गाहे-बगाहे: है किस क़दर हलाक-ए फ़रेब-ए वफ़ा-ए गुल!


जो घटनाएं विस्फोटक रूप से घट जाती हैं उनकी तारीख आम तौर पर याद रह जाती है लेकिन ढेरों घटनाएं ऐसी होती हैं जो बहुत धीरे-धीरे चलती रहती हैं और एक दिन जब पता लगता है तब तक दृश्य पूरी तरह बदल चुका होता है। जैसे किसी साफ-सुथरी और जल से भरी हुई नदी एक दिन हमें मटमैली और काली दिखने लगे और उसके किनारों से गुज़रते हुए सड़े हुए पानी की दुर्गंध से मुंह से यह निकले कि ओह! नदी आ गई। जैसे किसी विशाल पेड़ में दीमक लग जाए और एक दिन वह सूखता हुआ मिले। जैसे हवाओं में चिमनियों से निकलता हुआ धुआँ घुलता रहे और एक दिन सांसें घुटने लगती हैं, खांसी आने लगती है और लगता है जान नहीं बचेगी। तब लोग सिर ऊपर उठाकर ऊपरवाले को देखने लगते हैंए लेकिन ज़मीन पर लगी चिमनियों को वे नहीं देख पाते। लोगों की अब यह खासियत बन चुकी है कि जितनी तेजी से आसमान देखते हैं उसी शिद्दत से ज़मीन नहीं देखते। ऐसा लगता है कि अब उन्हें धरती की पैदावार से अधिक आसमान के चमत्कार पर भरोसा है। और यह सब इतनी गहरी परतों में अंट और खप जाता है कि उसी का हिस्सा हो जाता है और समाजशास्त्री उसे नयी संस्कृति कहने लगते हैं ।

इधर कई साल से मैं देख रहा हूँ कि संघी संगठनों के जो पोस्टर बन रहे हैं और आइटी सेल जो नैरेटिव प्रसारित कर रहा है उसमें सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, अशफाक़उल्लाह, राजगुरु, सुखदेव और बिस्मिल जैसे लोगों के बीच ‘वीर सावरकर’ और ‘श्यामा प्रसाद मुखर्जी’ की भी तस्वीरें शामिल की जा रही हैं और लिखित सामग्री में ये दोनों लोग इत्यादि के पहले जोड़ दिये जा रहे हैं। किसी-किसी पाठ में तो इत्यादि से तीन-चार नाम पहले भी ये दोनों उपस्थित हैं। इस प्रकार विचारों, संघर्षों और बलिदानों की परंपरा में ‘इन’ लोगों को बड़ी चतुराई से पैठाया जा रहा है।

पढ़े-लिखे, प्रबुद्ध और इतिहास से प्रेम करने वाले लोग अच्छी तरह जानते हैं कि सावरकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारतीय राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के वारिस नहीं हैं। जब क्रांतिकारियों को फांसी दी जा रही थी तब ये लोग हिन्दू महासभा के माध्यम से सामाजिक और धार्मिक विभाजन की भूमिकाओं में लगे हुए थे जबकि सारी दुनिया जानती है कि भगत सिंह और उनके साथी राजनीतिक गुलामी के साथ-साथ शोषण की उस सारी व्यवस्था को पूरी तरह उखाड़ फेंकना चाहते थे जो ब्रिटिश सत्ता, भारतीय हिन्दू-मुस्लिम सामंती गठजोड़ और ब्राह्मणवादी-जातिवादी व्यवस्था का समुच्चय थी। इस प्रकार हम देखते हैं कि भगत सिंह और उनके साथियों से सावरकर और मुखर्जी से दूर-दूर तक कोई वैचारिक संबंध नहीं है और न ही इन लोगों के बीच किसी भी मुद्दे पर कोई सहमति है। राजनीतिक संघर्षों में किसी तरह के किसी संबंध का तो सवाल ही नहीं पैदा होता है।

