कृषि कानूनों के विरोध के चलते किसान तो चर्चा में हैं ही, पंजाब और हरियाणा भी चर्चा में हैं. हरियाणा और पंजाब में खेती को लेकर चिंताएं बहुआयामी हैं. इनमें से एक आयाम पानी का ही है. पानी पर चर्चा करने से पहले मैं अपने उन फेसबुक मित्र का जिक्र जरूरी समझता हूं, जिन्होंने अपना स्टेटस लिखा कि ट्यूबवेल के पानी में उगाया हुआ धान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है.
वैज्ञानिक तौर पर इस बात को कोई सुबूत नहीं है कि ट्यूबवेल का पानी धान की पैदावार की गुणवत्ता पर असर छोड़ता है, पर मैंने उनसे साक्ष्य देने को कहा तो बगलें झांकते हुए उन्होंने भूजल स्तर और रसायनों के इस्तेमाल का तर्क दिया. मैं समझ गया कि किसानों के आंदोलन का विरोध करने का उनके पास कोई नैतिक आधार नहीं है तो वह आइटी सेल की कारगुजारियों में अपना गिलहरी योगदान दे रहे थे.
मेरी चिंता यह नहीं है कि कोई शख्स सोशल मीडिया पर क्या लिख रहा है. मेरी चिंता यह कि इसके जवाब में उन्होंने भूजल वाला तर्क जो दिया, वह पूर्णतया सत्य है. शायद यही वजह रही कि इसी साल मई में हरियाणा सरकार को सूबे में धान की खेती का रकबा कम करने के लिए ‘मेरा पानी, मेरी विरासत’ योजना चलानी पड़ी. राज्य सरकार इस योजना के तहत धान की बजाय कोई और फसल बोनेवाले किसानों को 7,000 रु. की प्रोत्साहन राशि देने वाली है.
सरकार चाहती है कि राज्य के जिन ब्लॉक में भूजल स्तर 40 मीटर से भी नीचे सरक गया है वहां लोग धान की खेती छोड़ दें. हरियाणा सरकार की योजना मक्का और दलहन जैसी फसलें उगाने पर उपज न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने और ड्रिप इरीगेशन तकनीक अपनाने पर 85 फीसद सब्सिडी भी देने की भी है.
हरियाणा के ग्राउंड वॉटर सेल का आंकड़ा कहता है कि राज्य भर में 1974 के मुकाबले आज की तारीख में औसतन भूजल स्तर में 10.27 मीटर की गिरावट आ गई है.
असल में, उन दिनों जब देश हरित क्रांति के लिए तैयार हो रहा था. तब हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ट्यूबवेल क्रांति हुई थी. इस ट्यूबवेल क्रांति ने शुरू में खाद्यान्न की पैदावार को आसमान तक पहुंचाया पर बाद में धान के बढ़िया समर्थन मूल्य ने धान उगाने की ललक बढ़ा दी. नतीजतन, पानी के लिए सोख्ते का काम करने वाली धान की फसल उगाई जाने लगी.
अब एक आंकड़ा देखिए- हरियाणा के आठ ब्लॉक, जहां पानी सबसे ऊपर 41.60 मीटर पर और सीवान में 49.88 मीटर तक चला गया है, में कुल मिलाकर करीबन 1.80 लाख हेक्टेयर में धान की खेती होती है.
परंपरागत रूप से यह इलाका मोटे अनाज का क्षेत्र था और हरित क्रांति के तहत जल दोहन और रसायनिक उर्वरकों के जरिये एक महान भूल की शुरुआत इसी क्षेत्र से हुई थी. तो महान सुधार की शुरुआत भी यहीं से होनी चाहिए, शायद धान की खेती छोड़ने की योजना उस महान सुधार का पहला कदम है. वैसे भी, इस इलाके में अगैती फसल लेने के वास्ते- क्योंकि इधर मॉनसून देर से पहुंचता है- बुआई मॉनसून से पहले कर दी जाती है और इसका इलाज है कि अगर मजबूरन धान की खेती करनी ही पड़े तो बुआई मॉनसून आने पर हो, इससे भूजल का दोहन कम होगा.
