पिछले दिनों जब तय हुआ कि 5 अगस्त को रामलला विराजमान के मंदिर का शिलान्यास होगा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसकी नींव का पत्थर रखेंगे, तो सोशल मीडिया पर अच्छे-अच्छे लोगों के पेट की दाढ़ी बाहर उग आयी। बड़े-बड़े प्रगतिशीलों का मोटा-मोटा जनेऊ बाहर झाँकने लगा। ढेरों नास्तिक लोग अंधविश्वासी बातें करने लगे और बड़े-बड़े जातिविरोधी लोग माननीय प्रधानमंत्री के लिए जातिगत टिप्पणियाँ करने लगे। कोई कहता कि मोदी जी ने संघ के खात्मे का कार्ड खेला है। किसी का मत था कि वे तो निरबंसिया हैं और शास्त्रोक्त विधि से यह गलत बात होगी क्योंकि जजमान हमेशा गृहस्थ होता आया है। लोग यह भूल गए कि मोदीजी पिता नहीं बन पाये तो इसमें उनका कोई दोष नहीं है। यह विधाता का लेख है। इसके बावजूद उन्होंने बहुत से पिताओं के मुक़ाबले बहुत बड़ी और ऐतिहासिक भूमिकाएँ निभा दी हैं।
उन्होंने इकोनोमिकली वीकर सेक्शन (EWS) के लिए उतना बड़ा काम कर दिया जितना समाज भर के पिता मिलकर अनंतकाल तक नहीं कर पाते। उन्होंने यहां तक साबित किया कि वे भारतीय अर्थव्यवस्था के पिता हैं। कभी भी कोई निर्णय ले सकते हैं। लेकिन दुष्टों की कमी संसार में कब रही है जो मोदी जी के युग में न रहे। इसीलिए तो कई लोगों ने तुलसीदास के शब्दों के सहारे मोदी जी को बुरा-भला कहने का कुत्सित प्रयास किया कि ‘जे बरनाधम तेलि कुम्हारा, स्वपच किरात कोल कलवारा’, आदि आदि।
गरज़ यह कि बहुतों ने अपना ज़हर उगला और बहुतों ने अपनी कुंठा से फेसबुक को रंग दिया। लोग कहते हैं मन की भड़ास निकालने के लिए फेसबुक बहती गंगा है, लेकिन मुझे लगता है यह जगह वह अखाड़ा है जहां पता लगता है कि कौन पहलवान कितना नंगा है। कुछ लोग बहुत देर तक सभ्यता का लंगोट बांधे रहते हैं लेकिन आखिर है तो लंगोट ही, आज नहीं तो कल खुलेगा ही, कोई परमाणु बम का ढक्कन थोड़े है कि बंद है तो अनंतकाल तक बंद ही रहेगा। इसलिए मुझे मोदी के प्रति व्यक्त किया गया हर ब्राह्मणवादी जुमला गलत लगा। पिछले पांच साल से मोदीजी की नीतियों का सख्त विरोध करने के बावजूद मुझे केवल यह बात थोड़ी असुविधाजनक लगी कि उनको मंदिर के शिलान्यास आदि से बचना चाहिए था क्योंकि वे केवल हिंदुओं के प्रधानमंत्री नहीं हैं। वे स्वयं भी केवल हिंदुओं का प्रधानमंत्री होने का दावा करने की जुर्रत नहीं कर सकते। वे देश की सारी जनता के प्रधानमंत्री हैं। देश में हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी, वोक्कलिगा, लिंगायत, शैव, शाक्त, औघड़, बेरोजगार, लुटेरे, बलात्कारी, बलात्कृत, दमनकारी और दमित सभी रहते हैं और वे सबके प्रधानमंत्री हैं। इसलिए उनको स्वयं को केवल हिंदुओं तक सीमित नहीं रखना चाहिए। लेकिन, खैर…
पांच अगस्त से मैं बहुत खुश हूं। इतना कि क्या कहूं। आँचल में न समाये वाली कहावत तो कुछ भी नहीं है। ग़ालिब ने कहा है– ‘अजब नशात से जल्लाद के चले हैं हम आगे, कि अपने साये में सिर पाँव से है दो कदम आगे।‘ ग़ालिब प्रायः गच्चा देने वाले शायर हैं। सीधे-सीधे अर्थ तो निकल जाता है कि जल्लाद के आगे चलते हुए इतनी खुशी हो रही है कि मेरी परछाई में पाँव दो कदम पीछे हैं और सिर दो कदम आगे है। लेकिन सवाल उठता है इतना खुश हैं ही क्यों? एक तरफ आपको कसक है कि काबा पीछे हो गया और कलीसा आगे आ गया और दूसरी तरफ बलिदान का इतना शौक चर्राया जाता है कि सिर आगे चला जा रहा है।