दिल्ली विश्वविद्यालय में लगी सावरकर की प्रतिमा

अगर इस बात को यूं ही जाने दें तो कहना ही क्या। जहां देश बिक रहा है वहां ऐसे पाठ-कुपाठ पर बात ही क्या हो, लेकिन असल में इस संगीन गतिविधि के निहितार्थों की ओर ध्यान देने की जरूरत है कि एकछत्र और अनियंत्रित सत्ता के बावजूद बीजेपी आइटी सेल को इस तरह के पाठों और पोस्टरों की जरूरत क्या है? और यह बात आईने की तरह साफ है कि भारतीय जनता की स्मृतियों में राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन की एक व्यापक स्मृति है। इस संघर्ष की बदौलत ही आज भारत एक संप्रभुतासंपन्न देश है जिसका अपना संविधान और संसद है। हर आम-ओ-खास को इसका महत्व पता होना चाहिए। सच तो यह है कि यह खास से कहीं अधिक आम लोगों को पता होना चाहिए क्योंकि संविधान उनके जीवन और हितों की सुरक्षा करता है। सिर्फ सुरक्षा ही नहीं करता, बल्कि उन्हें बुरी से बुरी परिस्थितियों से लड़ने का अधिकार देता है। यह संविधान जनता को संसद के भीतर के दृश्यों को बदल देने का अधिकार देता है और यह एक-एक नागरिक का सबसे सच्चा दोस्त है। बेशक आज दृश्य उलट गया है और संविधान खतरे में है। संविधान खतरे में है इसलिए जनता भी खतरे में है, लेकिन स्थितियां इस बात की ओर इशारा कर रही हैं कि जनता को जितनी जरूरत संविधान की है उतनी ही जरूरत संविधान को भी जनता की है। इस बात को समझना होगा।

इस बात को नहीं समझा जा रहा है इसीलिए संघी और बीजेपी आइटी सेल भारतीय राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के गौरवशाली इतिहास और उसके नायकों के बीच उन लोगों का थूथन घुसेड़े जा रहे हैं जिनका उनसे दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है । दरअसल, जनता पर यह एक मनोवैज्ञानिक हमला है । यह मनोवैज्ञानिक हमला इसलिए किया जा रहा है कि संघी चाहे जितनी भी बकलोलई और गलथेथरई कर लें लेकिन वे बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि भारतीय राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन में उनका कोई भी योगदान नहीं है और उनका कृत्य भगत सिंह और उनके साथियों के कामों के ठीक उलट ही नहीं बल्कि उसकी अवधारणा को क्षतिग्रस्त करने वाला है। हिन्दू महासभा और संघ की हैसियत वही है जो मुस्लिम लीग की है। दोनों का उद्देश्य और निहितार्थ, भाषा और चाल-चरित्र एक है। फर्क यह है कि मुस्लिम लीग मुसलमानों की बात करता है और संघ हिंदुओं की जबकि वास्तविकता यह है कि संघ ने न हिन्दू शोषकों से जनता की मुक्ति की बात की न मुस्लिम लीग ने मुस्लिम शोषकों से। वास्तविकता यह है कि दोनों ही शोषकों की ताकत को धार्मिक आवरण में और भी मजबूत और भयानक बनाते हैं। अपने इस पाप को छिपाने के लिए आज संघियों और बीजेपी आइटी सेल को ऐसे झूठे और अनर्गल पोस्टरों तथा नैरेटिव की जरूरत पड़ रही है।

