब आप सात सौ साल से गुलाम थे और आपके तथाकथित राजा विदेशी शासकों के करदाता थे तो उस वक्त एक अखिल भारतीय एकता और समानता के लिए क्या किया जा सकता था। आम जनता के पास वोट की ताकत तो थी नहीं जो शासक बदल देती, न ही सोशल मीडिया था जो तलवार का जवाब क्रांतिकारी कविताओं से देता।

हो सकता है कि इतना पढ़ने के बाद भी कुछ कुतर्क पेश हो, लेकिन कुतर्कियों को ये बताना पड़ेगा कि फौज और राष्ट्रभक्ति तो पृथ्वीराज चौहान, राणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, रानी लक्ष्मीबाई के पास भी थी फिर वे देश को इस्लाम से क्यों बचा नहीं सके। कुतर्क बतियाने वाले कहते हैं हिन्दू एकजुट नहीं रहते हैं और बहुत से राजा विदेशियों के साथ मिलकर गद्दारी किये। अगर यह कुतर्क सही भी मान लिया जाए तो गांधीजी ने गद्दारों के बीच स्वच्छता और खादी के बहाने एकता और अनुशासन का जो सिस्टम खड़ा किया उसने एक नयी भारतीयता को जन्म दिया। 1947 के बाद उसी भारतीयता ने देश में लोकतांत्रिक सरकार बनायी न कि राजशाही को स्वीकार किया।

आजादी के सत्तर साल बाद भी एकता अनुशासन का वही भाव कायम है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के स्वच्छता अभियान में जनमानस के दिलोदिमाग पर गहरी छाप छोड़ी। घर-घर स्वच्छता और कार्यालयों में स्वच्छता के बोर्ड लग गए। गलती से कोई सड़क पर थूक दे तो बच्चे टोक देते हैं। इसके बावजूद मोदी समर्थक गांधी जी से इतनी घृणा क्यों रखते हैं, ये बड़ा सवाल है।

1915 में जब न व्हाट्सअप था न फेसबुक और न ही हिन्दू मुस्लिम वोटबैंक का सवाल था, उस वक्त अविभाजित भारतीय उपमहाद्वीप की 360 रियासतों के राजा और नायब और नवाब ब्रितानिया हुकूमत के झंडे तले थे (जैसा कि बताया जाता है आजाद भारत के प्रथम गृहमंत्री ने सख्ती से इतनी रियासतों का भारत में विलय कराया था)। भारत के लोग मुगलों को बादशाह और स्थानीय स्तर पर अपने राजा को माई-बाप मानकर किसी अवतार का इंतजार करने लगे जो गोरों के कानून और देसी जमींदारों के जुल्म से उन्हें आजादी दिलाता। 1900 तक मुगलों को इल्हाम हो गया कि अब इस मुल्क पर राज वापस तो नहीं आएगा। समय बीतने के साथ अरबी फारसी भाषा का वर्चस्व समाप्त करने के लिए अंग्रेजों द्वारा स्थापित अंग्रेजी शिक्षा के खांचे से देश में ढेर सारे बैरिस्टर बन गए और उन्होंने आजादी के लिए अंग्रेजों से गोलमेज सम्मेलन करना शुरू किया। 1915 आते-आते इन बैरिस्टरों की भी सांसें उखड़ने लगीं। लिहाजा दक्षिण अफ्रीका में नस्लभेद आंदोलन की अगुवाई करने वाले बैरिस्टर मोहनदास करम चंद गांधी से संपर्क साधा और गांधी भारत वापस आए एक उम्मीद को पूरा करने के लिए- जनता की उस उम्मीद को पूरा करने कि कोई तो उन्‍हें अंग्रेजी हुकूमत से आजादी दिलाएगा।

गांधी ने भारत में आंदोलन की संभावनाओं को तलाशा, तब तक कांग्रेस सिर्फ वार्षिक सम्मेलन तक ही सीमित थी। 4 फरवरी 1916 को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना पर पहली बार उन्होंने सार्वजनिक भाषण दिया। उन्होंने कहा कि यहां सभी हिन्दी जानते हैं फिर भी मंच पर बैठे लोग अंग्रेजी में भाषण दे रहे हैं। राजा महाराजाओं को आभूषण में लदा देखकर गांधी जी ने कहा- बेहतर होता इसे गरीब जनता के कल्याण में लगाते तो अच्छा रहता। कार्यक्रम के सूत्रधार थे हिन्दू महासभा के मदन मोहन मालवीय जी।

कानून और वकालत के पूरे सिस्टम के खिलाफ तब बैरिस्टर ही समझते थे और बैरिस्टर ही लड़ते थे, लेकिन बैरिस्टर गांधी ने जनता की बात को कहना शुरू किया। इसकी शुरूआत दो और बैरिस्टरों के साथ करते हैं- एक पटना के बैरिस्टर राजेन्द्र प्रसाद जो नील किसानों के वकील थे और दूसरे सरदार वल्लभ भाई पटेल जो खेड़ा किसान आंदोलन वकील थे। गांधी जी का सत्याग्रह आंदोलन इन्हीं दो किसान आंदोलनों पर निर्भर था। अवध का एका किसान आंदोलन भी इसका महत्वपूर्ण अंग था। 1857 में तोप, तलवार, बंदूक से लड़ी गयी आजादी की जंग 1920 में आंदोलन में बदल गयी। अंग्रेजों के दांव पेंच का जवाब अब देने के लिए अब जन आंदोलन शुरू हो गया। जल्दी ही अंग्रेजी हुकूमत और जनता के बीच सेफ्टी वॉल्व का काम करने वाले चापलूस दल बदलू राजा महाराजाओं, नवाबों, जमींदारों का महत्व खत्म होने लगा। नतीजतन, 1932 में इंडिया काउंसिल का चुनाव होने लगा और जनता के वोट से प्रांतीय सरकार बनने लगी और ताकत बंदूक और तलवार से नहीं जन बल से तय होने लगी। इसका सबसे बड़ा नुकसान मुगल सल्तनत के आखिरी दावेदारों को लगा। यहीं से अलग मुल्क की मांग उठी।       

आज जब युवाओं का एक तबका मुगल, अंग्रेजी या वामपंथी इतिहास-लेखन का विरोध करते हुए गांधीजी के लिए अपशब्दों का प्रयोग करता है तो उन्हें एक सवाल खुद से करना चाहिए कि बाल गंगाधर तिलक, मदन मोहन मालवीय, वल्लभभाई पटेल और राजेन्द्र प्रसाद जैसी शख्सियतों ने उस दौर में क्यों गांधी को अपना नेता चुना? क्या वे महान नेता तब गलत थे या 2021 में दुर्लभ समझदार टाइप के सोशल मीडिया वाले युवा गलत हैं?



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