2018 में नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर ऐंड रूरल डेवलपमेंट की जल उत्पादकता रिपोर्ट बताती है कि अमूमन एक किलो चावल उपजाने के लिए 3000 से 5000 लीटर पानी चाहिए होता है. पंजाब से हरियाणा जब अलग हुआ था तब सूबे के 1.92 लाख हेक्टेयर में धान उपजाया जाता था, जो कुल बोए गए रकबे का महज 6 फीसद था. यह बढ़कर पिछले साल (2019 में) 41 फीसद यानी 14.22 लाख हेक्टेयर हो गया था.
केंद्रीय भूजल बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी) की रिपोर्ट बताती है कि चावल उपजाने की ललक ने पूरे हरियाणा में औसत भूजल स्तर में पिछले साढ़े चार दशक में 10 मीटर से अधिक की कमी ला दी है. वैसे, भूमिगत जल और उसके रिचार्ज के मामले में हरियाणा बहुत फिसड्डी है. यह राज्य हर साल रिचार्ज होने वाली 100 भूजल इकाइयों के मुकाबले 137 इकाइयां खींच लेता है. सीजीडब्ल्यूबी की रिपोर्ट के मुताबिक राज्य में पेयजल का 95 फीसद और सिंचाई का 61 फीसद हिस्सा भूजल के दोहन पर आधारित है.
पंजाब की समस्याएं भी अलहदा नहीं हैं. दोनों ही राज्यों में खेती के लिए मुफ्त दी गई बिजली ने भूमिगत जल स्तर का संकट गहनतम कर दिया है. असल में, पंजाब में 70 फीसद ब्लॉक डार्क जोन में आ गए हैं इसलिए सरकार चाहती है कि सूबे में गैर-बासमती चावल का मौजूदा 26 लाख हेक्टेयर का रकबा आधा रह जाए.
सीजीडब्ल्यूबी की रिपोर्ट ने पहले ही चेतावनी दी है कि भूजल स्तर में गिरावट की मौजूदा दर जारी रही तो पूरे पंजाब का पूरा उप-सतही जल दो दशकों में खाली हो जाएगा. सचाई यह है हमने कुओं और तालाबों की बजाय ट्यूबवेल पर भरोसा करना शुरू कर दिया. पूरे पंजाब में 14.5 लाख ट्यूबवेल हैं और 77 फीसद सिंचाई भूजल से होती है.
मुफ्त बिजली की वजह से- जिसके आने का वक्त तय नहीं होता है- पंजाब के किसान अपने ट्यूबवेल में ऑटो स्टार्टर लगाकर रखते हैं, इससे पानी की बहुत बरबादी होती है.
बहरहाल, हरित क्रांति के अंदर हुई ट्यूबवेल क्रांति, उर्वरक क्रांति और पेस्टीसाइड क्रांति ने धरती का सीना चीर दिया है. लोगों की सेहत पर बुरा असर डाला है और यहां तक कि गंगा को प्रदूषित कर दिया है. पर उसकी चर्चा बाद में. अभी तो मुझे याद आ रहा है कि पर्यावरण विषयों पर लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार सोपान जोशी ने एक बार मुझसे कहा था, ”अगर समस्या का पता हो तो पानी बचाना कोई मुश्किल काम नहीं, पर मुश्किल यह है कि व्यवस्था ने अभी तक समस्या ही नहीं पहचानी है.”
यह योजना 20 साल पहले शुरू करनी चाहिए थी, लेकिन अब हमें धान का मोह छोड़कर पानी बचाने पर ध्यान देना होगा. अगर हमने आगामी पीढिय़ों के लिए जमीन तो छोड़ी, पर पानी नहीं, तो हमारी संतानें हमें कोसेंगी.