हम देखते हैं कि जहां भी जरा सा फोंफ़र, उदासीनता और गुंजाइश मिली वहां-वहां उन्होंने थूथन घुसाया है। जैसे किसी ठुँसी हुई बस में कोई गुंडा या लफंगा लोगों को अपनी पीठ और हाथों से धक्का देता और रगड़ता हुआ अपने लिए मनचाही जगह बनाने की कोशिश करे। इसी तरह वे पूरी तरह षड्यंत्रकारी होकर मनचाहे पोस्टर और नैरेटिव बना रहे हैं। उनके लिए एक बहुत बड़ी गुंजाइश यह है कि इतिहास की समझ रखने वाली पीढ़ियों के अधिकांश लोग अब मर गये हैं या विस्मृति के शिकार हो रहे हैं। अब जो बच रहे हैं वे शायद सरेंडर करने की स्थिति में हैं। इस गुंजाइश के बाद थूथन भिड़ाना अधिक सुगम हो गया है। नयी पीढ़ियों के दौर में नैरेटिव और पोस्टर बदलना एक आसान प्रक्रिया है। यानि संघियों का विस्तार उस दौर में अधिक प्रभावशाली हो सकता है जब प्रतिरोध खत्म हो चुका होगा। जब व्यापक समाजों के लोगों के भीतर से अपने संवैधानिक अधिकारों और हितों के प्रति चेतना मर रही हो। जब कहीं कोई बोलने को तैयार न हो तब वे हमला कर देते हैं। कायर लोग मॉब लिंचिंग में विश्वास करते हैं। भीड़ को भड़का कर हिंसक बना देना! जाहिर है, ऐसे कोई अकेला और सीधा-सादा व्यक्ति कमजोर हो जाता है और मारा जाता है। लेकिन यह कब तक?

जब तक जनता गाफिल है तब तक। बेशक जनता को गाफिल करने के लिए संघ और बीजेपी आइटी सेल दिन-रात झूठ गढ़ रहे हैं, लेकिन जैसे ठुँसी हुई बस में लोगों को धकियाते हुये गुंडे और लफंगे की घिग्घी तब बंध जाती है जब लोग न केवल उसको डांटने पर उतर आते हैं बल्कि गर्दन से पकड़ कर झुला देते हैं, झूठ गढ़ते संघियों का वर्चस्व उसी समय टूटना शुरू हो जाएगा जब उनके हमलों के प्रत्यक्ष और परोक्ष शिकार होने वाले लोग उनके फर्जी पाठों और पोस्टरों को खारिज कर देंगे। जब वे सब लोग अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं को जोरदार आवाज में व्यक्त करेंगे जिनकी उदासीनता और बेज़ारी के रथ पर संघी झण्डा लहरा रहा है।

दिल्ली यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी के शिक्षक हैनी बाबू

ऐसे ही एक झूठा नैरेटिव गढ़ा जाता है कि पेशवाई शोषण के ऊपर दलित अस्मिता की विजय की सालगिरह में शामिल लोगों ने भीमा-कोरेगाँव में हिंसा फैलायी जबकि सारी दुनिया जानती है कि भीमा-कोरेगाँव में हिंसा फैलाने वाले सभी अपराधियों को संघ और भाजपा की ओर से सरकारी संरक्षण मिला है। झूठे नैरेटिव को इतना फैलाया गया कि एक-एक कर राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता को जेलों में ठूंस दिया गया। पिछले हफ्ते दिल्ली विश्वविद्यालय के रामलाल आनंद कॉलेज में अंग्रेज़ी के प्राध्यापक हैनी बाबू को भी भीमा कोरेगाँव के फर्जी मामले में गिरफ्तार किया गया। हैनी बाबू बहुत अच्छे अध्यापक होने के साथ संस्थानिक अन्याय के विरुद्ध एक बड़ी और मजबूत आवाज भी हैं। उनकी गिरफ्तारी भीमा-कोरेगाँव हिंसा के फर्जी नैरेटिव और उसके नाम पर गिरफ्तारी के विरोध में उठने वाली सारी आवाजों को दबाने और लोगों में डर पैदा करने के लिए की गयी है, लेकिन आवाज न दब रही हैं न डर रही है।