वैसे मिर्ज़ा साहब अपने को आधा मुसलमान कहते रहे क्योंकि शराब पीते थे सुअर नहीं खाते थे लेकिन मुझे वे आधे से ज्यादा मुसलमान लगते हैं वरना काबे की कसक क्योंकर होती। पीछे हो गया हो गया। मीर साहब साफ़ कहते थे कि ‘जब मयकदा छूटा तो फिर क्या जगह की कैद, मस्जिद हो मदरसा हो कोई ख़ानक़ाह हो।’ लेकिन ग़ालिब मीर साहब के नकलची क्यों हों? सच्चाई यह है कि मीर साहब ने बेज़ारी में यह बात कही लेकिन ग़ालिब ने तो बेचारी में कही। अनुभव यह ठहरा कि आप ठीक ग्यारह बजे दिन में पश्चिम दिशा में चलिए, आपका सिर आपके पाँव से दो कदम आगे जाता मिलेगा। ग्यारह बजे दिन यानि पूर्वाह्न यानि आधे से भी कम जीवन बीता हो और आप जल्लाद के आगे खुशी-खुशी जा रहे हों तो जरूर आप बेरोजगार हैं या आपका वजीफा अटक गया है।
तो ऐसी ही अजब खुशी हुई मुझे जब ध्यान से देखा कि मोदीजी तो भारत का इतिहास बदलने जा रहे हैं। वास्तव में यह अद्भुत दृश्य है कि मोदीजी ने वह कर दिया जिसके लिए भारतीय हिन्दू समाज डिज़र्व ही नहीं करता। उन्होंने राजनीति को भी एक बड़ा सबक दिया है। उन्होंने राममंदिर आंदोलन को एक बड़ा आईना दिखाया तो ब्राह्मणवाद को कसकर दस जूते लगाये। अब उसकी महत्ता खत्म हो चुकी है। भले ही वह यहां-वहां दाँत गड़ाकर लोगों का सांस्कृतिक खून चूसने की जुगत लगा ले लेकिन मोदीजी ने उसकी औकात दो कौड़ी की कर दी है। सच कहूँ तो मोदीजी ने वह कर दिया जो भारतीय कम्युनिस्ट एक सदी में भी नहीं कर पाये।
क्रोनोलाजी समझिए! लेकिन उससे पहले थोड़ा इतिहास भी समझने का कष्ट कीजिए। राजनीति और साहित्य में कितनी लंबी यात्राएं हो चुकी हैं। तुलसीदास की घृणा तो आपने देख ही ली। पाँच शताब्दियों तक यह चलती रही। अनेक कहावतें बनीं और लगभग हर श्रमजीवी जाति को ब्राह्मणों ने किताब लिख-लिख कर अपमानित किया। लेकिन बीसवीं सदी में क्रांतिधर्मी कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने इसका नैरेटिव बदल दिया। तुलसी और उनके शिष्य ब्राह्मणों के लिए तेली जाति नफरत करने योग्य बनी रही, हालांकि तेली जाति में आजतक कोई ऐसा कवि नहीं हुआ जो ब्राह्मणों से लड़कर अपनी जाति पर लगे कलंक को मिटाये लेकिन निराला जी ने कहा कि तेली, चमार, पासी, कुम्हार के बच्चे जमींदार की हवेली का ताला खोलेंगे और वे समाज में नयी सुबह लाएंगे। इसी तरह राजनीति में देखिए, हिन्दुत्व के बकैतों के आइकॉन राणा प्रताप को भामाशाह ने रुपये से बेहिसाब मदद दी लेकिन ब्राह्मणों के ब्राह्मण बाल गंगाधर तिलक ने कहा कि संसद में तेली तंबोली जाकर क्या डंडी मारेंगे।
मुझे लगता है पाँच तारीख को मोदीजी ने लोकमान्य ब्राह्मण को ज़ोर से घुड़क दिया हो। तिलक के बाद कितनी दशाब्दियाँ बीतीं लेकिन किसी ने इसका विरोध नहीं किया। संसद चलती रही। इस घृणा को चुनौती दी लालू प्रसाद यादव ने। लालू जी राजनीति से ज्यादा लोक के आदमी हैं इसलिए उन्होंने लोक की घटिया और घृणास्पद धारणाओं को तोड़ा। उन्होंने तेली समाज को सम्मान दिया। मुझे याद है कि बनारस के बेनिया पार्क में लालूजी को सुनने के लिए भारी भीड़ जुटी थी। मंच पर वीपी सिंह, चन्द्रशेखर, रेवती रमण सिंह और मुलायम सिंह यादव भी जमे थे लेकिन भीड़ लालूजी को सुनने आयी थी। वे उठे और दो मिनट बाद कहने लगे कि ब्राह्मण सब तेली