बेशक भीमा कोरेगाँव के नाम पर गिरफ्तार लोगों को दलितों के व्यापक समर्थन की जरूरत है जिनके हक में आवाज़ उठाने के लिए वे इकट्ठा हुए। उन आदिवासियों के व्यापक समर्थन की जरूरत है जिनके शोषण, दमन और उत्पीड़न के खिलाफ वे आवाज उठाते रहे हैं। उन पिछड़ों के व्यापक समर्थन की जरूरत है जिनके हक के लिए हैनी बाबू जैसे प्राध्यापक तब भी पूरी मुखरता से बोलते हैं जब उनके पक्ष में बहुत कम लोग बोलते हैं। उन अल्पसंख्यकों के व्यापक समर्थन की जरूरत है जिनकी मॉब लिंचिंग के विरुद्ध और नागरिकता के पक्ष में लगातार आवाज उठायी गयी। सबकी सम्मिलित आवाज जरूरी है उन लोगों के लिए जो एक षड्यंत्रकारी ताकत से लड़ते रहे हैं और जो आज फर्जी प्रचार, षड्यंत्रकारी कानून और दमन का शिकार हैं।

संघ तो इतना खतरनाक है कि वह अपने षडयंत्रों को अंजाम देने के लिए कभी-कभी अपने ठीक उलट चेहरों को भी धारण कर लेता है। अभी उसने प्रमोद रंजन का चेहरा धारण कर लिया है। प्रमोद को हम फारवर्ड प्रेस के प्रबंध संपादक के रूप में जानते हैं। उनके महत्वपूर्ण कामों में ओबीसी साहित्य की अवधारणा को अमली जामा पहनाने के लिए एक किताब का संपादन भी है। हम उन्हें एक युवा विचारक के रूप में जानते हैं जिसने बहुत कठिन संघर्ष से अपनी राह बनायी है। महिषासुर के व्यक्तित्व को हिन्दू मिथकीय अवधारणा से मुक्त कराने का श्रेय भी प्रमोद रंजन को ही है। दुर्गा की छवि को लेकर संसद में भी सवाल उठा। फॉरवर्ड प्रेस पर सरकारी हमला हुआ और प्रमोद को भूमिगत होना पड़ा। पत्रिका बंद हो गयी, लेकिन बाद के दिनों में प्रमोद ने किताबों का प्रकाशन जारी रखा।

अचानक एक दिन वे असम विश्वविद्यालय में नियुक्ति पा गये। वे इससे भी बड़े पद को डिज़र्व करते हैं, लेकिन तीन बातें शक पैदा करने वाली हैं। पहली यह, कि उनकी नियुक्ति तब हुई जब केंद्र और असम दोनों में भाजपा की सरकार है। दूसरी बात, कि अचानक उन्होंने फारवर्ड प्रेस से अपनी असहमति जताते हुए उसके आर्थिक स्रोतों पर सवाल उठाया और यह भी कहा कि इसे अमेरिकी चर्च का समर्थन प्राप्त है। ज्ञात हो कि जिन दिनों प्रमोद द्विभाषी पत्रिका ‘फारवर्ड प्रेस’ के संपादक थे उन दिनों भी फारवर्ड प्रेस का आर्थिक स्रोत वही था। इसका एक असर यह था कि पत्रिका में ज्योतिबा फुले को चमत्कारिक व्यक्ति के रूप चित्रित किया जा रहा था जिसका झुकाव ईसा मसीह की ओर था। उन्हीं दिनों मराठी के प्रसिद्ध आलोचक-अनुवादक मेरे मित्र प्रोफेसर विमलकीर्ति दिल्ली आये थे तब हम दोनों ने आपसी चर्चा में देर तक इस पर बातचीत की थी और इस बात को लेकर हमारा गहरा ऐतराज़ था।

तीसरी बात यह कि हाल ही में प्रमोद रंजन द्वारा संपादित पेरियार की किताब ‘सच्ची रामायण’ प्रकाशित हुई है। इस किताब के जरिये प्रमोद रंजन ने अपने काम की महत्ता साबित करने के लिए हिन्दी और उत्तर भारत में ‘सच्ची रामायण’ के पहले प्रकाशक और प्रचारक ललई सिंह यादव, जिन्होंने बाद में अपने नाम के साथ यादव जोड़ना छोड़ दिया था, के योगदान को धूसरित करने का कुत्सित प्रयास किया है। वे अपनी भूमिका ‘हिन्दी पट्टी में पेरियार’ में लिखते हैं: “पेरियार स्वयं चाहते थे कि उनके विचार उत्तर भारत के प्रबुद्ध लोगों तक पहुंचें। उन्होंने अपने जीवनकाल में उत्तर भारत के कई दौरे किये और विभिन्न जगहों पर भाषण दिये। इस दौरान उन्होंने अपने कुछ लेखों व एक पुस्तक को हिन्दी में प्रकाशित करने का अधिकार भी उत्तर प्रदेश के दो बहुजन कार्यकर्ताओं, क्रमशः चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु और ललई सिंह को दिये थे, लेकिन यह बात संभव न हो सकी, जो पेरियार चाहते थे।’

यह बात अब किसी से छिपी नहीं है कि पेरियार को उत्तर भारत में प्रचारित करने का सबसे बड़ा श्रेय ललई सिंह को जाता है। ऐतिहासिक तथ्य यह है कि पेरियार जब भी उत्तर प्रदेश में आते थे उनके मेजबान प्रायः ललई सिंह होते थे। वे ही उनकी सभाओं के लिए लोगों को इकट्ठा करते थे। पेरियार ने ललई सिंह को अपनी किताब का अनुवाद करने और छापकर लोगों तक पहुंचाने का दायित्व सौंपा। उसके बाद का ललई सिंह का संघर्ष दुर्धर्ष और दुर्दमनीय है। इसके अनुवाद के लिए ललई सिंह ने उपयुक्त व्यक्ति की तलाश की जिसमें केवल अनुवाद की समझ न हो बल्कि पेरियार के लेखन के प्रति सरोकार भी हो। इस क्रम में उन्होंने कानपुर के एक अध्यापक रामधार, जिन्हें प्रमोद रंजन ‘किन्हीं रामधार’ के रूप में उल्लिखित करते हैं, को तैयार किया। फिर किताब छपी। जल्दी ही इस किताब ने उत्तर प्रदेश में एक बवंडर पैदा कर दिया। इसकी प्रतियाँ जब्त कर ली गयीं और प्रकाशक पर मुकदमा किया गया। ललई सिंह हार मानने वालों में नहीं थे। उन्होने बरसों मुकदमा लड़ा और अंततः जीते। बेशक अदालत द्वारा जब्त की गयी प्रतियां लौटाने का आदेश देने के बावजूद राज्य सरकार ने उन्हें प्रतियां नहीं लौटायीं।

इसके साथ ही तथ्य यह भी है कि ‘सच्ची रामायण’ का प्रचार नहीं रुका और यह बात दूर-देहात तक फैलती गयी। पेरियार उन जनसाधारण में परिचित नाम बन गये जो ब्राह्मणवादी भ्रमजाल को तोड़कर एक नया समाज बनाना चाहते थे। बनारस के महान बिरहा गायक नसुड़ी यादव ने पेरियार और ललई सिंह के साथ ‘सच्ची रामायण’ को गाँव-गाँव में लोकप्रिय बनाया। जहां भी वे गाते वहाँ-वहाँ ठाकुर-ब्राह्मण अपने गुंडे भेजते। नसुड़ी स्वयं बारह बोर की रिवॉल्वर लेकर जाते थे। उन दिनों प्रमोद रंजन का अवतरण इस संसार में नहीं हुआ था।

कहने का तात्पर्य यह है कि ललई सिंह ने पेरियार को उत्तर भारत में स्थापित और प्रचारित करने में अपना जीवन होम कर दिया। उन्होंने जीने के लिए जितना लिया उससे हजारों गुना अधिक इस समाज को दिया, फिर भी उनकी कहीं कोई मूर्ति नहीं है। उनके नाम से कोई सड़क नहीं। असल में ललई सिंह एक कृतघ्न समाज और समय के महापुरुष हैं जिनके व्यक्तित्व पर प्रमोद रंजन जैसा व्यक्ति भी कालिख लगाने की कोशिश कर देता है। औरों की बात ही क्या कहें?