भाइयों के लिए बोलता है कि सबेरे-सबेरे इसका मुंह देखोगे तो पाप पड़ेगा। दिन में दाना नहीं मिलेगा। फिर उन्होंने जनता से कहा– यहां कितने तेली भाई हैं वे हाथ उठाएं। सैकड़ों हाथ उठे और लालूजी ने इस कहावत का सख्त विरोध करते हुए अपनी बात पूरी की। फिर चन्द्रशेखर जी का तहजीब-ओ-तमद्दुन वाला प्रसिद्ध भाषण हुआ और पहली बार मैंने महसूस किया कि चन्द्रशेखर जी साढ़े ग्यारह मिनट शुद्ध हिन्दी बोलने के बाद छह मिनट तक नफीस उर्दू बोलते हैं। लेकिन उनके भाषण में तेलियों के सम्मान की बात क्योंकर हो? वह तो लोक में ही संभव है। लोक में लालू जी हैं। लोक में राम प्रताप दास थे। कवि मित्र राकेश कबीर के बाबा राम प्रताप दास के सबसे घनिष्ठ मित्र तेली जाति के थे और दोनों प्रतिदिन एक दूसरे का मुंह देखते थे और एक दूसरे के हर शुभ काम में आजीवन साथ रहे।
राजनीतिक रूप से इसे मोदीजी ने तोड़ा है। पूरी योजना के साथ और दूरदर्शिता से। उन्होंने जाति विद्वेष और हिकारत का सटीक जवाब चुना और उसे अच्छी तरह दिया। वे कितने दूरदर्शी हैं इसका अभी इतिहास कम आकलन कर रहा है, लेकिन उसे समझना होगा कि मोदीजी जैसा दूरदर्शी व्यक्ति फिलहाल मिलना मुश्किल है। उन्होंने गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए अपने को पिछड़ी जाति में शामिल करवाया क्योंकि उनको पता है यही प्रभावी जाति-समूह है। यह आज़ादी के सत्तर साल बाद भी गरीबी और अशिक्षा के दलदल में फंसा हुआ है। इसके बच्चे पढ़ने-लिखने के बावजूद अनिश्चित भविष्य के शिकार हैं और सबसे बड़ी बात तो यह है कि भले वे प्रचंड प्रतिभाशाली हों, लेकिन जीवन भर आरक्षण वाला होने का कलंक ढोते हैं। उनका खुद का आत्मविश्वास हिल जाता है। इसलिए मोदीजी जितनी शिद्दत से इनका दर्द जानते थे उतनी शिद्दत से कहां और लोग जान पाये? इसलिए मोदी जी ने स्वयं को उनके साथ जोड़ा और उनका कलंक मिटाने के लिए इकोनोमिकली वीकर सेक्शन बनाकर पिछड़ों और गरीब सवर्णों को एक ही कटोरे का हिस्सेदार बना दिया। एक झटके में उनकी हीनता और इनकी श्रेष्ठता को खत्म कर दिया।
यह बात राजेंद्र यादव लगातार कहते थे कि मोदी न केवल भारतीय राजनीति के सबसे बड़े मैनेजर हैं बल्कि दूरदर्शी भी। काश, कि आज राजेंद्र जी होते तो अपने कहे हुए को देख पाते। लेकिन मुझे तो लगता है मोदीजी बनिया समाजों के मसीहा के रूप में पैदा हुए हैं। सबसे पहले वे पिछड़ा बने और उनको बताया कि पिछड़ों-दलितों आदिवासियों का खून चूसने वालों अब मैं तुम्हारा वह कलंक मिटाने जा रहा हूं कि तुम्हारा मुंह देखने से दिन खराब हो जाता है और तुमको किसी धार्मिक काम में सबसे आगे आने पर अशुभ होने की आशंका जतायी जाती है। उसको ही करके मैं इतिहास बदलने जा रहा हूं। तुमने सदियों तक मंदिर बनवाकर ब्राह्मण-पुरोहितों की दाल-रोटी का इंतजाम किया। हर जरूरत पर सिद्धा-पिसान और गुप्तदान देते रहे लेकिन उन्होंने तुम्हारे लिए बुरी कविताएं लिखीं और कहावतें बनाकर फैलाया– बनिया मीत न वेश्या सती। और तुम नहीं समझ पाये। अब समझो और सुधर जाओ। ज़माना बदल चुका है।
इसलिए क्रोनोलोजी समझिए! मोदीजी ने तेली जाति के प्रति ब्राह्मणवादी कुत्साओं और गलीज मानसिकता को जूते के नीचे रगड़ दिया। उन्होंने अच्छी तरह बता दिया कि ब्राह्मणों, तुम कितनी भी घटिया कहावतें बनाओ लेकिन तुम अब कुछ भी नहीं हो। समझ लो। कुछ भी नहीं। कोरोनाकाल में बनियों ने बेशुमार दौलत कमायी और तुम घंटा बजाते रहे लेकिन कोई सुनने वाला न था। तुमको अब सरकार से आर्थिक पैकेज चाहिए और इसके लिए तुम गिड़गिड़ा रहे हो। परजीवी ऐसे ही होते हैं। अगर छह साल कोरोना रह गया तो समझ लो तुम्हारी क्या गति होने वाली है। मोदीजी ने जजमानी का मिथक तोड़ दिया। उन्होंने यह बता दिया कि केवल अपने ही स्वार्थों की पूर्ति को आतुर समाज किसी मूल्य-व्यवस्था के तहत जीवन नहीं गुजारता। गुजार ही नहीं सकता। अगर ब्राह्मणों में दम होता तो वे राममंदिर के शिलान्यास के विरुद्ध मोर्चा निकालते कि एक तो मोदी जी शिलान्यास नहीं करेंगे और दूसरे हम लोगों की व्यापक उपस्थिति के बिना यह कैसे हो जाएगा, लेकिन सब के सब चुप रहे क्योंकि उनको लगा कि मौका अच्छा है, आपदा को अवसर में बदल लो।
प्रधानमंत्री जी ने ब्राह्मणवाद की दीवार पर अपने नाम का शिलापट्ट लगवा दिया और इस प्रकार उन्होंने भारतीय जनता को एक संदेश दिया कि ये ऐसे लोग हैं जो सत्ता के सहयोग से जितना भी उपद्रव मचा लें लेकिन जनता चाहे तो अपनी सरकार बनाकर इन्हें पूरी तरह ध्वस्त कर सकती है।
वे ठाठ से गये और रामलला विराजमान की नींव खोद आये। मोदीजी के प्रशंसकों में एक से एक लोग हैं और किसी ने एक चित्र बनाया जिसमें मोदीजी रामलला की उंगली थामे मंदिर की ओर लिए जा रहे हैं। कई लोगों ने इसकी आलोचना की, लेकिन वास्तव में इस चित्र के बहुत व्यापक निहितार्थ हैं। राम मंदिर आंदोलन और हिंसा में चोली-दमन का संबंध रहा है। राम को प्यार करने वाले अनेक चित्रकारों ने पिछले वर्षों में राम के जितने चित्र बनाये उनमें वे अत्यधिक क्रोधित दिखाये गये हैं, लेकिन मोदी जी ने क्रोधित राम की नहीं बल्कि रामलला की प्रतिष्ठा की। उन्होंने राम की मासूमियत उनको लौटा दी। उन्होंने देश के लोगों को यह संदेश दिया कि आस्था चाहे जितनी बड़ी हो लेकिन संवैधानिक पद से बड़ी नहीं हो सकती।
मोदी जी का पूरा व्यक्तित्व ही अनेक निहितार्थों को खोलता प्रतीत होता है। लोग कहते हैं कि उन्होंने विपक्ष को कमजोर कर दिया लेकिन सच तो यह प्रतीत होता है कि उन्होंने विपक्ष को चुनौती दी है कि मेरा मुक़ाबला पिछलग्गू होकर नहीं बल्कि वास्तविक विपक्ष बनकर करो। अब यह क्या कि मोदी जी शिलान्यास को आने वाले हैं और प्रियंका गांधी राम और शिलान्यास की व्याख्या करने लगें! नकलची कहीं की! आपमें और भाजपा में क्या फर्क रहा? मोदीजी विपक्ष को बार-बार मौका दे रहे हैं कि अपनी जमीन पर लड़ो लेकिन विपक्ष बार-बार मोदी जी की पिच पर खेलने की कोशिश में अपना बचाव भर कर पा रहा है। वे पदा रहे हैं और विपक्ष पद रहा है। परिणाम यह होता है कि विकास दुबे के एनकाउंटर से किसी को कानून व्यवस्था ध्वस्त नज़र आने लगती है तो कोई हर जिले में परशुराम की मूर्ति बनवाने का वादा करता फिर रहा है. जबकि मोदी जी पाँच साल से विपक्ष से कह रहे हैं कि जनता के सवाल उठाओ। अगर उठा सकते हो तो वास्तविक मुद्दे उठाओ क्योंकि मोदीजी ने तो हर मौके पर यह बता दिया कि वे कठिन सवाल पूछने वालों से बचते हैं। तो जो उनसे कठिन सवाल पूछ पाएगा वही तो विपक्ष होगा। और विपक्ष दिल पर हाथ रखकर कहे कि वह विपक्ष है। उसे अपने मन के कोनों-अंतरों में झांक-झांक कर देखना चाहिए कि कहीं वह बिल्ली की तरह छींका टूटने की आस में तो नहीं है?