जर्मन फ़िल्मकार मार्क हरमन की 2008 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘धारीदार पैजामे में बच्चा’ (द बॉय इन द स्ट्रिप्ड पायजामा) कहती है कि दूसरों के लिए कब्र खोदने वाले भी उसी में गिरते हैं। फिल्म मूलतः यहूदी होलोकास्ट पर आधारित है लेकिन इसका कथानक एक परिवार को लेकर बुना गया है। नाज़ी कमांडेंट राल्फ कन्सेंट्रेशन कैंप का इंचार्ज है जिसका तबादला ऐसी जगह कर दिया जाता है जो जंगलों के बीच है और वहां उसके परिवार के अलावा केवल यहूदी बंदी हैं जिन्हें रोज़ मारा और जलाया जाता है। हवाओं के साथ मनुष्य के जलने की चिरायन्ध से पता चलता है कि कुछ गड़बड़ है। राल्फ ने अपनी पत्नी को भी अपने काम के बारे में झूठ बोला है कि वह कोई सम्मानित पेशा करता है जबकि श्रीमती राल्फ आसपास फैलती आ रही गंध से परेशान होती जा रही हैं। घर में कुल चार प्राणी हैं लेकिन वे दरअसल चार दुनिया हैं। एक बेटी है जिसे पितृदेश की शिक्षा दी जा रही है जो हिटलर की सेना में जाने की इच्छुक है। इस घर का सबसे छोटा सदस्य ब्रूनो है जिसका कोई दोस्त नहीं है। वह एकदम अकेला है और इस बात से बयल्ला हुआ फिरता है कि कोई दोस्त हो जिससे बात की जाय, जिसके साथ खेला जाय। और दोस्त मिलता है धारीदार पैजामा पहने सेमुअल। तारों के बाड़े से घिरे यहूदी कैंप में। तारों में बिजली है। दोस्ती, प्यार और संवाद के बीच ब्रूनो दोस्त के पिता को ढूँढने के लिए तारों के नीचे की जमीन खोदकर अंदर जाता है। सेमुअल द्वारा लाया गाया धारीदार पैजामा पहनकर। उसके बाद का दृश्य तो भयावह है। सबके साथ दोनों बच्चे भी गैस चेम्बर में पहुँच जाते हैं। सबकी पहचान एक ही है। धारीदार पैजामा। अंतिम दृश्य में मनुष्य नहीं हैं। सबके उतारे गए धारीदार कपड़े हैं। यह दृश्य एक मिनट से अधिक स्थिर रहता है। इसका बहुत व्यापक अर्थ है।

एक पत्रकार और लेखक के रूप में हमें भारतीय राल्फों के अंदरूनी जीवन में झांकना चाहिए। बहुत सी डरावनी कहानियाँ मिलेंगी। लेकिन अपने मन में भी झाँकते रहना चाहिए कि कहीं हमारे भीतर भी कोई राल्फ तो नहीं है!



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One Comment on “गाहे-बगाहे: है किस क़दर हलाक-ए फ़रेब-ए वफ़ा-ए गुल!”

  1. लाल सलाम कामरेड। कोशिश बहुत अच्छी है हिंदु समाज को बदनाम करने की, लेकिन हो नहीं पाया।एक तो‌ ऐसे शब्द ढूंढिए जो‌ आज की पीढ़ी को समझ आएं। दूसरा,आज के संदर्भ दीजियेगा क्योंकि संकट आज की पीढ़ी के लिए है।

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