अखिलेशजी और मायावतीजी जैसे लोग क्या अपनी जनता के सवाल कभी उठाएंगे? मोदीजी अच्छी तरह जानते हैं कि ये सुस्त और चालू विपक्ष के नमूने हैं। इनको पता ही नहीं कि इनकी जनता के संकट क्या हैं इसलिए मौके-बेमौके ब्राह्मणों को सहलाने लगते हैं। उनको लगता है कि ये ओपिनियन-मेकर जनता को मोदीजी के खिलाफ कर देंगे। कैसा दिवास्वप्न है! मोदीजी के भक्त भले उन्हें अनंतकाल तक प्रधानमंत्री देखना चाहते हों लेकिन मोदीजी चाहते हैं कि उनके सामने एक मजबूत विपक्ष हो। उन्हीं की तरह जुनूनी और अपने लक्ष्य को पहचानता हुआ। मोदीजी बहुत व्यस्त व्यक्ति हैं और अनेक मंत्रालयों को संभालते हैं। थक जाते होंगे। वे चाहते होंगे कि उनके मंत्रिमंडल के लोग कभी असहमत हों और नाराज होकर मंत्रिमंडल छोडकर चले जाएं लेकिन यह देखकर उन्हें बहुत अकेलापन महसूस होता होगा कि सब अपने पद से चिपके हैं। जाना तो दूर, असहमत भी नहीं होना चाहते। ऐसे में सामने विपक्ष भी न रहे तो क्या ही जीवन और क्या ही राजनीति है।
मुझे लगता है पिछले सत्तर साल में मोदीजी पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने ब्राह्मणवाद और ईश्वर के मिथक को अपने ढंग से चुनौती दी है और उन्हें अपनी हैसियत पर ला दिया। उन्होंने देश की जनता को यह संदेश दिया कि हर मंदिर सत्ता के संरक्षण के बल पर महान है। सरकारों के बल पर वह चाहे जितना निरंकुश हो ले लेकिन सरकार जब चाहे उसे नकेल पहना सकती है। सरकार में इच्छाशक्ति हो तो उसके एक-एक पैसे को सरकारी खजाने का हिस्सा बना सकती है। मोदीजी ने भविष्य के नेताओं के सामने एक बड़ी लकीर खींच दी है कि संवैधानिक अपराध चाहे कितनी बड़ी जनाकांक्षाओं का प्रतीक बना दिया जाय लेकिन रहता वह अपराध ही है। चिल्लाते रहे आडवाणी, कल्याण सिंह, उमा भारती और मुरली मनोहर जोशी लेकिन मोदीजी ने यह बता दिया कि वे पाँच अगस्त के सुपात्र नहीं हैं। उन्होंने हिंसा और उन्माद वाली राजनीति को मौके से किनारे कर दिया। बड़ी मुलायमियत से उन्होंने आगामी दिनों में राम मंदिर की आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था पर बात की।
और अंत में तो उन्होंने धड़ाक से दिल ही जीत लिया। बरसों से भक्तगण जोश और उन्माद में चीखते रहे– जय श्री राम। मॉब लिंचिंग हो तो जय श्रीराम। कठुआ के बलात्कारियों और कुलदीप सिंह सेंगर आदि का समर्थन जुलूस हो तो जय श्री राम। कहीं आग लगाना हो तब जय श्री राम। दंगा करना हो … बलात्कार …. उफ्फ़! जय श्री राम का इतना दुरुपयोग किसी और युग में हुआ न होगा। हनुमान जी ने संजीवनी बूटी नहीं पहचानी तो पहाड़ उखाड़ लिया लेकिन उन्होंने इतना हिंसक जय श्री राम न किया होगा जितना इस समय लोगों को डराने के लिए हो रहा है।
लेकिन मोदीजी ने बहुत सॉफ्ट होकर कहा– जय सियाराम!
पूर्वाञ्चल के लोक में जब कोई व्यक्ति या काम खत्म हो जाता है तो लोग कहते हैं – जय सियाराम हो गया।